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एमफिल खत्म : शिक्षा नीति में बदलावों को समझें दलित-पिछड़े-आदिवासी

ध्यातव्य है कि इसी नरेंद्र मोदी सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा 2013 में शुरू की गई चार वर्षीय पाठ्यक्रम को वापस कर दिया था। देखने वाली बात यह कि 2014 में जारी चार वर्षीय पाठ्यक्रम को जबरन वापस कराने वाली सरकार आखिर उसी प्रारूप को पूरे देश में क्यों लागू कर रही है? बता रहे हैं डॉ. सुधांशु कुमार

केंद्र सरकार ने भारतीय शिक्षा और शिक्षण संस्थानों में बदलाव के उद्देश्य से राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 लागू कर दिया है। केंद्र सरकार के दबाव में देश भर के शिक्षण संस्थानों में इसे लागू करने की होड़ मची है। इस नीति के तहत उच्च शिक्षा में आमूलचूल बदलाव किये गये हैं।

मसलन, पहले से चली आ रही शिक्षा सरंचना जो कि ‘10+2+3’ आधारित थी, को पूरी तरह बदल दिया गया है। पहले जो स्नातक पाठ्यक्रम 3 साल का हुआ करता था, उसे अब बदलकर चार साल का कर दिया गया है।

ध्यातव्य है कि इसी नरेंद्र मोदी सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा 2013 में शुरू की गई चार वर्षीय पाठ्यक्रम को वापस कर दिया था। देखने वाली बात यह कि 2014 में जारी चार वर्षीय पाठ्यक्रम को जबरन वापस कराने वाली सरकार आखिर उसी प्रारूप को पूरे देश में क्यों लागू कर रही है?

इसकी वजह यह कि शायद सरकार को बाद में जाकर यह अहसास हुआ हो कि भविष्य की जरूरतों के हिसाब से चार वर्षीय स्नातक प्रारूप ही ठीक होगा। इस चार वर्षीय स्नातक प्रारूप में छात्रों के पास चार प्रकार की डिग्री प्राप्त करने का विकल्प रहेगा। उदाहरणस्वरूप, यदि कोई छात्र प्रथम वर्ष के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देता है तो उसे सर्टिफिकेट कोर्स की डिग्री मिलेगी। जो दो वर्ष में पढ़ाई छोड़ेगा, उसे डिप्लोमा और जो तीन वर्ष की पढ़ाई करेगा उसे ऑनर्स तथा जो छात्र चार वर्ष तक कि पढ़ाई करेगा उसे ऑनर्स के साथ शोध की डिग्री मिलेगी। इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इस प्रारूप में चौथे वर्ष में छात्रों को सातवें और आठवें सेमेस्टर में शोध प्रविधि पढ़ना होगा तथा दो शोध पत्र लिखना होगा। इसके अलावा अब स्नातकोत्तर केवल एक वर्ष का होगा। साथ ही पीएचडी की मुक्कमल तैयारी के रूप में स्नातकोत्तर के बाद किये जाने वाले एमफिल कोर्स को समाप्त कर दिया गया है।

एमफिल के खात्मे से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर उठ रहे सवाल

अब इस पूरे प्रारूप को देखें तो इनमें आपसी सामंजस्य का अभाव दिखाई देता है। छात्रों को चौथे साल में दो-दो शोध पत्र लिखने के लिये कहा जा रहा है, जबकि उन्हें इसके लिये जरूरी प्रशिक्षण ही नहीं दिया जा रहा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में स्नातक से आगे की पढ़ाई करने वाले छात्रों के समक्ष तीन प्रारूप रखे गये हैं। पहले प्रारूप में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम एक साल का होगा, जिसमें वे छात्र नामांकन लेंगे, जिन्होंने चार वर्षीय ऑनर्स विथ रिसर्च की डिग्री ली है।

दूसरे प्रारूप में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम दो साल का होगा। इसमें दूसरे साल में शोध अध्ययन होगा। इसमें वे छात्र भाग लेंगे, जिन्होंने तीन वर्ष की स्नातक डिग्री ली है। एक प्रारूप पांच वर्षीय इंटीग्रेटेड डिग्री का है, जिसे करने के बाद छात्र सीधे पीएचडी में दाखिला ले सकेंगे।

दिल्ली विश्वविद्यालय ने एक आदेश जारी कर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुपालन के लिए अगले सत्र से एमफिल पाठ्यक्रम को समाप्त करने की घोषणा कर दी है। पीएचडी की तैयारी की दृष्टि से यह पाठ्यक्रम पूर्वाभ्यास की भूमिका निभाता था। शोध की विधिवत तैयारी इस पाठ्यक्रम में हो जाती थी। लघुशोध प्रबंध लिखने से पूर्व शोधार्थी पूरे एक सेमेस्टर शोध प्रविधि से लेकर चयनित क्षेत्र की विशेष जानकारी प्राप्त कर पाता था। लघु शोध प्रबंध लिखने के साथ ही वह पीएचडी के लिए पूरी तैयार हो जाता था।

बहरहाल, अब एकदम से इसे हटा दिया गया है। अकादमिक जगत में इसे लेकर नाराजगी जताई जा रही है। उनका मानना है कि बहुत सारे शोधार्थी ऐसे हैं, जो शोध में 5 साल का समय लगाने की स्थिति में नहीं हैं। वे एक से डेढ़ साल में ही शोध की एक सामान्य समझ विकसित कर लेते हैं, जिससे उन्हें आगे अध्यापन में मदद मिलती है। कुछ विषय जैसे अंग्रेजी, अर्थशास्त्र आदि में पीएचडी कम हो पाते हैं, ऐसे में वहां एमफिल कर लिया जाता है। 

कुछ लोग इस कदम की सराहना भी कर रहे हैं। उनका मानना है कि 6 महीने का कोर्स वर्क कर शोधार्थियों को पीएचडी के लिये तैयार किया जा सकता है। उनका यह भी तर्क है कि एमफिल की डिग्री प्राप्त करने में एडमिशन से लेकर परिणाम आने तक दो साल लग जाते हैं, जबकि पीएचडी के साथ 6 महीने का कोर्स वर्क जोड़कर शोध किया जा सकता है।

खैर, अलग-अलग मतों के बीच एक सवाल यह भी कि पिछले दस सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय और यूजीसी ने जिस तरह से एक के बाद एक लगातार परिवर्तन किए हैं, वह कितना सुचिंतित है और इससे देशभर की उच्च शिक्षा कितनी समावेशी हो सकेगी?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुधांशु कुमार

डॉ. सुधांशु कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी संकाय में असिस्टेंट प्रोफेसर व एकेडमिक काउंसिल के सदस्य हैं

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