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बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष (चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु का साहित्य – नौवां भाग)

जिज्ञासु जी की इस किताब में जवाहरलाल नेहरू द्वारा डॉ. आंबेडकर को दी गयी श्रद्धांजलि भी शामिल है। इसके मुताबिक, “हिंदू कानून में सामाजिक न्याय की दृष्टि से जो सुधार हुए हैं, उनका अधिकांश श्रेय उन्हीं को है। उनके निधन से सारा देश मर्माहत और दुखी है।” पढ़ें, कंवल भारती का पुनर्पाठ

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों में से एक जातिगत भेदभाव और छुआछूत तथा इसके धार्मिक संरक्षण को लेकर आवाजें उठती रही हैं। सत्य शोधन की इस परंपरा का आगाज जोतीराव फुले ने 19वीं सदी में किया। बीसवीं सदी में इस परंपरा को अनेक लोगों ने बढ़ाया, जिनमें मुख्य तौर पर डॉ. आंबेडकर का नाम भी शामिल है। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु भी ऐसे ही सत्य शोधक थे। कंवल भारती उनकी किताबों की पुस्तकवार पुनर्पाठ कर रहे हैं। इसके तहत आज पढ़ें उनकी आठवीं कृति ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ का पुनर्पाठ का पहला अंश

‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ : चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु की सातवीं कृति 

  • कंवल भारती

गतांक से आगे

बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के निधन के पांच साल बाद, 1961 में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की पुस्तक ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के आने से एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हुई। यह वह समय था, जब डॉ. आंबेडकर दलित वर्गों के मसीहा बन चुके थे और ब्राह्मण वर्ग उन्हें खलनायक मानना था। कांग्रेस के ‘हरिजन सेवक संघ’ ने दलितों को गांधी और कांग्रेस से जोड़ने के लिए सारी ताकत लगा दी थी; सस्ते मूल्य पर गांधीवादी साहित्य छापा जा रहा था और गांधी-जयंती के दिन जिले-जिले में सरकारी अफसरान वाल्मीकि बस्तियों में झाड़ू लगाकर हरिजनोद्धार का प्रचार करते थे। इस सबसे चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु आंख-मूंदकर नहीं रह सकते थे। उनकी दृष्टि में यह सब करके कांग्रेस डॉ. आंबेडकर के रेडिकल आन्दोलन को ठंडा कर रही थी। यद्यपि आरक्षण की वजह से दलितों में शिक्षा का विकास होने लगा था, काफी लोग सरकारी विभागों में नौकर भी हो गए थे। परन्तु यह वर्ग डॉ. आंबेडकर के जीवन-संघर्ष और योगदान से अपरिचित था। इसका कारण यह था कि हिंदी में डॉ. आंबेडकर की कोई मुकम्मल जीवनी नहीं थी। हिंदी में डॉ. आंबेडकर की पहली जीवनी, उनके जीवन-काल में ही, इलाहाबाद के रामचन्द्र बनौध ने लिखी थी, जो 1947 में ‘डॉ. अम्बेडकर का जीवन-संघर्ष’ नाम से छपी थी। पर एक बार छपकर वह दुबारा नहीं छपी। दूसरी जीवनी 1958 में, बाबासाहेब की मृत्यु के दो साल बाद, विजयकुमार पुजारी द्वारा लिखित ‘डॉ. बाबायाहेब अम्बेडकर : जीवन-दर्शन’ नाम से प्रकाशित हुई। इसका भी दूसरा संस्करण नहीं हुआ, इसलिए वह भी ज्यादा हाथों में नहीं जा सकी। इस प्रकार हिंदी में उस समय बाबासाहेब का साहित्य तो दूर, उनकी जीवनी तक उपलब्ध नहीं थी। उधर कांग्रेस के नेता गांधी की प्रशंसा और बाबासाहेब की आलोचना करते थे; मार्क्सवादी और हिंदू इतिहासकार उन्हें अंग्रेजों का दलाल और देशद्रोही लिख रहे थे, और डॉ. आंबेडकर के साहित्य और जीवन-संघर्ष से हिंदी क्षेत्र की जनता अपरिचित थी। अतः कहना न होगा कि जिज्ञासु ने ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ लिखकर एक बड़े अभाव की पूर्ति की थी। यह केवल डॉ. आंबेडकर की जीवन-गाथा ही नहीं है, बल्कि इसमें अछूतों के सामाजिक और राजनीति संघर्ष का इतिहास भी है। इसलिए ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ इतना लोकप्रिय हुआ कि जिज्ञासु के जीवन-काल में ही इसके सात संस्करण निकल चुके थे। सम्पूर्ण हिंदी क्षेत्र में इस जीवनी को पढ़कर ही लोगों ने डॉ. आंबेडकर के आन्दोलन और संघर्ष को जाना। इसी जीवनी को पढ़कर लोकप्रिय दलित कवियों की नई पीढ़ी तैयार हुई, जिसने डॉ. आंबेडकर के जीवन पर काव्य, महाकाव्य और नाटक लिखे।

इस पृष्ठभूमि के बाद, जिज्ञासु की आलोच्य पुस्तक ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ की विशेषता पर विचार करते हैं। 160 पृष्ठों की इस छोटी सी पुस्तक में तीन खंड हैं– (1) जन्म, शिक्षा और बैरिस्टरी; (2) स्वतंत्रता, दलितोत्थान के लिए संघर्ष; और (3) राजनीतिक संघर्ष और धर्मांतरण। पुस्तक खोलते ही सबसे पहले ‘बाबासाहेब के महान व्यक्तित्व पर महापंडित राहुल सांकृत्यायन की सम्मति’ पढ़ने को मिलती है। उन्होंने लिखा–

“धनी माता-पिता के घर में जन्म लेकर धनाढ्य होना या विद्वान माता-पिता के यहां जन्म लेकर विद्वान बन जाना उतनी प्रशंसा और गरिमा की बात नहीं, जितनी कि दरिद्र-परिवार में जन्म लेकर लखपति बन जाना या दरिद्र माता-पिता के यहां जन्म लेकर प्रकांड पंडित हो जाना। इसलिए मैं गणिका-गर्भ-संभूत महर्षि वशिष्ठ और धीमर-कन्या सत्यवती-नन्दन भगवान वेदव्यास को जितना आदरणीय समझता हूं, उतना जैमिनी और पतंजलि को नहीं। हिंदू समाज में अस्पृश्य समझे जाने वाले विद्या-प्राप्ति का अधिकार न रखने वाले डाक्टर भीमराव आंबेडकर के प्रति किस गुणग्राही और सत्यभक्त सहृदय मनुष्य में श्रद्धा और आदर-बुद्धि उत्पन्न न होगी? कहने को कहा जाता है कि ‘विद्वान सर्वत्र पूज्यते’, परन्तु क्या वर्ण-धर्म की मदिरा से उन्मत्त हिंदू-समाज ने इस अद्वितीय विद्वान की यथोचित पूजा की? क्या मालवीय और पन्त के बराबर उसे सम्मान दिया? स्वतंत्र भारत के संविधान-निर्माता को तंग आकर मंत्रि-पद का त्याग करना पड़ा। क्या यही कद्र है, जो हिंदू-समाज में इस परम विद्वान तपस्वी की की गई?’

इसके बाद, आरम्भ के चार पृष्ठ ‘शोक-प्रकाश और श्रद्धांजलियां’ शीर्षक से हैं, जो अत्यन्त मार्मिक हैं, और पाठकों में डॉ. आंबेडकर के बारे में जानने की उत्सुकता पैदा करते हैं। एक प्रकार से जिज्ञासु ने जीवनी की शुरूआत बाबासाहेब के निधन से की है। उन्होंने लिखा–

“6 दिसम्बर, 1956 को स्थानीय दैनिक में दिल्ली का यह समाचार छपा कि “आज सवेरे डॉ. भीमराव आंबेडकर का देहान्त हो गया।” इसे पढ़कर सहसा दिल पर धक्का लगा, हृदय अवसन्न हो गया, बुद्धि निष्पन्द और कल्पना गतिशून्य हो गई, सिर में चक्कर आ गया और आंखों के आगे अंधेरा छा गया। अखबार हाथ से छूट गया और एक अजीब निस्तब्ध्ता छा गई। थोड़ी देर बाद ही चेतना आने पर अन्तःकरण में विद्रोह की एक ज्वाला उठी– ऐसा नहीं हो सकता, यह समाचार झूठा है। अभी दो ही दिन पहले तो पढ़ा था कि बाबासाहेब ने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी को जन्म दिया है और कार्य-संचालन के लिए वह विधि-व्यवस्था बना रहे थे। वह 4 दिसम्बर को राज्यसभा में उपस्थित मेम्बरों से हॅंसी-मजाक और अपना काम करते रहे हैं। एकाएक 5 तारीख की रात को बिना किसी बीमारी के उनका निधन कैसा?” (बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष, पृष्ठ 9)

इन पंक्तियों के बाद, जिज्ञासु ने राज्यसभा और लोकसभा में बाबासाहेब को दी गईं श्रद्धांजलियों तथा हिंदू अखबारों में प्रकाशित शोक-प्रकाश का उल्लेख किया है। तत्कालीन प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा– 

“वह (डॉ. आंबेडकर) युगों से पीड़ित भारत के दलित वर्गों की तीव्र भावनाओं के प्रतीक थे। उन्होंने 65 वर्ष की अवस्था में अपनी यह लीला समाप्त की। एक प्रतिभा-सम्पन्न छात्र के रूप में वह पढ़ते समय ही प्रसिद्ध हो गए थे। अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के पंडित होने के कारण ही वह विधिशास्त्री भी थे। स्वाधीन भारत के एक निर्माता के रूप में उनका ऐतिहासिक कार्य कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत सरकार के विधि मंत्री के पद पर कार्य करते समय उन्होंने कानूनी योग्यता के अतिरिक्त जिस जाग्रत सामाजिक चेतना परिचय दिया था, वह उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण का द्योतक है। हिंदू कानून में सामाजिक न्याय की दृष्टि से जो सुधार हुए हैं, उनका अधिकांश श्रेय उन्हीं को है। उनके निधन से सारा देश मर्माहत और दुखी है। हम दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।” (वही, पृष्ठ 14-15)

इसके बाद जिज्ञासु बाबासाहेब के जीवन-संघर्ष के प्रथम खंड में प्रवेश करते हैं, जिसके तहत वह उनके जन्म, शिक्षाक्षा और बैरिस्टरी के क्षेत्र पर प्रकाश डालते हैं। वह लिखते हैं– “बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर एम.ए., पीएच.डी., डी.एस.सी., बार-एट-लॉ, कानून मंत्री, भारत सरकार का जन्म महाराष्ट्र-प्रान्त की महार जाति में हुआ।” वह लिखते हैं कि ‘महार’ से महाराष्ट्र बना है। उनका मत है : “महाराष्ट्र शब्द यौगिक है, जो ‘महार’ और ‘रट्ट’ वर्ण से मिलकर बना बताया जाता है। महाराष्ट्रीय इतिहास-वेत्ताओं का मत है कि महाभारत-युद्ध के पहले महाराष्ट्र में कई जातियों के लोग रहते थे, जिनमें ‘महार’ और ‘रट्ट’ दो प्रमुख और प्रबल वंश थे। इन दोनों में ‘महार’ तो महाराष्ट्र के आदिनिवासी हैं, और ‘रट्ट’ कहीं बाहर से बाद में आए। इन दोनों प्रमुख जातियों के नाम पर ही इस प्रदेश का नाम ‘महा-रट्ट’ हुआ, जिसका संस्कृतीकरण होकर ‘महाराष्ट्र’ हो गया।” (वही, पृष्ठ 17)

‘महार’ जाति के बारे में जिज्ञासु लिखते हैं– “‘महार’ जाति प्राचीन नाग जाति की वंशज मानी जाती है। महाभारत और पुराणों की कथाओं से सिद्ध है कि प्राचीन काल में इस प्रदेश में नागों का राज्य था।” उनका यह भी मत है कि दक्षिण के महार उसी जाति के लोग हैं, जो उत्तर में चर्मकार कहलाते हैं, जिनमें काशी में सन्त प्रवर रैदास साहेब का जन्म हुआ।” 

जिज्ञासु ने महार एक योद्धा जाति बताते हुए लिखा है– “महारों की पल्टन थी, अंग्रेजों की सेना में एक महार सूबेदार मेजर थे। महार सेना के नाम के साथ जो ‘नाक’ शब्द था, वह ‘नाग’ शब्द ही है, उच्चारण-भेद से नाग का नाक हो गया। ईस्ट इंडिया कंपनी में भी एक महार पल्टन थी, जिसमें डॉ. आंबेडकर के दादा सूबेदार थे।” जिज्ञासु ने उनके दादा के बारे में लिखा है कि उनको बहादुरी के 19 पदक प्राप्त हुए थे। उनके अनुसार, वह अपने पुत्र मालोजी को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे, पर अछूत होने के कारण उन्हें किसी भी स्कूल में प्रवेश नहीं मिल सका। “उन्होंने अपनी फौजी सेवाओं का उल्लेख करके अंग्रेजी सरकार से अपने बेटे की उच्च शिक्षा के लिए प्रार्थना की, किन्तु हिंदुओं को प्रसन्न रखने की अंग्रेजी पालिसी से वह प्रार्थना अरण्य-रोदन होकर रह गई। तब उन्होंने विवश होकर मालोजी को भी सेना में भर्ती करा दिया। कहते हैं, मालोजी भी सेना में हवलदार के ओहदे से रिटायर हुए।” मालोजी की चार सन्तानें हुईं। रामजीराव उनकी चौथी सन्तान थे। रामजी की बड़ी बहन मीराबाई पंगु होने के कारण उन्हीं के पास रहती थी। यही रामजीराव डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के पिता थे। 

रामजीराव के बारे में जिज्ञासु जी ने लिखा है कि वह भी सेना में भर्ती हुए। जब उन्हें सेना के स्कूल में पढ़ने का अवसर मिला, तो उन्होंने खूब मन लगाकर पढ़ा और अंग्रेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। फिर पूना के फौजी नार्मल स्कूल में भर्ती होकर उन्होंने ‘मास्टर’ का डिप्लोमा प्राप्त कर लिया, और एक सैनिक स्कूल में शिक्षक होकर चौदह साल हेड मास्टर के पद पर काम करते रहे। उन्हें भी सूबेदार का पद मिला था। सूबेदार रामजीराव विद्या-प्रेमी और धार्मिक व्यक्ति थे। ‘पहले वह रामानन्दी वैष्णव थे, बाद में कबीर-पंथी हो गए। उनके घर में नित्य सवेरे-शाम सत्संग और भजन होते थे। रामजीराव का विवाह सूबेदार मेजर मुरवाड़कर की कन्या भीमाबाई के साथ हुआ। रामजीराव की 14 सन्तानें हुईं– तीन पुत्र और ग्यारह कन्याएं। भीमराव आंबेडकर उनकी 14वीं सन्तान थे।’ (वही, पृष्ठ 19-20)

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु व उनकी पुस्तक ‘बाबासाहेब का जीवन-संघर्ष’ का आवरण पृष्ठ

बाबासाहेब के जन्म, स्थान और नाम के बारे में जिज्ञासु एक किंवदन्ती के हवाले से लिखा है– “कहते हैं, बाबासाहेब के पूर्वजों में कोई संन्यासी हो गए थे। कुछ समय बाद वह कई संन्यासियों के साथ विचरण करते हुए अपने गांव आए, तो उनके घर की एक स्त्री ने, जो नदी में कपड़े धोने जा रही थी, उन्हें देखकर पहचान लिया और उल्टे पैरों लौटकर घर वालों को सूचना दी। घर वालों ने वहां पहुंचकर संन्यासियों का आदर-सत्कार किया और उनसे चलकर घर पवित्र करने की प्रार्थना की। संन्यासीजी घर तो नहीं गए, परन्तु उन्होंने आशीर्वाद दिया, “तुम्हारे परिवार में एक में पुत्र पैदा होगा, जो तुम्हारे घर को ही नहीं, तुम्हारी समस्त जाति और देश को पवित्र कर देगा।” (वही, पृष्ठ 20)

निश्चित रूप से यह सिर्फ एक कहानी है, जिसका कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। इस तरह की कहानियॉं बुद्ध, कबीर और रैदास साहेब के बारे में भी उनके अनुयायियों द्वारा गढ़ी गई हैं। जिज्ञासु को इस तरह की गल्प का खंडन करना चाहिए था, क्योंकि ऐसी गल्पें संन्यासियों और साधुओं की भविष्यवाणी में विश्वास बढ़ाती हैं। 

जिज्ञासु ने उस काल का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है, जब आंबेडकर बड़ोदा नरेश की छात्रवृत्ति पर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमरीका और लंदन गए थे। जिज्ञासु ने वहां की परिस्थितियों और उनके बीच आंबेडकर की जीवन-वृत्ति तथा अध्ययनशीलता का वर्णन प्रभावशाली ढंग से किया है। उन्होंने लिखा है कि विदेश में रहकर आंबेडकर को हिंदुओं के कठोर हृदय और क्रूर व्यवहार का सामना करना नहीं पड़ा। उन्होंने लिखा– 

“कौन कल्पना कर सकता था कि संसार की सबसे अधिक शोषित और प्रवंचित जाति का एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी संसार की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा प्राप्त करेगा। परन्तु ऐसा ही हुआ। अस्पृश्यता के अभिशाप से दूषित भारत के गन्दे वातावरण से निकलकर मानवता से सुरभित अमरीका के स्वतंत्र वातावरण में पहुंचने से भीमराव का हृदय-कमल खिल उठा और प्रतिभा चमक उठी।” (वही, पृष्ठ 32) 

जिज्ञासु ने उनकी जीवन-वृत्ति के बारे में लिखा–

“भीमराव जब अमरीका में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रविष्ट हुए, तो उन्हें पुस्तकों के अध्ययन का अच्छा अवसर मिला। वे न्यूयार्क नगर की चमक-दमक और वहां के विलासमय जीवन की ओर आकर्षित नहीं हुए; उनका सारा ध्यान ज्ञानार्जन में रहा। ज्ञान-पिपासा की तृप्ति पुस्तकों से होती थी, इसलिए पुस्तकों का अध्ययन और अलभ्य ग्रन्थों का संग्रह ही उनका खास मनोरंजन था। वे यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में सबसे पहले पहुंच जाते और सबसे पीछे बाहर निकलते। उन्होंने अपनी सारी शक्ति अध्ययन में लगा दी। वे प्रतिदिन सोलह-सत्रह घंटे अध्ययन करते, और शेष समय में शौच, भोजन और निद्रा आदि। अध्ययन करते समय वे विषय की तह तक पहुंचते और खास बातों को कापी पर नोट कर लेते। उनका उद्देश्य ग्रन्थ का सार-तत्व ग्रहण कर लेना होता। यूनिवर्सिटी से अवकाश पाने पर वे न्यूयार्क के अन्य पुस्तकालयों की भी सैर करते, बाजार में पुरानी पुस्तकों की दुकानों पर जाकर दुर्लभ ग्रन्थों को, जहां तक उनकी जेब साथ देती, खरीदते।” (वही, पृष्ठ 32)

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891- 6 दिसंबर, 1956) की युवावस्था की तस्वीर

अमरीका में पढ़ाई के दौरान, आंबेडकर के प्रोफेसर भी उनसे प्रभावित होते थे। जिज्ञासु के अनुसार, यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर श्री सेलिगमेन उनकी प्रतिभा और श्रमशीलता से बड़े प्रसन्न थे। “अमरीका में भीमराव के एक और घनिष्ठ मित्र मि. सी. एस. जेओल थे, जिनके साथ वह खुले दिल से बहस-मुबाहसा करते थे।” जिज्ञासु के अनुसार 1914 में भीमराव आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, राजनीति और नृवंश-शास्त्र के साथ एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। वह लिखते हैं कि उन्होंने इतना अधिक अध्ययन किया कि इसका असर उनकी आंख पर पड़ने लगा और डाक्टर की सलाह से उन्हें चश्मा लगाना पड़ा। एम.ए. करने के बाद भीमराव आंबेडकर प्रोफेसर सेलिगमेन के परामर्श पर पीएच.डी के लिए रिसर्च में जुट गए। उनकी थीसिस का नाम ‘दि इवोलूशन ऑफ प्राविन्सियल फाइनांस इन ब्रिटिश इंडिया’ था। जिज्ञासु लिखते हैं– “यह निबंध इतना ज्ञानपूर्ण और उच्च कोटि का था कि इसे देखकर बड़े-बड़े प्रोफेसर दंग रह गए। अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों में इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा हुई और उन लोगों ने इसके उपलक्ष्य में भोज देकर उनका सम्मान किया। वक्ताओं ने उन्हें ‘भारत का बुकर टी. वाशिंगटन’ कहा।”

इस निबंध पर कोलंबिया विश्वविद्यालय ने 1924 में ‘डॉक्टर ऑफ फिलोसोफी’ की डिग्री प्रदान की, जिसके पाकर भीमराव बाकायदा डॉक्टर भीमराव आंबेडकर एम.ए., पीएच.डी. हो गए। यह निबंध 1924 में प्रकाशित हुआ, और जिज्ञासु लिखते हैं कि इस निबंध का महत्व इस बात से आंका जा सकता है कि भारत में जब रायल कमीशन आया, तो उसके प्रत्येक सदस्य के पास इसकी एक प्रति थी और इसकी सहायता से कमीशन के सदस्य अपना काम पूरा कर सके। (वही, पृष्ठ 34)

भीमराव आंबेडकर एम.ए., पीएच.डी. करने के बाद, और भी उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे। इसलिए वे आगे की पढ़ाई के लिए लन्दन गए, जहां उन्होंने अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए ‘लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल साइंस’ में और कानून के अध्ययन के लिए ‘ग्रेज इन’ में दाखिला लिया। जिज्ञासु लिखते हैं– “नाम लिख जाने के बाद उन्होंने इंडिया ऑफिस लायब्रेरी, लन्दन स्कूल और ब्रिटिश म्यूजियम की विशाल लायब्रेरियों में गम्भीर अध्ययन करने और नोट्स लिखने का काम शुरू कर दिया।” वह आगे लिखते हैं कि इन्हीं लायब्रेरियों में गम्भीर अध्ययन करके संसार के महान विचारक कार्ल मार्क्स ने भी अपने साम्यवादी विचार स्थिर किए थे।

आंबेडकर के शोध का विषय था– ‘दि प्राब्लम ऑफ दि रुपी’ अर्थात ‘रुपया या मुद्रा की समस्या’। जिज्ञासु लिखते हैं कि आंबेडकर एम.एससी. की डिग्री के लिए शोध-निबंध लिखने ही जा रहे थे कि उन्हें सूचना मिली कि महाराजा बड़ौदा से मिलने वाली छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त हो गई है। उन्होंने छात्रवृत्ति बढ़ाने के लिए महाराजा को फिर प्रार्थना-पत्र लिखा, परन्तु महाराजा ने छात्रवृत्ति की अवधि बढ़ाने से इन्कार कर दिया। 

यह वह दौर था, जब प्रथम महायुद्ध छिड़ गया था, और 1916 में उसने भयंकर रूप धारण कर लिया था। जिज्ञासु लिखते हैं कि महायुद्ध की भयंकरता और बमों की खतरनाक वर्षा से लन्दन में हलचल मची हुई थी, प्राण जाने के भय से लोग इतने भयभीत थे कि नींद हराम हो गई थी। किन्तु इस बज्र-चित्त योगी के लिए मानो लड़ाई कहीं हो ही नहीं रही थी; उस अत्यन्त भयावह स्थिति में भी वह स्थिर-चित्त और तन्मय तल्लीन भाव से गम्भीर अध्ययन में लगे हुए थे। किन्तु धनाभाव के कारण उन्हें अध्ययन बन्द करके भारत लौटना पड़ा। जिज्ञासु के अनुसार आंबेडकर लन्दन में ही धनार्जन का कोई उद्योग करके आगे की पढ़ाई जारी रख सकते थे, परन्तु उसी समय उन्हें बड़ौदा स्टेट के दीवान का पत्र मिला था, जिसमें उन्हें शिक्षा समाप्त करने के बाद दस साल बड़ौदा रियासत में नौकरी करने के करार की याद दिलाई गई थी। अतः भीमराव आंबेडकर भारत के लिए रवाना हो गए। उस समय तक हवाई जहाज शुरु नहीं हुए थे, पानी के जहाज से ही विदेश में आना-जाना होता था। जिज्ञासु लिखते हैं, “उन दिनों महायुद्ध जोरों पर था। जहाज डुबोए जाते थे। इंग्लैंड से भारत आने वाले जहाज अफ्रीका होकर आते थे। एक दिन भारतीय अखबारों में छपा कि इंग्लैंड से भारत आने वाला एक जहाज टारपीडो से डुबो दिया गया। इस खबर से आंबेडकर-परिवार में हाहाकार मच गया। किन्तु जांच करने पर पता चला कि जिस जहाज पर डॉ. आबेडकर सवार थे, वह नहीं डूबा है, बल्कि वह जहाज डूबा है, जिस पर उनके दुर्लभ ग्रन्थ लदे थे।” (वही, पृष्ठ 37)

डॉ. आंबेडकर 21 अगस्त 1917 को बम्बई पहुंचे। जिज्ञासु लिखते हैं कि डॉ. आंबेडकर अमरीका और इंग्लैंड के सभ्य और स्वच्छन्द वातावरण में रहकर भारत में मिली जिस हिंदू घृणा और तिरस्कार की अमानवीय यातना को भूल चुके थे, उसी से उनका पुनः सामना हुआ। भारत आकर वे महाराजा बड़ौदा से मिले और उन्हें अपनी सेवाएं अर्पित कीं। जिज्ञासु के अनुसार, “महाराजा बड़ौदा उन्हें अपना अर्थमंत्री बनाना चाहते थे, अतः अर्थ-विभाग की भीतरी बातों का अनुभव प्राप्त करने के लिए उन्हें बड़ौदा स्टेट के डिप्टी एकाउंटें जनरल के पद पर काम करने का आदेश दिया।” जिज्ञासु लिखते हैं कि उन्हें काम तो मिल गया, पर बड़ौदा में वे रहें कहां? यह समस्या उठ खड़ी हुई। “वे कई रोज तक बड़ौदा के होटलों और गलियों को छानते रहे। न किसी होटल में जगह मिली और ना कोई मकान मिला। दिन तो किसी तरह कट जाता था, लेकिन रात पार्कों में बसर करनी पड़ती थी। मकान की खोज में पैदल ही चलना पड़ता, अछूत होने के कारण कोई सवारी तक न मिलती। एक दिन उन्हें अपने पिता का एक पारसी मित्र मिला, जो एक होटल चला रहा था। डॉ. आंबेडकर की मुसीबत सुनकर वह उन्हें अपने होटल में जगह देने को राजी हो गया और वे पारसी होटल में रहने लगे।” (वही, पृष्ठ 37-38)

इस घटना को लेकर बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं। पर इस संबंध में स्वयं डॉ. आंबेडकर ने स्थिति स्पष्ट की है। उन्होंने ‘वेटिंग फॉर ए वीजा’ नाम से अपने कुछ अनुभवों को शब्द-बद्ध किया है। उससे पता चलता है कि वे 1918 में बीच में पढ़ाई छोड़कर भारत आए थे, न कि 1917 में, जैसाकि जिज्ञासु ने लिखा है। साथ ही यह भी कि जिस पारसी होटल का उल्लेख जिज्ञासु जी ने किया है, उसका मालिक उनके पिता का मित्र नहीं था। इस होटल के बारे में उन्हें एक स्थानीय टमटम चालक ने बताया था। 

बड़ौदा स्टेट में डॉ. आंबेडकर की नियुक्ति पर हिंदू-हृदय किस तरह प्रतिक्रिया कर रहा था, इसका मार्मिक वर्णन जिज्ञासु ने किया है। उन्होंने लिखा–

“सेक्रेटरियट के हिंदू कर्मचारियों में चर्चा होने लगी कि महाराज ने एक अछूत को सवर्ण हिंदुओं का अफसर बनाया है, यह हिंदुओं का घोर अपमान है। फलतः सभी छोटे-बड़े कर्मचारी डॉ. आंबेडकर का तिरस्कार करने लगे। यहां तक कि मामूली चपरासी भी फाइलें और कागजात उनकी मेज पर दूर से पटकते, ताकि अछूत की मेज छू जाने से वे नजिस और बेधर्म न हो जाएं। सेक्रेटरियट के कर्मचारियों का एक क्लब था, जिसमें अफसर लोग खेल के द्वारा मनोरंजन करते थे। डॉ. आंबेडकर ने भी क्लब जाने की इच्छा की, तो उनसे कहा गया कि आप वहां खेल में हिस्सा न ले सकेंगे, सिर्फ दूर से देख सकेंगे। डॉ. आंबेडकर फिर क्लब नहीं गए। ऑफिस में उनके नीचे काम करने वाले क्लर्क उनके पत्रों तथा उनकी मेज को नहीं छूते थे। जब उनके क्लर्क उनके पास न आते, तो उन्हें स्वयं उनके पास जाकर अपने कागजात ले आने पड़ते। किन्तु जब कभी डॉ. आंबेडकर अपने कागजात लेते समय हिंदू क्लर्कों की मेजों पर हाथ रख देते, तो वे इस तरह झिझक उठते, मानो उनकी मेजों पर सांप रेंग गया और वे जहरीली हो गईं।” (वही, पृष्ठ 39)

डॉ. आंबेडकर बड़ौदा स्टेट में नौकरी करते हुए पारसी होटल में रह रहे थे। पर शीघ्र ही पारसी समुदाय के स्थानीय लोगों को उनके पारसी न होने का पता चल गया और वहां से निकलना पड़ा। बड़ौदा महाराज ने भी उनकी आवास की समस्या को हल नहीं किया। अतः दुखी होकर वे नौकरी से इस्तीफा देकर बम्बई वापस आ गए। अब उनके सामने धनार्जन की विकट समस्या थी। 

जिज्ञासु के अनुसार, डॉ. आंबेडकर ने बम्बई के बड़े व्यापारियों को आर्थिक परामर्श देने के लिए ‘स्टाक्स एण्ड एडवाइजर्स’ नाम से एक कंपनी शुरू की। कंपनी उपयोगी थी। काम चलने लगा और कुछ धन भी आने लगा। आगे जिज्ञासु लिखते हैं, “हिन्दुस्तान नकलची देश है, काम चलता देख एक उच्च जातीय हिंदू ने मुकाबले की एक ऐसी ही कम्पनी खोल ली और … व्यापारियों को भड़काया कि ‘स्टाक्स एण्ड एडवाइजर्स’ कम्पनी एक अछूत की है, किसी गुजराती या मारवाड़ी व्यापारी को अछूत कम्पनी से परामर्श नहीं करना चाहिए। फलतः डॉ. आंबेडकर को अपनी कम्पनी बन्द करनी पड़ी।” (वही, पृष्ठ 42)

जिज्ञासु के इस विवरण से पता चलता है कि डॉ. आंबेडकर द्वारा व्यापारियों को आर्थिक परामर्श देने के लिए स्थापित की गई ‘स्टॉक्स एण्ड एडवाइजर्स’ कम्पनी बम्बई की पहली कम्पनी थी। जिज्ञासु के अनुसार बम्बई में डेढ़ साल बीत गया, पर कोई अच्छा काम न मिलने से उन्हें बड़ी परेशानी रही। इसी बीच डॉ. आंबेडकर ने दो पुस्तकें लिख डालीं– (1) ‘कास्ट इन इंडिया’, और (2) ‘स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एण्ड देयर रेमडीज’। (वही)

लेकिन यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि डॉ. आंबेडकर का निबंध ‘स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एण्ड देयर रेमडीज’ 1918 में ‘जर्नल ऑफ इंडियन इकोनोमिक सोसाइटी’ में प्रकाशित हुआ था। (‘कास्ट इन इंडिया’ का रचना-वर्ष 1918 नहीं है, बल्कि इस वर्ष इस निबंध को डॉ. आंबेडकर ने पुस्तकाकार में प्रकाशित कराया था। उन्होंने इस निबंध को कोलंबिया विश्वविद्यालय के मानव-विज्ञान विभाग के सेमिनार में, जो 9 मई, 1916 को हुआ था, पढ़ने के लिए लिखा था। बाद में यह निबंध ‘इंडियन एंटिक्वेरी’, खंड 41 में, मई 1917 में पहली बार प्रकाशित हुआ था।) 

कुछ समय पश्चात डॉ. आंबेडकर की बम्बई के सिडेनहम कालेज में चार सौ रुपए मासिक वेतन पर अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति हो गई। इस नियुक्ति के बारे में जिज्ञासु लिखते हैं कि यह कालेज लार्ड सिडेनहम के नाम पर स्थापित हुआ था, जिनसे लन्दन में ही इंडिया ऑफिस लायब्रेरी में अर्थशास्त्र पर शोध करते समय आंबेडकर का परिचय हो गया था। अतः डॉ. आंबेडकर ने आवेदन भेजने के साथ ही लार्ड सिडेनहम को भी सिफारिश करने के लिए पत्र लिख दिया था। उन्हीं की सिफारिश पर वे 11 नवम्बर, 1918 को सिडेनहम कालेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए थे। (वही, पृष्ठ 42-43)

प्रोफेसर बन जाने के बाद भी हिंदुओं की नफरत उनके प्रति कम नहीं हुई। जिज्ञासु लिखते हैं कि “नीचात्मा हिंदुओं को एक ऐसे व्यक्ति का, जिसे वे अछूत समझते थे, एक विद्यालय का आचार्य हो जाना बहुत अखरा।” और उन्होंने उनके साथ बराबर अस्पृश्यता का दुर्व्यवहार किया। किन्तु शीघ्र ही प्रोफेसर आंबेडकर की योग्यता की इतनी ख्याति हो गई कि लेक्चर के समय उनका कमरा विद्यार्थियों से खचाखच भरा रहता, यहां तक कि अर्थशास्त्र पर उनका व्याख्यान सुनने के लिए अन्य कालेजों के विद्यार्थी भी आने लगे थे। जिज्ञासु ने लिखा, “सिडेनहम कालेज में इस तरह प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेने पर नागपुर, बम्बई और मद्रास के विश्वविद्यालयों ने डॉ. आंबेडकर को अपना परीक्षक नियुक्त कर लिया।” (वही, पृष्ठ 43-45)

(क्रमश: जारी)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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