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तिलका मांझी : ‘हांसी हांसी चढबो फांसी’ कहने वाले आदि विद्रोही

अंग्रेजी शासन तथा स्थानीय महाजनों और जमींदारों से जल, जंगल और जमीन की लडाई में समाज का नेतृत्व करने वाले नायक तिलका को एक और नाम मिला “मांझी”। पहाड़िया समुदाय की बोली में यह नेतृत्वकर्ता अथवा प्रमुख के अर्थ में उपयोग किया जाता है। बता रहे हैं मनीष भट्ट मनु

तिलका मांझी (11 फरवरी, 1750 – 13 जनवरी, 1785) पर विशेष

तुम पर कोड़ों की बरसात हुई,
तुम घोड़ों में बांधकर घसीटे गए,
फिर भी तुम्हें मारा नहीं जा सका,
तुम भागलपुर में सरेआम,
फांसी पर लटका दिए गए,
फिर भी डरते रहे ज़मींदार और अंग्रेज़,
तुम्हारी तिलका (गुस्सैल) आंखों से,
मर कर भी तुम मारे नहीं जा सके।

झारखंड के आदिवासी एक खास गीत के जरिए अपने पुरखा तिलका मांझी को याद करते हैं। उपरोक्त कविता उसी गीता का अनुवाद है जो हमें बताती है कि आज भी स्थानीय जनमानस में उनके नायक कितनी गहराई से पैठ बनाए हुए हैं। इसमें जिक्र है 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज स्थित ‘तिलकपुर’ नामक गाँव में जन्में जबरा पहाड़िया का। अन्याय और शोषण के विरुद्ध उनके जुझारु रवैये के चलते अंग्रजों ने उनका नाम तिलका रख दिया। जिसका पहाड़िया भाषा में अर्थ लाल लाल आंखों वाला गुस्सैल व्यक्ति होता है। अंग्रेजी शासन तथा स्थानीय महाजनों और जमींदारों से जल, जंगल और जमीन की लडाई में समाज का नेतृत्व करने वाले इस नायक को एक और नाम मिला “मांझी”। पहाड़िया समुदाय की बोली में यह नेतृत्वकर्ता अथवा प्रमुख के अर्थ में उपयोग किया जाता है। साल 1771 से 1784 तक जंगल के इस बेटे ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया। उन्होंने कभी भी समर्पण नहीं किया, न कभी झुके और न ही डरे। उन्होंने स्थानीय सूदखोर ज़मींदारों एवं अंग्रेज़ी शासकों को जीते जी कभी चैन की नींद सोने नहीं दिया।

भले ही आपको आजाद भारत के इतिहास में तिलका मांझी के योगदान का कोई ख़ास उल्लेख न मिले, पर समय समय पर कई लेखकों और इतिहासकारों ने उन्हें ‘प्रथम स्वतंत्रता सेनानी’ होने का सम्मान दिया है। लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की। यह उपन्यास हिंदी में ‘शालगिरह की पुकार पर’ नाम से अनुवादित और प्रकाशित हुआ है। हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी के संघर्ष को बताया है। हालांकि इतिहासकारों के अनुसार ब्रिटिशकालीन दस्तावेज़ों में जबरा पहाड़िया का नाम तो मौजूद हैं पर तिलका मांझी का कहीं उल्लेख नहीं है।

यह भी उतना ही सच है कि आज भी देश की एक बड़ी आबादी तिलका और उसके योगदान से परिचित नहीं है। अधिकांश पाठ्यक्रमों में इनका उल्लेख भी नहीं मिलता। तिलका की उपेक्षा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह माना जा सकता है कि उनका विद्रोह अंग्रेज़ों के साथ ही साथ उनके साथ मिलकर आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने में जुटे हुए देसी महाजनों और जमींदारों के विरुद्ध भी था। ऐसे में सत्ता पर काबिज दोनो ही वर्गों ने तिलका के बलिदान को पुस्तकों में नहीं आने दिया। 

तिलका मांझी की एक प्रतिमा

तिलका ने हमेशा से ही अपने जंगल का दोहन और अपने लोगों पर अत्याचार होते हुए देखा था। गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ शासकों ने कब्ज़ा कर रखा था। आदिवासियों और पर्वतीय सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेज़ सत्ता से रहती थी, लेकिन पठारी जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ता का साथ देता था। धीरे-धीरे इसके विरुद्ध तिलका आवाज़ उठाने लगे। उन्होंने अन्याय और गुलामी के खिलाफ़ जंग छेड़ी। तिलका मांझी राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए भागलपुर में स्थानीय लोगों को सभाओं में संबोधित करते थे। जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों को देश के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित करते थे। साल 1770 में जब भीषण अकाल पड़ा, तो तिलका ने अंग्रेज़ शासन का खज़ाना लूटकर आम गरीब लोगों में बाँट दिया। उनके इन नेक कार्यों और विद्रोह की ज्वाला से और भी आदिवासी उनसे जुड़ गये। 

साल 1784 में उन्होंने भागलपुर पर हमला किया और 13 जनवरी 1784 में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने जहरीले तीर का निशाना बनाया और मार गिराया। कलेक्टर की मौत से पूरी ब्रिटिश सरकार सदमे में थी। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि जंगलों में रहने वाला एक आदिवासी ऐसा भी कर सकता है। अंग्रेज़ सेना ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया, लेकिन वे तिलका को नहीं पकड़ पाए। मगर बाद में तिलका को जानने वाले एक ने उनके बारे में सूचना अंग्रेज़ों तक पहुंचाई। सुचना मिलते ही अंग्रेज फौज ने तिलका के ठिकाने पर हमला कर दिया। लेकिन किसी तरह वे बच निकले और उन्होंने पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ छापेमारी जारी रखी। ऐसे में अंग्रेज़ों ने पहाड़ों की घेराबंदी करके उन तक पहुंचने वाली तमाम सहायता रोक दी। इसकी वजह से तिलका मांझी को अन्न और पानी के अभाव में पहाड़ों से निकल कर लड़ना पड़ा और एक दिन वह पकड़े गए। कहा जाता है कि तिलका मांझी को चार घोड़ों से घसीट कर भागलपुर ले जाया गया। 13 जनवरी 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई थी।

पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज़ सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हुए पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदि विद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं। तिलका मांझी के बाद अनेक आदिवासी नायकों ने अंग्रेज़ों और ज़मींदारों के खिलाफ संघर्ष किया और मौत की सज़ा पाई। ये महान कुर्बानियां हैं, पर उच्च जातीय और अभिजात्य वर्गीय इतिहास दृष्टि ने बहिष्कृत भारत के नायकों को इतिहास से भी बहिष्कृत कर दिया।

कहते है, तिलका उर्फ़ जबरा पहाड़िया ने फांसी पर चढ़ने से पहले गीत गाया था “हांसी हांसी चढ़बो फांसी”। यह आने वाले कई आंदोलनों के लिए प्रतीक बन कर उभरा।अमेरिकी उपन्यासकार हावर्ड फास्ट ने आदि विद्रोही उपन्यास लिखकर रोम के दासों के नायक स्पार्टकस को दुनिया का नायक बना दिया। दुनिया में कही भी विद्रोही की चर्चा आते ही सबसे पहला नाम स्पार्टकस का आता है। आधुनिक भारत के आदि विद्रोही तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया को आज भी हार्वड फास्ट जैसे किसी लेखक की तलाश है, जो उसके विद्रोह को इतिहास में वाजिब जगह दिला सके।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

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