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सवाल पूछ रही है मोदी के बनारस में कांशीराम बस्ती

मायावती ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तर प्रदेश के कई जनपदों में कांशीराम बस्तियों का निर्माण कराया था। उनकी योजना थी कि दलित, पिछड़े और पसमांदा बड़ी इमारतों में स्वच्छ वातावरण में रहें। लेकिन उनके बाद ये बस्तियां उपेक्षा का शिकार हुई हैं। बनारस की एक ऐसी ही बस्ती का हाल बता रही हैं आकांक्षा आजाद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में कांशीराम आवास नामक एक बस्ती है। वाराणसी रेलवे स्टेशन से करीब पांच किलोमीटर दूर है यह बस्ती। इस बस्ती का निर्माण मायावती सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2010 में हुआ। इसकी आबादी 15 हज़ार से अधिक है और लगभग तीन हज़ार परिवार इसके निवासी है। इस शहरी बस्ती में दलित, पिछड़े और पसमांदा मुसलमान रहते हैं। उत्तरप्रदेश में जब चुनाव नजदीक है तब इस बस्ती में भी तेज हलचल है।

बस्ती के ज्यादातर परिवारों के पास सफेद कार्ड है। कुछ ही परिवार के पास लाल कार्ड भी है। दोनों रंगों में फर्क है। सफेद वाले कम गरीब। लाल वाले अधिक गरीब। कई ऐसे भी परिवार हैं, जिनकी अर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि उन्हें लाल कार्ड मिलना चाहिए, लेकिन उन्हें भी सफेद कार्ड दिया गया है। इस तरह की गड़बड़ी के कारण उन्हें तय राशन से कम ही राशन मिल पाता है। अब तो जबसे राज्य सरकार ने राशन भुगतान को डिजिटलीकरण किया है, लोगों की परेशानियां और भी बढ़ गयी हैं। यहां के लोग बताते हैं कि कभी सर्वर की समस्या तो कभी अंगूठा न मैच करने की समस्या से उन्हें जुझना पड़ता है। 

आप लोग राशन कार्ड में हुई गड़बड़ियों को क्यों नहीं सुधरवाते हैं? तो लोग कहते हैं कि उनलोगों ने कई बार कोशिशें की, लेकिन बार-बार दिहाड़ी छोड़कर कार्यालयों का चक्कर लगाना उनके वश में नहीं है। नहीं कमाएंगे तो घर कैसे चलेगा?

बस्ती जब बसायी गई थी तब एक चिकित्सालय भी बनाया गया था। अब यहां ताला तो नहीं है, लेकिन लोग नहीं आते हैं। पूछने पर कहते हैं कि डाक्टर गायब रहते हैं। बस्ती के बगल में अंग्रेजी दवाओं की एक छोटी-सी दुकान है। बस्ती के ज्यादातर लोग इसी से अपना काम चलाते हैं। काम चलाने का मतलब यह कि दवा दुकानदार ही उनका कामचलाऊ डाक्टर भी बन जाता है। बड़ी बीमारियों की स्थिति में भी न तो लोग जिला अस्पताल में जाना चाहते हैं और ना ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सर सुंदरलाल अस्पताल में। पूछने पर लोग कहते हैं कि वहां इलाज इतना महंगा है। हमलोग दिहाड़ी पर कमाने-खाने वाले लोग है। इतना पैसा कहाँ से लाएंगे? एक तो आनेजाने में ही खर्च हो जाता है। डाक्टर लोग ठीक से देखते भी नहीं है। इसलिए इसी मेडिकल दुकान से दवा लेकर खा लेते हैं। हम गरीब लोगों को यही इलाज ठीक बैठता है।

उपेक्षा का शिकार कांशीराम बस्ती

बस्ती में ऐसा कोई भी नहीं, जिसके पास सरकारी नौकरी हो। सबका जीवन दिहाड़ी कामों पर ही निर्भर है। मजदूरी, दीवार पुताई, ठेला लगाना, फल-सब्ज़ी बेचना, पंचर बनाना आदि ही इनका पेशा है। कुछ लोग किराए के ऑटो भी चलाते हैं। वहीं कुछ लोग बिजली मिस्त्री का भी काम घर-घर जाकर करते हैं। 

जब बस्ती बसायी गई थी तब तत्कालीन राज्य सरकार ने बड़े अरमान से कि यहां के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, इसके लिए एक स्कूल भी बनाया था। अब यह स्कूल चार सालों से बंद है। चूंकि इस बस्ती में अधिकतर दलित और पिछड़े जाति के हैं और वे गरीब इतने हैं कि अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। ऐसे में उनके बच्चे किसी तरह 12-15 की उम्र तक पढ़ते हैं, फिर परिवार चलाने में हाथ बंटाने में जुट जाते हैं। बस्ती के हर एक घर में अमूमन 6-7 सदस्य हैं। उनके कपड़े, खाने-पीने, इलाज के खर्च के बाद इस महंगाई के दौर में शिक्षा उनके लिए ‘लग्जरी’ चीज बन गयी है।

बस्ती के निर्माण के कुछ ही सालों में पक्के मकानों की स्थिति जर्जर हो चुकी है। जो बिल्डिंग बाद में बने हैं, उसकी हालत कुछ ठीकठाक है। हालांकि जिला प्रशासन के तरफ से जर्जर मकानों की सुध भी नहीं ली जा रही है। बस्ती में साफ-सफाई की स्थिति भी खराब है। विशेष तौर पर बरसात में पानी जमा हो जाता है। स्वच्छ पेयजल यहां के लोगों के लिए सपना सरीखा है।

इस बस्ती में शिक्षित महिलाएंन के बराबर हैं। कुछ ही महिलाएं हैं, जिन्होंने पांचवी-आठवीं तक पढ़ाई की है, जिसे ये महिलाएं भूल भी चुकी हैं। बस्ती की कुछ महिलाएं अन्य लोगों के घर पर चौका-बर्तन का काम करती हैं, जिसके एवज उन्हें 1200-1500 तक प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। कुछ महिलाएं थैला सिलने, कपड़ों में डिजाइनदार लेस लगाने, माला बनाने आदि का काम करती है। लेकिन दिन भर की इन थकाऊ कामों के बदले उन्हें 30-40 रुपये ही मिलते हैं। 

महिलाओं की एक परेशानी और भी है। सिर्फ-गिने चुने परिवारों को ही उज्ज्वला योजना का लाभ मिला है और उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वो हर महीने हज़ार रुपये देकर गैस सिलेंडर खरीद सकें। नतीजतन गैस सिलेंडर अब एक ‘शो-पीस’ बनकर रह गया है। 

बस्ती में दिहाड़ी काम करने वालों की संख्या सबसे अधिक है। साल 2020 और 2021 में अप्रत्याशित लॉक डाउन से सबके आय के साधन पूरी तरह से बंद हो गए। ज्यादातर परिवार स्थानीय संगठनों, मिशनरियों द्वारा चलाये गए राहत अभियान के कारण ही अपना खाना-पीना कर पाए। लोगों ने बताया कि इस दौरान सरकार केवल चावल और आटा दे रही थी। बिना तेल, दाल और सब्जी के सिर्फ चावल और आटा खाकर तो जिंदा नहीं रहा जा सकता है। लॉकडाउन के कारण फल-सब्ज़ी, तेल सबके दाम बढ़ गए, जिससे कई परिवार में भुखमरी की नौबत आ गयी थी। इन सबके फेर में लोगों के जो थोड़ी बहुत भी बचत थी, खत्म हो गयी। 

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लॉकडाउन के कारण बच्चों के स्कूल बंद हो गए और शिक्षा की स्थिति आज दो साल बाद भी सामान्य नहीं हो पाई है। बच्चे पढ़ना भूल चुके हैं। छोटे बच्चों ने तो अबतक स्कूल का मुंह भी नहीं देखा हैं। प्राइवेट स्कूल तो ऑनलाइन शिक्षा दे रहे हैं, लेकिन जहां बस्ती के लोग खाने-पीने के लिए भी राहत अभियान पर आश्रित हों, वहाँ प्राइवेट स्कूल का खर्चा उठाना असम्भव ही है। वैसे इस बस्ती में कुछेक परिवार ही है जिनके पास टीवी है। 

अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का क्रियान्वयन भी सरकारी कार्यशैली पर सवाल उठाता है। वृद्धा पेंशन के रूप में कुछ एक परिवारों को तीन-चार महीने के अंतराल पर एकाउंट में 500 रुपए आ जाते हैं। बातचीत के क्रम में कई ऐसे परिवार मिले जिनमें योग्य व्यक्तियों को पेंशन मिलना शुरू ही नहीं हुआ है। कई लोग तो सरकार से खासे नाराज है कि इस महंगाई में वृद्धा पेंशन के नाम पर सिर्फ 500 रुपये देने का क्या मतलब है। इससे अच्छा तो पेंशन बन्द ही हो जाये।  

नशाखोरी इस बस्ती में एक तो कोढ़ और उपर से खाज वाली कहावत को चरितार्थ करती है। लगभग सभी पुरुष किसी न किसी तरह का नशा करते ही हैं। इस नशे में गुटखा-पान से लेकर शराब तक शामिल है। पहले शराब का नशा करने वालों की संख्या कम थी, लेकिन कुछ ही समय पहले बस्ती के बगल में ही एक शराब ठेका सरकार द्वारा खोला गया है। शराब पीने के लिए उपलब्ध करायी गयी सरकारी सुविधा के बाद बस्ती में घरेलू हिंसा में इजाफा हुआ है। औरतें कई दफे इसकी शिकायत पुलिस को कर चुकी है। पुलिस आकर उनके पति को दो-चार डंडे मारकर चली जाती है लेकिन प्रताड़ित होती महिलाओं की हालत जस की तस है। नशे की हालत में आस-पड़ोस में झगड़े-मारपीट होतें रहतें है। पुलिस कभी उठाकर आरोपियों को थाने ले जाती है या कभी समझौता करा देती है। यहां की सभी महिलाएं एक स्वर में सरकारी शराब के ठेके को बंद कराना चाहती हैं। 

इस बस्ती के लोग मोदी-योगी की सरकार से खासे नाराज हैं। कोरोना से बचाव के नाम पर जिस अप्रत्याशित तरीके से लॉकडाउन लगाया गया उसने यहां की निवासियों की कमर तोड़ दी है। आज भी हालत ये है कि लोगों को पहले की तरह काम नहीं मिल रहा। पहले भी उनकी स्थिति कोई अच्छी नहीं थी, लेकिन लॉकडाउन ने उनके जीवन पर गहरी चोट की है। 

बस्ती के निर्माण के कुछ ही सालों में पक्के मकानों की स्थिति जर्जर हो चुकी है। जो बिल्डिंग बाद में बने हैं, उसकी हालत कुछ ठीकठाक है। हालांकि जिला प्रशासन के तरफ से जर्जर मकानों की सुध भी नहीं ली जा रही है। बस्ती में साफ-सफाई की स्थिति भी खराब है। विशेष तौर पर बरसात में पानी जमा हो जाता है। स्वच्छ पेयजल यहां के लोगों के लिए सपना सरीखा है।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

आकांक्षा आजाद

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस से राजनीति शास्त्र में एमए आकांक्षा आजाद स्वतंत्र लेखिका हैं तथा विश्वविद्यालय में छात्र संगठन भगत सिंह छात्र मोर्चा की अध्यक्ष हैं

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