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यूपी चुनाव : निशाने पर आधी आबादी और उसके अधिकार

कांग्रेस की देखादेखी भाजपा ने भी महिला और दलित वोटरों को लुभाने वाली कई काम और घोषणाएं की हैं। मसलन, इलाहाबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को दो-दो हजार रुपए बांटे गए। कांग्रेस के नारे को काउंटर करने के लिए लड़कियों के शादी की उम्र 21 करने की घोषणा कर डाली। पढ़ें, सीमा आजाद का विश्लेषण

विश्लेषण

आम तौर पर हम यह उम्मीद करते हैं कि किसी देश की सरकार अपनी शैक्षिक नीतियों द्वारा जनता की चेतना बढ़ाने का काम करेगी। हम यह भी उम्मीद करते हैं किसी देश की सरकार अपने यहां के दमित व पिछड़े तबकों को आगे लाने का काम करेगी। लेकिन हमारे देश में हो यह रहा है कि सरकार अपने देश की जनता के पीछे चल रही है। चार साल तक सरकारें जनता की बढ़ी हुई चेतना को पीछे धकेलने, उसे विकृत करने और उस पर दमन करने और का काम करती है, चुनाव वाले साल में वह वोट के लिए अचानक उससे तालमेल करती दिखने लगती है। अब एक नया परिदृश्य सामने आया है। समाज में महिलाओं की बढ़ी हुई चेतना का ही परिणाम है कि आगामी चुनावों में हर पार्टी के लिए महिला वोटों को भी लुभाना आवश्यक हो गया है। इसके लिए महिलायें बधाई की पात्र हैं। 

पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों के परिणाम के बाद से सभी पार्टियों को महिला वोटरों का अलग से महत्व समझ में आने लगा है। जब महिला मतदाताओं ने भाजपा के खिलाफ मतदान किया और उसकी हार हुई।

महिला मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के लिए कांग्रेस ने जहां ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा दिया तो इसके जवाब में भाजपा ने लड़कियों की शादी की उम्र 21 करने वाला बिल संसद में पेश कर इस पर बहस छेड़ दी। 

बहरहाल, इन दिनों कांग्रेस का नारा ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ काफी चर्चित है, और कांग्रेस ने चुनाव के लिए 40 प्रतिशत सीट महिलाओं को दिए जाने की घोषणा की है। उसने अपने घोषणापत्र में 8 लाख नौकरियां महिलाओं को दिए जाने की घोषणा भी की है। 

निश्चित तौर पर यह स्वागत योग्य कदम है। बेशक इससे समाज में हलचल तो होगी। लेकिन यह भी सही है कि लुभावने नारों की गूंज में यह तथ्य कहीं गुम जाता है कि नौकरियों की कमी की शुरुआत कांग्रेस राज में उसकी ही निजीकरण की नीतियों के कारण हुई, जिसे भाजपा की सरकार ने और भी आक्रामक बना दिया है।

एक कार्यक्रम के दौरान प्रियंका गांधी

लेकिन जैसे ही यह नारा कान में पड़ता है, या लिखा दिखाई देता है, बस्तर की वो आदिवासी लड़कियां ही जेहन में आती हैं, जिनके जंगलों पर सरकारें कब्ज़ा जमा रही हैं, जहां खुद कांग्रेस की सरकार है। अपने जंगलों-पहाड़-पर्वत-नदी-नालों को बचाने के लिए ये लड़कियां भी अपने घर-परिवार के साथ लड़ रही हैं। बदले में उन्हें अमानवीय यातनाएं झेलनी पड़ रही हैं। जाहिर तौर पर उनकी यातना बढ़ाने में और यातना देने वालों को संरक्षण देने में ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा देनी वाली कांग्रेस पार्टी भी शामिल है।

उल्लेखनीय है कि इस अभियान की शुरुआत में चित्रकूट की एक सभा में प्रियंका गांधी ने कविता पढ़ीं थी कि ‘उठो द्रौपदी शस्त्र उठाओ, न कृष्ण बचाने आएंगे।’ उनके मुंह से इस कविता को सुनना हास्यास्पद लगा। फूलन देवी ने भी अपने बलात्कार के खिलाफ शस्त्र उठाया, तो उनकी पार्टी की सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। बस्तर और आदिवासी क्षेत्र की महिलाएं अपने उपर हुए दमन के खिलाफ जब आवाज उठा रही हैं, तो उन्हें फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया जा रहा है। यह सब कांग्रेस राज्य में भी खूब हो रहा है और इसके पहले की भाजपा सरकार के समय में भी।

तो क्या ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ एक फर्जी नारा भर है? 

उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि चुनाव में टिकट दिए जाने और महिलाओं को नौकरियों देने की घोषणा महज घोषणाएं ही हैं।

असल में लड़ने वाली दलित आदिवासी और मनुवादी लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने वाली लड़कियां कांग्रेस सहित सभी पार्टियों के निशाने पर हैं। कांग्रेस लड़कियों की लड़ाई को चुनावों तक सीमित रखना चाहती है। चुनावी सीट के लिए सत्तालोलुप महिलाओं के बीच जिस तरह की मारकाट मची, उसे देखते हुए इसमें कोई शक नहीं कि असल लड़ने वाली लड़कियां संसद विधानसभा की सतही लड़ाई से बाहर देश के जंगल पहाड़ मैदानों में हैं, जो मनुवादी फासीवाद से लड़ते हुए अपनी दुनिया सुंदर बना रही हैं।

अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करतीं बस्तर संभाग की आदिवासी महिलाएं

कांग्रेस की देखादेखी भाजपा ने भी महिला और दलित वोटरों को लुभाने वाली कई काम और घोषणाएं की हैं। मसलन, इलाहाबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को दो-दो हजार रुपए बांटे गए। कांग्रेस के नारे को काउंटर करने के लिए लड़कियों के शादी की उम्र 21 करने की घोषणा कर डाली। यह कानून भले ही ऊपरी तौर पर औरतों को बराबरी देने वाला लग लगता है, लेकिन यह 18 से 21 वाले सभी बालिग समुदाय के जनवादी अधिकारों पर हमला है। यह लड़कियों पर होने वाले अपराधों की संख्या में और भी इजाफा करेगा। यह बदलाव बालिगों को मिले कानूनी अधिकारों में ही विसंगति पैदा करती है। 

यह हास्यास्पद है कि 18 साल से ऊपर वाले हर बालिग व्यक्ति को वोट डालने का, सम्पत्ति हासिल करने का, लाइसेंस हासिल करने का, अपनी मर्जी से सेक्स संबंध बनाने का, ‘लिव इन रिलेशन’ में रहने सहित, नागरिकों को मिलने वाले सभी अधिकार मिले हैं, सिवाय शादी करने के अधिकार के। इससे पहले से दमित वर्ग दलित बहुजन समुदाय की महिलाओं का यौन शौषण और बढ़ेगा। उनकी शादी करने पर उनके अभिभावकों पर ही मुकदमा दर्ज हो जाएगा।

पढ़ाई का नाता शादी से जोड़कर दरअसल सरकार अपना पल्ला तो झाड़ ही रही है, बल्कि अपनी इस मनुवादी सोच को भी जाहिर कर रही है कि “लड़कियों के लिए शिक्षा का महत्व केवल शादी तक ही होता है, उसके बाद सब खत्म। घर गृहस्थी ही उसका परम कर्तव्य है।”

असल में यह महिलाओं को नियंत्रित करने वाला बिल है। यह बिल धर्म-जाति को तोड़कर किये जाने वाले प्रेम विवाहों को कुछ समय तक रोकने के मनुवादी मकसद से लाया गया है, जो कि सभी पहलुओ से किसी बालिग नागरिक के अधिकार के अपराधीकरण करने का आपराधिक प्रयास है। इस बिल द्वारा लड़कियों को लड़कों के समान अधिकार देने का दावा प्रधानमंत्री कर रहे हैं, लेकिन इसके प्रावधानों को ध्यान से पढ़े, तो यह खुद महिलाओं और पुरूषों के अधिकारों में भेदभाव करने वाला है। इसका एक प्रावधान कहता है कि यदि किसी का बाल विवाह हुआ है, तो वह तो इसे ‘शून्य विवाह’ घोषित करने के लिए कोर्ट में जा सकते हैं।लेकिन लड़की 20 साल की होने के पहले और लड़का 23 साल का होने के पहले। आखिर लड़के को अपना बाल विवाह ‘शून्य’ घोषित करवाने के लिए लड़कियों से अधिक समय क्यों दिया गया है, लड़के-लड़की में यह भेदभाव क्यों रखा गया है?

अब बात करते हैं इस दावे की, कि इस बिल के आने से लड़कियों की उच्च शिक्षा में बढ़ोत्तरी होगी। इस चर्चा के शुरू होते ही मुझे लखीमपुर खीरी की लड़कियां याद आती हैं, जहां हम केंद्रीय गृह मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे द्वारा किसानों पर गाड़ी चढ़ाये जाने की घटना की ‘फैक्ट फाइडिंग’ के लिए गये थे। वहां लड़कियों से पढ़ाई के बारे में पूछने पर वे कहती थीं “जी, पूरी हो गयी पढ़ाई।” “कितने तक की?” के जवाब में सभी का जवाब था– “10+2”। बाद में पता चला कि पूरे क्षेत्र में 12वीं के आगे स्कूल ही नहीं है, इसलिए इतने तक की पढ़ाई को ही ‘पूरी पढ़ाई’ मानकर लड़कियों को ब्याह दिया जाता है। यही हाल प्रदेश के ज्यादातर गांवों का है, जहां पढ़ाई की सुविधा न होने के कारण लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है, फिर उनकी शादी कर दी जाती है। दलित-बहुजन गरीब परिवारों में तो गरीबी के कारण लोग अपनी बेटियों को नहीं पढ़ा पाते हैं, क्योंकि प्राइवेट कॉलेजों की भारी भरकम फीस भरने की उनकी क्षमता नहीं है। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में तो लड़के लड़कियों किसी की पढ़ाई की सुविधा नहीं के बराबर है। वे किसलिए शादी के लिए बालिग होने के बाद भी इंतज़ार करें?

पढ़ाई का नाता शादी से जोड़कर दरअसल सरकार अपना पल्ला तो झाड़ ही रही है, बल्कि अपनी इस मनुवादी सोच को भी जाहिर कर रही है कि “लड़कियों के लिए शिक्षा का महत्व केवल शादी तक ही होता है, उसके बाद सब खत्म। घर गृहस्थी ही उसका परम कर्तव्य है।” सरकार इस बिल को लाने का जो तर्क दे रही है, उससे वह लड़कियों और पूरे समाज को इसी सोच के खांचे में बांध रही है। जबकि लड़कियों की शिक्षा का संबंध शादी से नहीं, शिक्षा की व्यवस्था और समाज की मनुवादी पितृसत्तात्मक सोच से है। ये दोनों बदलने से ही लड़कियों की शिक्षा बढ़ सकती है, चाहे उनकी शादी हुई हो न नहीं।

लेकिन भाजापा ‘शिक्षा व्यवस्था’ की जगह ‘शादी की उम्र’ की बहस खड़ी कर वह नॅरेटिव को बदलने का प्रयास कर रही है, क्योंकि समाज की पितृसत्तात्मक सोच और शिक्षा व्यवस्था को बदलना सरकार के एजेंडे में शामिल नहीं है। उच्च शिक्षा तो छोड़ दीजिये, आंकड़े बता रहे हैं कि नई शिक्षा नीति और ऑनलाइन शिक्षा के कारण प्राथमिक शिक्षा से भी लड़कियां और उसमें भी दलित आदिवासी लड़कियां तेजी से बाहर हो रही हैं, उनका शादी की उम्र से क्या लेना-देना है? शादी की उम्र 18 से 21 करने का लड़कियों के जीवन स्तर सुधरने का कोई रिश्ता नहीं है। बल्कि यह कानून लड़कियों सहित बालिगों के अधिकारों पर हमला है और लड़कियों पर अपराधों को बढ़ावा देना है। 

इसी प्रकार कांग्रेस का नारा कि ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ महज चुनावी दांव है। दरअसल चुनावी नारों से महिलाओं के अधिकारों को इतना ही लेना देना है कि चुनावी पार्टियां, संघर्षों की चेतना को तोड-मरोड़ कर अपने एजेंडे में शामिल कर लें। 

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

सीमा आजाद

मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल से सम्बद्ध लेखिका सीमा आजाद जानी-मानी मानवाधिकार कार्यकता हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘ज़िंदांनामा’, ‘चांद तारों के बगैर एक दुनिया’ (जेल डायरी), ‘सरोगेट कन्ट्री’ (कहानी संग्रह), ‘औरत का सफर, जेल से जेल तक’ (कहानी संग्रह) शामिल हैं। संपति द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की संपादक हैं।

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