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जोगेन्द्रनाथ मंडल : हार नहीं माननेवाले अदम्य साहसी दलित

जिन्ना के भाषण से जोगेन्द्रनाथ मंडल को संभवतः इतमीनान हुआ होगा और फिर जोगेन्द्रनाथ मंडल को श्रम और कानून मंत्री बनाया गया। यह इत्तेफाक नहीं था कि भारत और पाकिस्तान दोनों जगह कानून मंत्री का जिम्मा दो दलित नेताओं के पास था। तब डॉ. आंबेडकर को यह जिम्मेदारी मिली भारत में दी गयी थी। स्मरण कर रहे हैं देवेंद्र शरण

डॉ. जोगेन्द्रनाथ मंडल ( 29 जनवरी, 1904 – 5 अक्टूबर, 1968) पर विशेष

जोगेन्द्रनाथ मंडल का जन्म 29 जनवरी, 1904 को अविभाजित बंगाल के बोरिसाल जिला के मैस्तारकांदी गांव में एक गरीब नमोशूद्र (दलित) परिवार में हुआ था। दरअसल, अविभाजित बंगाल में नमोशूद्र जाति को चांडाल नाम से पुकारा जाता था। चांडालों में सांस्कृतिक और सामाजिक जागृति लाने का श्रेय ‘मतुआ’ धर्म के संस्थापक हरिचंद ठाकुर और उनके बेटे गुरुचंद ठाकुर को जाता है। हरिचंद ठाकुर सामाजिक विषमता का मूल हिन्दू धर्म की शोषक प्रवृत्ति को मानते थे। सन् 1876 में लाखों अछूत अकाल और भुखमरी के कारण मौत के मुंह में समा गये थे। चारों तरफ जमींदारों द्वारा और सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अछूतों को गुलाम बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लेकर अत्याचार किया जा रहा था। मनुवादी क्रूरता और शोषण को धर्म का आवरण पहनाकर जायज ठहराते थे और अछूतों को यह बताया जाता था कि चातुर्वर्ण्य जाति व्यवस्था ईश्वर का आदेश है। दूसरी तरफ मुसलमानों के मौलवीवाद और अंग्रेज हुकूमत चाबुक के कारण अछूतों की भी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। ऐसी परिस्थिति को देखकर हरिचंद ठाकुर ने 1830 में मतुआ धर्म की स्थापना की, जो समतामूलक विचारधारा पर आधारित थी।

मतुआ धर्म में ब्राह्मणवाद का बहिष्कार और स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा को सर्वाधिक महत्व दिया गया। लोगों को संदेश दिया गया कि माता-पिता व परिवार के प्रति श्रद्धा रखो। कर्मकांड को छोड़कर सतपथ पर चलो।

जीवे दया, नामे रुपी, मानुषेते मिष्ठा

इहा छाड़ा आरजन सब क्रिया भ्रष्ट

अर्थात– मनुष्य को जीवों पर दया करना चाहिए। इसको छोड़कर बाकी सब आडंबर है।

हरिचंद ठाकुर और उनके बेटे गुरुचंद ठाकुर ने अछूतों को संगठित होने और सबसे ज्यादा शिक्षित होने पर जोर दिया। 1880 में गुरुचंद ठाकुर ने अपने घर पर ही पाठशाला स्थापित करके शिक्षा को अछूतों के घर-घर पहुंचाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने कहा–

“बाची किगंबा मोरी ताते खाति नाई

ग्रामे-ग्रामे पाठशाला गडे तोला चाई”

अर्थात– हमलोग मरें या जिन्दा रहें, लेकिन हर गांव में पाठशाला होनी चाहिए।

“ताईबली भाई मुक्ति जदि चाई विधान हईले हबे

पेले विद्याधन दूख निवारण चिर सुखी हवे भवे”

अर्थात, यदि तुमलोग दु:ख-दरिद्रता से मुक्ति चाहते हो, सुखी होना चाहते हो तो शिक्षित होना जरूरी है।

गुरुचंद ठाकुर ने अछूतों के लिए ही नहीं, वरन् सभी पिछड़ी जातियों और महिलाओं के कल्याण के लिए अपने जीते जी 1096 स्कूल, कॉलेज स्थापित करने में सफल हो सके। यह बंगाल दलित आन्दोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। चांडालों ने ऊंची जाति के खेतों को नहीं जोतने और हड़ताल करने का निर्णय लिया कि सवर्ण जातियों के घरों को फूस से भी नहीं छावेंगे। यह विरोध ऊंची जाति के लोगों के द्वारा उन पर किए जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध लिया गया था। अभिलेखीय जानकारी के अनुसार यह हड़ताल 4-5 महीने तक चला।

गुरुचंद ठाकुर अपनी जाति का सम्बोधन चांडाल से किये जाने से नाखुश थे। बंगाल के मुनवादियों ने सरकारी दस्तावेजों में जान-बूझकर अछूतों को चांडाल घोषित कर दिया था। गुरुचंद ठाकुर ने ‘चांडाल’ शब्द को बदलकर उसे बेहतर नाम देने के लिए ब्रिटिश सरकार से लंबी लड़ाई लड़ी, तब जाकर 1911 की जनगणना में संशोधित करके ‘नमोशूद्र समाज’ नाम दर्ज किया गया।

इतिहासकारों ने राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और बंगाल के भद्रलोक नायकों को भारतीय नवजागरण का संवाहक कहा, किन्तु मतुआ आंदोलन और उसके तहत अछूतों, महिलाओं और पिछड़ों को सांस्कृतिक रूप से और शैक्षणिक रूप से जागृत करने के इतने बड़े आन्दोलन की लगभग अनदेखी कर दी।

बहरहाल इन सब उतार-चढ़ावों व सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों के दौर में जोगेन्द्रनाथ मंडल का जन्म हुआ। उनके माता-पिता गरीब थे, लेकिन शिक्षा का महत्व भलीभांति जान गए थे। गांव के ही प्राथमिक पाठशाला में बालक जोगेंद्रनाथ मंडल की शिक्षा प्रारम्भ हुई और प्रारंभिक परीक्षा पास करने पर गांव से दो किलोमीटर दूर बर्थीतारा इंस्टीट्यूट में माध्यमिक शिक्षा में प्रवेश लिया। शीलप्रिय बौद्ध ने अपनी किताब ‘महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मंडल : जीवन और विचार’ में उनके विद्यार्थी जीवन के बारे में लिखा है कि वे मेधावी और जिज्ञासु छात्र थे। इसलिए सवर्ण सहपाठियों का उनके प्रति व्यवहार उनको भीतर तक कचोटता था। शिक्षकों के पास भी शिकायत ले जाने का कोई फायदा नहीं होता था, क्योंकि शिक्षकगण भी जातिगत दुर्भावना से ग्रसित होते थे। ब्राह्मणों के विशेषाधिकार और जनेऊ लटकाकर अपने को श्रेष्ठ घोषित करना इन्हें तर्कसंगत नहीं लगता था। गृह प्रवेश, प्राण-प्रतिष्ठा, शादी-विवाह और यहां तक कि मृत्यु संस्कार में भी ब्राह्मणों का वर्चस्व इस प्रकार होता था कि उसके बिना काम नहीं चलता। ये सारे विशेषाधिकार ब्राह्मणों को ही क्यों? सारा सामाजिक वर्गीकरण इस प्रकार क्यों बना है कि ब्राह्मण अपने आपको देवता बना बैठे हैं और शूद्रों को गुलाम?

अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए इनका नामांकन शहर के कॉलेज में करवाया गया, लेकिन आर्थिक कारण इसमें बाधा बन रहे थे। तब जोगेन्द्र के चाचा जी ने उनके शहर की पढ़ाई का आधा बोझ अपने कंधों पर ले लिया। जोगेन्द्रनाथ मंडल ने बोरिसाल के ब्रजमोहन कॉलेज से संस्कृत व गणित विषय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

इसी दौरान जोगेन्द्रनाथ मंडल का विवाह बोरीसाल जिला के गौर नदी थाने के खाजबाड़ी गांव निवासी प्रह्लादचंद्र की बेटी कमला देवी से 1926 में हो गया। विवाह के उपरान्त भी जोगेन्द्रनाथ वकालत की पढ़ाई करना चाहते थे। इस बार उनके ससुर ने उनकी पढ़ाई का भार उठाया।

वकालत और जनसेवा

सन् 1934 में एलएलबी की परीक्षा पास करने के बाद जोगेंद्रनाथ मंडल ने कलकत्ता में रहकर 1935 से वकालत शुरू की, लेकिन समाजसेवा का लक्ष्य पूरा न कर पाने के कारण कलकत्ता छोड़कर बोरीसाल जिला सत्र न्यायालय में उन्होंने वकालत शुरू कर दी। इस दौरान इन्हें अपने समाज की विविध समस्याओं को नज़दीक से देखने-समझने का अवसर मिला। उन्होंने देखा कि कैसे अछूत व पिछडे समुदायों के लोग शोषण का शिकार हो रहे हैं। उन्होंने समस्याओं के निराकरण के लिए राजनीति में जाकर कुछ करने का निर्णय लिया।

जोगेन्द्रनाथ मंडल ( 29 जनवरी, 1904 – 5 अक्टूबर, 1968) पर विशेष

सन् 1935 के भारतीय अधिनियम के अनुसार बंगाल विधानमंडल की घोषणा हुई। मंडल ने बोरीसाल के माकड़गंज उत्तर पूर्व निर्वाचन क्षेत्र में पर्चा भरा। चुनाव 6 जनवरी, 1936 को हुआ, जिसमें 1416 मतों से जोगेन्द्रनाथ मंडल विजयी हुए। नमोशूद्र जाति का एक उम्मीदवार सामान्य सीट से विजयी हुआ, उस समय के लिए यह एक बड़ी घटना थी।

विधायक के रूप में जोगेन्द्रनाथ मंडल का कार्यकाल प्रभावी रहा। दलितों के लिए स्कूल, पुलिस विभाग में भर्ती, दलित कर्मचारियों को नियुक्ति, छात्रों के लिए वजीफा और छात्रावास और किसानों के लिए नहर-निर्माण जैसे जनोपयोगी कार्य किए।

उन दिनों नेताजी सुभाषचन्द्र बोस बंगाल में कांग्रेस के प्रभारी थे। नेता जी मंडल की जनसेवा से खुश थे। सन् 1940 में कांग्रेस छोड़करकर सुभाषचंद्र बोस ने फारवर्ड ब्लॉक का गठन किया था। इसी सिलसिले में उनका बोरीसाल आगमन हुआ। नेताजी ने जोगेन्द्रनाथ मंडल की सराहना की। दोनों के बीच आपसी संबंध हमेशा स्नेहमयी बना रहा। कांग्रेस से मोहभंग होने के बाद मंडल ने स्वतंत्र अनुसूचित जाति पार्टी का 1938 में गठन किया।

हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग मिलकर 1941-42 में श्यामा-हक मंत्रिमंडल का गठन बंगाल में हुआ। इस मंत्रिमंडल को श्यामाप्रसाद मुखर्जी और फजलूल हक दोनों ने मिलकर बनाया था। फिर अगस्त, 1942 में शुरु हुए भारत छोड़ो आंदोलन में कांग्रेस समेत आम जनता ने बढ़कर भाग लिया लेकिन श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन का विरोध किया। ‘लीव्स फॉम ए डायरी’ (आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस) के मुताबिक और सुमित गुहा द्वारा 17 अगस्त, 1992 के इंडियन एक्सप्रेस के लेख के आधार पर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने न सिर्फ भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया, वरन तत्कालीन गवर्नर को पत्र लिखकर आंदोलन से निपटने के कारगर उपाय भी बताये। 28 मार्च, 1943 को फजलूल हक ने त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप कर मंत्रिमंडल भंग करने की अनुशंसा की।

ख्वाजा नजीमुद्दीन मंत्रिमंडल का गठन जोगेन्द्रनाथ मंडल के सहयोग से 24 अगस्त 1942 को हुआ, जिसमें छह हिन्दू मंत्री और तीन दलित मंत्री बनाये गए। मंडल को सहकारी एवं ग्रामीण ऋण मंत्री का पदभार मिला। इस दौरान उन्होंने अनुसूचित जाति के शिक्षा और रोजगार के लिए अनेक काम किये।

दलितों में जागृति और शिक्षा के प्रसार को महत्व देते हुए उन्होंने एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। उसका नाम था– ‘जागरण पत्रिका’। जून 1943 से यह पत्रिका नियमित प्रकाशित होने लगी। इसका कार्यालय कलकत्ता के मछली बाजार 92/1/2, सीताराम घोष स्ट्रीट के एक दोमंजिला मकान में बनाया गया। सन् 1947 में भारत विभाजन के बाद इसका कार्यालय ढाका शहर में स्थानान्तरित किया गया। लेकिन मंडल के पाकिस्तान छोड़ने के बाद 1950 में इस पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया।

दलित मजदूरों, कामगारों और असंगठित मजदूरों के सवाल पर डॉ. आंबेडकर ने ऑल इंडिया शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की और इसकी राष्ट्रीय स्तर पर बैठक 30-31 मार्च,1942 को दिल्ली में बुलाई गई। बैठक में बंगाल के प्रतिनिधि के रूप में मुकुन्द बिहारी मलिक, आर.एल. विश्वास और जोगेन्द्रनाथ मंडल ने भाग लिया। 

जोगेन्द्रनाथ मंडल का एक बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर को भेजने के लिए जी-जान लगा दिया। जबकि कांग्रेस ने हरसंभव प्रयास किया कि डॉ. आंबेडकर को उच्च सदन की सदस्यता न मिले। तब भारत का संविधान बननेवाला था और सरदार पटेल ने यहां तक कह दिया था कि “मैंने संविधान सभा के द्वार और खिड़कियां तो क्या रौशनदान तक बंद कर दिए हैं। देखता हूँ डॉ. आंबेडकर इसमें कैसे प्रवेश करते हैं।”

जोगेन्द्रनाथ मंडल रात-दिन इसी मिशन में रहते थे कि आंबेडकर को संविधान सभा में विजयी बनाकर कैसे भेजा जाय। संविधान सभा में 296 सदस्य थे, जिनमें 39 दलित थे। ये सभी प्रान्तीय विधानमंडलों से चुने गए थे। आंबेडकर के गृह प्रवेश बाम्बे प्रेसीडेंसी ने उन्हें नहीं चुना था। वे चुनाव हार गए थे। इसके बावजूद आंबेडकर ने हार नहीं मानी और कलकत्ता जाकर बंगाल विधान परिषद के सदस्यों का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया। लेकिन बात नहीं बनी, वे दिल्ली लौट आए।

मंडल डॉ. आंबेडकर की लेखनी, विद्वता और दलितों के प्रति उनके पूर्ण समर्पण से प्रभावित थे। उन्हें जब आंबेडकर के नहीं चुने जाने की जानकारी हुई तो उन्होंने डॉ. आंबेडकर को बंगाल के जैसोर-खुलना क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया।

नेहरू ने जब सरकार बनाई तो देश का बंटवारा नहीं हुआ था। लेकिन देश के कई भागों में दंगे शुरू हो गए थे। प्रारंभ में अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग शामिल नहीं हुआ। लेकिन वायसराय वेवल की मध्यस्थता से अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग भी शामिल हुई। सरकार में कांग्रेस के तरफ से दलित नेता जगजीवन राम को अंतरिम सरकार में श्रम मंत्री बनाया गया था और मुस्लिम लीग की तरफ से जोगेन्द्रनाथ मंडल कानून मंत्री बने थे। यह मंत्रिमंडल 15 अगस्त, 1947 तक अस्तित्व में रही।

डॉ. आंबेडकर मंडल के सहयोग से चुनाव जीत गए और उनका संविधान सभा में जाने का रास्ता साफ हुआ। संविधान सभा की कार्यवाही 9 दिसम्बर, 1946 को प्रारम्भ हुई। 13 दिसम्बर को पंडित नेहरू ने भारतीय संविधान के ‘लक्ष्यों की उद्घोषणा’ को प्रस्तुत किया कि भारत एक ‘स्वतंत्र गणराज्य’ होगा। संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने 17 दिसंबर को डॉ. आंबेडकर को अपना मत रखने के लिए आमंत्रित किया। अपने प्रथम भाषण से ही डॉ. आंबेडकर ने नेहरू को बेहद प्रभावित किया।

वहीं, 4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में ‘भारतीय स्वतंत्रता बिल’ पेश किया गया और 15 जुलाई 1947 को उसे पास कर दिया। चूंकि बंगाल के पूर्वी क्षेत्र खुलना-जैसोर की आबादी के हिसाब से पाकिस्तान को जाना था, इसलिए बंगाल विभाजन के बाद डॉ. आंबेडकर की संविधान सभा की सदस्यता चली गई। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. आंबेडकर की विद्वता और कानून की बारीक जानकारी को देखते हुए उन्हें पुनः चुनने का निर्णय लिया और एम.आर. जयकर के त्यागपत्र से खाली हुए जगह पर डॉ. आंबेडकर को पुनः चुन लिया गया।

हालांकि 1946 में ही अंग्रेजों ने तय कर लिया था कि वे भारत छोड़ देंगे। इसलिए भारत का नियंत्रण धीरे-धीरे देश के नेताओं को सौंपने की प्रक्रिया शुरू हुई। 2 सितंबर, 1946 को अंतरिम सरकार बनाई गई, जिसके मुखिया जवाहरलाल नेहरू बने। नेहरू ने जब सरकार बनाई तो देश का बंटवारा नहीं हुआ था। लेकिन देश के कई भागों में दंगे शुरू हो गए थे। प्रारंभ में अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग शामिल नहीं हुआ। लेकिन वायसराय वेवल की मध्यस्थता से अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग भी शामिल हुई। सरकार में कांग्रेस के तरफ से दलित नेता जगजीवन राम को अंतरिम सरकार में श्रम मंत्री बनाया गया था और मुस्लिम लीग की तरफ से जोगेन्द्रनाथ मंडल कानून मंत्री बने थे। यह मंत्रिमंडल 15 अगस्त, 1947 तक अस्तित्व में रही।

यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कांग्रेस मौलाना आजाद को मंत्रिपरिषद में रखना चाह रही थी। लेकिन जिन्ना ने इसका विरोध किया और अंतरिम सरकार में जोगेंद्रनाथ मंडल के रूप में एक दलित हिन्दू को मंत्रीमंडल में लेकर आए। जिन्ना की जिद को वायसराय वेवल ने मान लिया। 

जोगेन्द्रनाथ मंडल कांग्रेस के सम्पर्क में थे, किन्तु कांग्रेस से सुभाषचंद्र बोस के हट जाने से मंडल भी सुभाष बोस के खेमे में आ गए और सुभाषचंद्र बोस के बड़े भाई शरतचंद्र बोस और सुहरावर्दी खां के साथ मिलकर बंगाल के विभाजन का ना सिर्फ विरोध किया, बल्कि एक संयुक्त बंगाल राष्ट्र की मांग करने लगे, जिसे ब्रिटिश सरकार ने नकार दिया। अंतरिम सरकार में रहते हुए जोगेन्द्रनाथ मंडल ने भारत विभाजन का खुलकर विरोध किया था। उन्होंने दिल्ली में 22 अप्रैल, 1947 को प्रेस कांफ्रेन्स बुलाकर विरोध जताया था। भारत विभाजन की घोषणा के पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम ने लीग लार्ड माउंटबेटन के साथ विचार-विमर्श किया। साथ ही सिखों के नेता सरदार बलदेव सिंह से भी विमर्श किया। अन्ततः 3 जून, 1947 को नेहरू ने रेडियो पर यह घोषणा की कि “हमने अंग्रेज सरकार की तजीवीजों को मंजूर करने का निश्चय किया है और अपनी उच्च कमेटी को मंजूर करने के लिए भेज दिया है।” ऑल इंडिया रेडियो पर नेहरू के अलावा माउंटबेटन, जिन्ना और बलदेव सिंह ने भी भाषण दिये। भाषण के अन्त में नेहरू ने ‘जय हिन्द’ और जिन्ना ने ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ कहा।

विभाजन के बाद दलित प्रश्न फिर उठ खड़ा हुआ। डॉ. जोगेन्द्रनाथ मंडल ने कराची, पाकिस्तान जाने से पूर्व डॉ. आंबेडकर को एक तार भेजा कि अब वे पाकिस्तान में मुस्लिम लीग के मंत्रिमंडल में रहें या नहीं रहें?

डॉ. शंकरानंद शास्त्री लिखते हैं कि “बाबासाहेब ने जोगेन्द्रनाथ मंडल के तार का कोई जवाब नहीं दिया।” शंकरानंद शास्त्री उन दिनों तिलक मार्ग दिल्ली में बाबासाहेब के साथ ठहरे हुए थे। आंबेडकर ने उस समय अपनी प्रतिक्रिया दर्शाते हुए कहा था “जोगेन्द्र नाथ मंडल को मुस्लिम लीग के मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होना चाहिए। मुसलमानों ने कभी भी अछूतों से प्यार नहीं किया बल्कि उनके साथ वही घृणा का व्यवहार किया, जैसे ब्राह्मणवादी हिन्दू करते हैं।”

जोगेंद्रनाथ मंडल, स्वतंत्रता की घोषणा के पूर्व, 5 अगस्त 1947 को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से सिंध एक्सप्रेस से कराची के लिए रवाना हुए और 6 अगस्त को पहुंच गए। हालांकि डॉ. आंबेडकर को तार देकर पूछना कि वे पाकिस्तान के मंत्रिमंडल में रहें या नहीं रहें, यह साबित करता है कि जोगेन्द्रनाथ मंडल का पाकिस्तान जाने का निर्णय पुख्ता नहीं था। वे असमंजस में थे।

दूसरी तरफ मो. जिन्ना एक सधे हुए और चालाक राजनेता थे। 9 अगस्त, 1947 को मो. जिन्ना ने अपने मंत्रियों को कराची के एक होटल में रात्रिभोज दिया था। जिन्ना के बगल में बैठे लियाकत अली ने मंडल से पूछा “क्या आप संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष बनेंगे?” जोगेन्द्रनाथ चुप ही रहे। भोज समाप्ति के बाद लियाकत अली ने उनसे कहा कि आपको पाकिस्तान के पहले संविधान सभा के मीटिंग की अध्यक्षता करनी है यही मिस्टर जिन्ना की इच्छा है।

इसके अगले ही दिन 10 अगस्त को जोगेन्द्रनाथ मंडल ने पाकिस्तान संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष बनाए जाने पर आभार प्रकट किया और अपने भाषण में कहा कि पाकिस्तान सुखी और सम्पन्न देश बनेगा, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की जायेगी और मुस्लिम लीग के शासन में जिन्ना के नेतृत्व में अल्पसंख्यक सुरक्षित रहेंगे, ऐसा लगता है।

इसके उपरांत 11 अगस्त को मंडल के अस्थायी सभापतित्व में मो. अली जिन्ना को स्थायी सभापति बनाया गया। इस दौरान अपने भाषण में जिन्ना ने कहा– “यदि आप अपना अतीत बदलना चाहते हैं, तो प्रत्येक को मिल-जुलकर काम करना होगा, चाहे आप किसी भी कम्युनिटी से हो, उसका रंग कौन-सा है, जाति क्या है, इससे हमें कोई मतलब नहीं है। यहां पर प्रगति करने का सभी को समान अवसर मिलेगा। … आप मंदिर, मस्जिद तथा अन्य जगहों पर जाकर अपने-अपने भगवान की पूजा करने के लिए स्वतंत्र हो। राष्ट्र को इससे कोई मतलब नहीं कि आपकी जाति, धर्म क्या है। सभी को समान रूप से नागरिकता मिलेगी।”

दिसम्बर, 1967 में बंगाल प्रांत के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने जीवन के आखिरी चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य विरोधी पार्टियों के सहयोग से कांग्रेस के विरुद्ध बंगाल के ‘वारासात’ विधानसभा क्षेत्र से खड़ा होने का निर्णय लिया और सघन प्रचार-प्रसार में जुट गए। चुनाव परिणाम में उन्हें 84,644 वोट मिले और नरेन्द्र नाथ सेन को 1,43,883 वोट मिले। इस तरह मंडल पुनः चुनाव हार गए। लेकिन इससे जोगेन्द्रनाथ मंडल की सक्रियता पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा।

जिन्ना के भाषण से जोगेन्द्रनाथ मंडल को संभवतः इतमीनान हुआ होगा और फिर जोगेन्द्रनाथ मंडल को श्रम और कानून मंत्री बनाया गया। यह इत्तेफाक नहीं था कि भारत और पाकिस्तान दोनों जगह कानून मंत्री का जिम्मा दो दलित नेताओं के पास था। तब डॉ. आंबेडकर को यह जिम्मेदारी मिली भारत में दी गयी थी।

प्रो. इश्तियाक अहमद की मानें तो जिन्ना भारत को दिखाना चाहते थे कि हमने भी अपना कानून मंत्री एक दलित को बनाया है। ये उनकी दिखावे की राजनीति के अलावा कुछ नहीं था। कानून मंत्री के रूप में जोगेन्द्र नाथ मंडल के कार्यों का लेखा-जोखा उपलब्ध नहीं होना, यह बतलाता है कि कानून मंत्री उन्हें सिर्फ नाम के लिए बनाया गया। लेकिन श्रम मंत्री के रूप में उनके कार्यों का विवरण अवश्य मिलता है। पाकिस्तान के श्रमिकों की समस्याओं का निराकरण, सांप्रदायिक दंगों में हिन्दुओं की सुरक्षा, पाकिस्तानी दलित छात्रों की शिक्षा में सहायता, पूर्व बंगाल के अल्पसंख्यक बोर्ड का गठन। 33वें अन्तर्राष्ट्रीय श्रम परिषद में 1950 में उन्हें जेनेवा में श्रम मंत्री होने के हैसियत से जाना था लेकिन जोगेन्द्रनाथ मंडल की जगह मलिक मो. अनवर को पाकिस्तान के प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया। इससे भी श्रम मंत्री के रूप में पाकिस्तान में उनके पर काटे जाने का पता चलता है।

बहरहाल जिन्ना 1948 में बीमार रहने लगे। उन्हें स्वास्थ्य सुधार के लिए बलुचिस्तान लाया गया, लेकिन वहां भी उनकी तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ। वे 11 दिसंबर, 1948 को कराची लौट आए और उसी रात दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया। जिन्ना की मृत्यु के बाद लियाकत अली जोगेन्द्रनाथ मंडल को पूरी तरह नजरअंदाज करने लगे। उनको श्रम और कानून मंत्री के रूप में कहीं भी सार्वजनिक वक्तव्य देने के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली से पूर्व अनुमति लेना आवश्यक कर दिया। उनके उपर नजर रखा जाने लगा।

इन सबके बीच मंडल ने पाकिस्तान में शेड्युल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की। पाकिस्तान में भी दलितों का जीवन उत्पीड़न से भरा था। उनको एक तरह से बंधुआ सफाई कर्मचारी बनाकर रखा जा रहा था। एक अध्यादेश लाकर उनको चाहकर भी भारत के लिए पलायन नहीं करने दिया जा रहा था। कारण यह था कि यदि दलित (अछूत) चले गए तो साफ-सफाई का काम कौन करेगा? दूसरी तरफ हिन्दुओं का मार-काट, बलात्कार और शोषण के समय पाकिस्तानी मुसलमान दलितों और सवर्ण हिन्दुओं में कोई फर्क नहीं करते। हिन्दू मतलब हिन्दू। पूर्व पाकिस्तान और पश्चिम पाकिस्तान में हिन्दुओं पर साम्प्रदायिक दंगे हो रहे थे। जोगेन्द्रनाथ मंडल ने दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा शुरू किया। ढाका में पूर्वी बंगाल में दस हजार हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया था, जिसमें दलितों की बड़ी संख्या थी। दलितों को जबर्दस्ती मुस्लिम बनाया जा रहा था। महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे थे। सम्पत्ति, गाय, बैल अन्य मवेशी लूटे जा रहे थे। जोगेन्द्रनाथ मंडल ने प्रधानमंत्री लियाकत अली को 19 जनवरी, 1950 को पत्र लिखकर इसे जल्द-से-जल्द रोकने के लिए प्रार्थना की।

इसी क्रम में 8 अप्रैल, 1950 को भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें जवाहरलाल नेहरु और लियाकत अली के हस्ताक्षर हुए। इस समझौते में दोनों देश के अल्पसंख्यक समुदाय की जान-माल की सुरक्षा, धार्मिक और वैचारिक स्वतंत्रता आदि बातें प्रमुख थीं। लेकिन इस समझौते पर पाकिस्तान ने कितना अमल किया, यह जोगेन्द्रनाथ मंडल की भारत वापसी और प्रधानमंत्री लियाकत अली खां को 8 अक्टूबर, 1950 को लिखे त्यागपत्र से पता चलता है। जोगेन्द्रनाथ मंडल ने करीब आठ हजार शब्दों में त्यागपत्र के कारणों को गिनाते हुए विस्तृत पत्र लियाकत अली खान को भेजा।

अपने निर्णय पर अवश्य ही जोगेन्द्रनाथ मंडल को पछतावा हुआ और उन्हें डॉ. आंबेडकर की यह बात अब सत्य लग रही थी कि मुसलमानों में भाईचारा सिर्फ संप्रदाय के कारण है और वह भी शिया, सुन्नी, अहमदिया, सुहरावर्दी जैसे खमों में बंटी हुई है। उनमें भी अशराफ और अरजाल का भेद है। पसमांदा मुसलमानों की हालत भी अच्छी नहीं है।

पाकिस्तान में जोगेन्द्रनाथ मंडल को हाशिये पर लाने के लिए एक नया विधेयक प्रस्तावित किया गया था कि कोई भी व्यक्ति या मंत्री प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान के हितों के विरुद्ध विचार व्यक्त करता है तो उसे कम-से-कम 7 वर्षों की सजा दी जाएगी। इसे ‘सेंसर विधेयक’ का नाम दिया गया। लगता है कि यह विधेयक पास होने से पहले जोगेन्द्रनाथ मंडल ने पाकिस्तान छोड़ने का निर्णय ले लिया था।

पाकिस्तान से 1950 में भारत लौटने के बाद उनके जीवन का तीसरा महत्वपूर्ण अध्याय शुरू होता है। अधिकांश लोगों ने लिखा है कि जोगेन्द्रनाथ मंडल भारत लौटने पर बिलकुल गुमनाम जिंदगी जीने को मजबूर हो गए। प्रो. अनिर्बान वंद्योपाध्याय की मानें तो जोगेन्द्रनाथ मंडल को कुछ उच्च वर्गीय हिन्दू विभाजन का कारण मानते थे कुछ उन्हें ‘जोगेन अल्ली मुल्ला’ के नाम से बुलाते थे और पाकिस्तान की सरकार भगोड़ा मानती थी। लेकिन संजय गजभिए की शोधपूर्ण पुस्तक ‘‘बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और महाप्राण जोगेन्द्रनाथ मंडल’’ से इस बात की पुष्टि होती है कि जोगेन्द्रनाथ मंडल कर्मयोगी थे और 1950 से 1968 तक मृत्यु के आखिरी दिन तक उन्होंने अपना समय दलितों के लिए ही समर्पित किया।

पाकिस्तान से लौटकर 1 नवम्बर, 1950 से 64 नं. सदर एवेन्यु, कलकत्ता, में किराये के मकान में सपरिवार रहने लगे। यह मकान टालीगंज इलाके में पड़ता था और इसमें सात-आठ कमरे थे। यहां रहकर मंडल ने सबसे पहले निर्वासितों का मामला उठाया। उन दिनों डॉ. आंबेडकर हिन्दू कोड बिल को लेकर व्यस्त थे। उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था। वे जोगेन्द्रनाथ मंडल को दिल्ली बुला लेते थे और दोनों मिलकर निर्वासितों की समस्या पर विचार-विमर्श करते।

इस बारे में डॉ. आंबेडकर नेहरू जी से बराबर सम्पर्क बनाए हुए थे। जोगेन्द्रनाथ मंडल यद्यपि पाकिस्तान से लौटकर कई बार चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके। निर्वासितों के पुनर्वास के लिए 17 मार्च, 1958 को उन्होंने सत्याग्रह किया। 

ध्यातव्य है कि डॉ. आंबेडकर ने 1951 में हिन्दू कोड बिल के पारित नहीं होने पर त्यागपत्र दे दिया और 1956 में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इसके बाद जोगेंद्रनाथ मंडल ने बौद्ध दलितों को आरक्षण दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। इस क्रम में उन्होंने एक विस्तृत पत्र 14 अगस्त, 1959 को भारत सरकार को लिखा। इसका उद्धरण संजय गजभिए ने अपनी पुस्तक में दिया है।

इस बीच 1963 में जोगेन्द्रनाथ मंडल ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की पश्चिम बंगाल शाखा स्थापित की। फिर उसके प्रचार-प्रसार में लगातार लगे रहे। 1 दिसंबर, 1963 से 4 दिसंबर, 1963 तक जोगेन्द्रनाथ मंडल अलीगढ़ और आगरा में रिपब्लिकन पार्टी के जिला अधिवेशन में व्यस्त रहे। उनके हाथों एक लाइब्रेरी का उद्घाटन और रात को आगरा शहर में एक विशाल शोभायात्रा उनके सम्मान में निकाली गई। 4 दिसंबर को अलीगढ़ के विशाल जनसभा को मंडल ने संबोधित किया। फिर 22 दिसंबर, 1963 को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में रिपब्लिकन पार्टी के एक विशाल सभा को संबोधित किया। फिर वहां से दिल्ली होते हुए नासिक शहर आए। महाराष्ट्र के नासिक शहर में रात्रि समय रिपब्लिकन पार्टी के एक सभा को संबोधित किया। नासिक से फिर बम्बई चले गए और वहां से 3 जनवरी, 1964 रिपब्लिकन पार्टी के अध्यक्ष एन. शिवराज, जनरल सेक्रेटरी और डॉ. आंबेडकर के पुत्र यशवंत राव आंबेडकर के साथ रेल से अहमदाबाद पहुंचे। यहां रिपब्लिकन पार्टी के वार्षिक सम्मेलन में भाग लिया और सम्मेलन को संबोधित किया। इसी प्रकार महाराष्ट्र में अकोला से वर्धा (गुजरात), फिर नागपुर पहुंचे। 10 दिसंबर को दीक्षाभूमि का नागपुर में दर्शन किया। फिर एक जनसभा को संबोधित किया। इस प्रकार 1964-65 पूरे साल वे रिपब्लिकन पार्टी के प्रचार-प्रसार में सघन दौरों में व्यस्त रहे।

दिसम्बर, 1967 में बंगाल प्रांत के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने जीवन के आखिरी चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य विरोधी पार्टियों के सहयोग से कांग्रेस के विरुद्ध बंगाल के ‘वारासात’ विधानसभा क्षेत्र से खड़ा होने का निर्णय लिया और सघन प्रचार-प्रसार में जुट गए। चुनाव परिणाम में उन्हें 84,644 वोट मिले और नरेन्द्र नाथ सेन को 1,43,883 वोट मिले। इस तरह मंडल पुनः चुनाव हार गए। लेकिन इससे जोगेन्द्रनाथ मंडल की सक्रियता पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा। 1968 के अक्टूबर माह में रिपब्लिकन पार्टी के कार्यकर्ता उनके पास आये और नोगांव, वगदह और गायघाट इन तीन क्षेत्रों में पार्टी के प्रचार के रूप में दौरा करने की प्रार्थना करने लगे। यद्यपि श्री मंडल अस्वस्थ थे, फिर भी उन्होंने बात मान ली। वे ट्राम से धर्मतला पहुंचे और फिर वहां से सियालदह, और सियालदह से वोगांव। वोगांव पहुंचकर वह प्लेटफॉर्म पार करने में असमर्थ महसूस कर रहे थे। इसलिए कार्यक्रम समाप्त कर उन्होंने प्रातः तीन बजे लौटने का प्रोग्राम बनाया। लेकिन वापस लौटते वक्त मोतीगंज के झुलते पुल को पार करते वक्त उन्हेंचक्कर आ गया। वे गिर पड़े। साथ में मुकुन्द मंडल थे। उन्हें हृदयघात हुआ था। डाक्टरों के आने से पहले ही 5 अक्टूबर 1968 को जोगेन्द्रनाथ मंडल का परिनिर्वाण हो गया।

इस प्रकार जोगेन्द्रनाथ मंडल का पूरा जीवन दलित संघर्ष की एक महान गाथा है। जीवन के अंतिम क्षण तक वे ‘दलितोत्थान’ के अपने एकमात्र मिशन में एक कर्मयोगी की तरह लगे रहे। 

(संपादन : इमामुद्दीन/नवल/अनिल)

(आलेख परिवर्द्धित : 11 फरवरी, 2022 04:56 PM)

लेखक के बारे में

देवेन्द्र शरण

लेखक रांची विश्वविद्यालय, रांची के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘शेड्यूल्ड कास्ट्स इन दी फ्रीडम स्ट्रगल ऑफ इंडिया’ (1999), ‘भारतीय इतिहास में नारी’ (2007), ‘नारी सशक्तिकरण का इतिहास’ (2012) और ‘मेरे गीत आवारा हैं’ (काव्य संग्रह, 2009) शामिल हैं।

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