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यूपी चुनाव : भुखमरी के शिकार लोगों को राशन सरकार की जिम्मेदारी, अहसान नहीं

चुनावी वर्ष में कोरोना काल के दौरान उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा प्रति परिवार पांच-पांच किलो राशन उपलब्ध कराने का दावा किया गया। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के अन्य नेतागण इसी नाम पर आम जनता से वोट मांग रहे हैं। सवाल है कि यह कितना नैतिक है? पढ़ें, सुशील मानव की यह रपट

बीते 11 फरवरी, 2022 को कासगंज में एक चुनावी रैली को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया। उन्होंने राशन को वोट का मुद्दा बनाते हुये कहा कि “कोरोना महामारी के दौरान हमारी सरकार हर ग़रीब को पिछले कई महीनों से मुफ़्त राशन दे रही है।” यह बात सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी 16 फरवरी, 2022 को हमीरपुर में कहा कि “हर गरीब को महीने में दो-दो बार राशन देने का काम किया है।” इसके बाद 20 फरवरी, 2022 को भी लखीमपुर खीरी में योगी ने राशन को मुद्दा बनाते हुये कहा कि लखीमपुर खीरी में 40 लाख लोगों को हर महीने दो बार राशन दे रहे हैं। इन सबके बीच इटावा से भाजपा प्रत्याशी सरिता भदौरिया का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वॉयरल हुआ, जिसमें वह अपने गुस्से का इज़हार करते हुये कह रही हैं कि आज हम वोट मांगने जा रहे हैं तो मुंह से नहीं बोल रहे हैं। रुपया खा गए, गल्ला खा गए, नमक खा गए, सबकुछ खा गए, फिर भी ये लोग नहीं कहते हैं कि वोट देंगे? 

जाहिर तौर पर सत्ताधारी दल द्वारा राशन के बदले वोट मांगा जा रहा है। एक्टिविस्ट साहित्यकार नित्यानंद गायेन कहते हैं कि “ग़रीब जनता को मुफ्त राशन देना कल्याणकारी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी और राजनैतिक जवाबदेही है। इसे देकर सरकार ने जनता पर एहसान नहीं किया। अगर कोई सरकार इसे चुनावी मुद्दा बनाती है और राशन के बदले वोट मांग रही है तो यह उसकी निकृष्टता और वैचारिक पतन का सबूत है।”

वहीं नौजवान भारत सभा के प्रयागराज जिला संयोजक भीम लाल कहते हैं कि “जो लोग पुलवामा शहीदों की लाशों पर वोट मांग सकते हैं, वे मुफ्त राशन के बदले वोट मांग रहे हैं तो क्या तआज्ज़ुब! कोरोना महामारी के समय जब लोगों की नौकरी काम धंधे छीन लिये गये हैं, देश की दो तिहाई आबादी ग़रीबी में जी रही है तब मुफ्त राशन देना कल्याणकारी राष्ट्र के नाते राज्य और केंद्र सरकार का उत्तरदायित्व है, एहसान नहीं कि जिसके बदले में उनका वोट मांगा जाये।” 

बताते चलें कि गत 5 फरवरी, 2022 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एमआर शाह की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपने एक आदेश में कहा है कि “तकनीकी आधार पर कोरोना पीड़ितों को मुआवज़े से इन्कार नहीं किया जा सकता। राज्यों को यह नहीं सोचना चाहिये कि वह कोई दान कर रहे हैं, कल्याणकारी राष्ट्र होने के नाते ऐसा करना उनका उत्तरदायित्व है।” 

ज़रूरतमंदों के पास नहीं है राशन कार्ड 

इधर चुनाव रिपोर्टिंग के सिलसिले में मेरा कई जिलों में आदिवासी और दलित समुदाय के लोगों के बीच जाना हुआ। अधिकांश आदिवासियों ने बताया कि उन्हें राशन नहीं मिलता क्योंकि उनका राशन कार्ड नहीं बना या तो बना था, निरस्त हो गया। राशन कार्ड़ बनवाने की प्रक्रिया तकनीकी इतनी जटिल बना दी गई है कि अनपढ़ आदिवासियों और दलितों के लिये ये किसी लड़ाई लड़ने से कम नहीं है। 

प्रतापगढ़ जिले के गँजेड़ा इलाके में हाईवे के धइकार (बांस की दौरी, डलिया बेना बनाने वाले) नीचे 25-30 लोगों वाला तीन परिवार रहता है। लेकिन किसी के पास राशनकार्ड नहीं है। सत्तार बताते हैं लॉकडाउन में शादी-ब्याह सब कुछ बंद था। शादी ब्याह में ही यह सब बिकता है। गांव में लोग घुसने नहीं देते थे। लोग कोरोना कहकर भगा देते। कोई हमारा और बच्चों का झुराया मुंह देखता था तो 10-5 किलो राशन पताई दे देता था। वही बच्चों को खिला देते थे। खुद नहीं खाते थे कि कहीं बच्चे भूखे न रह जायें। ज़्यादा मिलता था तो खा लेते थे।

प्रतापगढ़ के गंजेरा इलाके में बांस के उत्पाद बनाती एक महिला (तस्वीर : सुशील मानव)

गोरखपुर जिला के बरगदवा गांव के अर्जुन और विजय कूड़ा कबाड़ बीनने का काम करते हैं। पूछने पर वो बताते हैं कि उनका राशन कार्ड नहीं बना है। मोदी के डिजिटल इंडिया में विजय के पास इक सामान्य मोबाइल फोन भी नहीं है। विजय सत्ता से इतने भयभीत हैं कि हमसे बात करने को तैयार नहीं होते वो कहते हैं– भैय्या, जीने खाने दीजिये। 

प्रयागराज (इलाहाबाद) के बारा विधानसभा के कपारी और बेमरा गांव के अधिकांश संपेरे समुदाय के लोगों के पास राशन कार्ड नहीं है। हंड़हा गांव के आदिवासियों की भी यही कहानी है। बेमरा बस्ती भी सपेरों की बस्ती है। यहां के हलधरनाथ दो छोटे छोटे बच्चों के साथ सांपों के लेकर रोटी की तलाश में निकल रहे हैं। सड़क पर पिटारा और गट्ठर रखकर वो हमसे बात करते हैं, बताते हैं कि अब कोई मेला-ठेला तो है नहीं, जसरा (एक गांव का नाम) जा रहे हैं वहीं सांप दिखाकर मांगेगे। बस इसी तरह कहीं न कहीं घूमते घामते रहते हैं। कंपनियां बाहरी लोगों को काम दे रही है। प्रधान के चक्कर काटे लेकिन आधारकार्ड, राशनकार्ड कुछ नहीं बना। सिर्फ़ मतदाता कार्ड बना है। वोट देते हैं। कोरोना के समय लॉकडाउन लगा दिया तो घूमना–फिरना तो दूर घर से निकलने तक नहीं दे रहे थे। उस समय तो खाने के लाले पड़े थे। छोटे-छोटे बच्चों के साथ भूखे सोना पड़ता था। गांव में किसी के यहां मजूरी करके किसी तरह कभी आधा पेट खाकर किसी रोज भूखे रहकर वो समय काटा था। 

रामबाई विश्वकर्मा खानाबदोश ज़िंदगी जीती हैं। परिवार के साथ एक घोड़ागाड़ी में जगह जगह हफ्ता-पखवाड़े का डेरा डालते उखाड़ते उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों में भटकती रहती हैं। वो कबाड़ का लोहा ख़रीदती हैं और उसका हंसिया, खुरपा, कुल्हाड़ी आदि बनाकर बेचती हैं। रामबाई बताती हैं कि जब रहने की ही ठिकाना नहीं है तो राशनकार्ड कहां से होगा।

राशन कार्ड है, पर अंगूठा नहीं लगता तो नहीं मिलता राशन

कौशाम्बी जिला के सैनी क्षेत्र के बुजुर्ग हरिश्चंद गौतम बताते हैं कि राशन का सिस्टम सरकार ने यह कर दिया है कि राशन कार्ड तो है मेरे पास पर राशन नहीं मिलता, क्योंकि अँगूठा ही नहीं लगता मेरा। रोज दो पैसा कमाकर राशन ख़रीदना पड़ता है। खेतीबाड़ी बहुत थोड़ी है। प्रधानमंत्री कहे थे कि 2 हजार देंगे किसानों को। बहुत दौड़ा लेकिन कुछ नहीं हुआ। अधिकारी कहते हैं कि तुम्हारा कागज ही नहीं बना है। 

यही कहानी फ़ैज़ाबाद (अयोध्या) के 65 साल के राम भवन की है । राम भवन 100 रुपिया रोज़ाना पर गेटकीपर हैं। कहतें है कोरोना में राशनकार्ड कट गया। राशन नहीं मिलता। क्या करें। 

सरकार तय कर रही जनता को कितना खाना है

सामाजिक कार्यकर्ता विद्या भूषण रावत कहते हैं कि “यह सरकार राशन भी निर्धारित कर रही है। जो अधिकार आधारित चीजें होती हैं उसको इन्होंने पात्रता आधारित कर दिया है। अब सरकार निर्णय कर रही है कि एक आदमी कितना खाना खाएगा। एक महीने में एक व्यक्ति को 5 किलो राशन मिलेगा। हो सकता है कि वो 7 किलो खाये, 15 किलो खाये, लेकिन सरकार निर्धारित कर रही है कि वो 5 किलो ही खायेगा।” 

विद्याभूषण आगे कहते हैं कि राशन देना स्थायी समाधान नहीं है। स्थायी समाधान भूमि सुधार है जो कि हुआ ही नहीं। जब तक यह नहीं होगा समस्या दूर नहीं होगी। जब तक संसाधन पर अधिकार नहीं होगा ग़रीबी भुखमरी दूर नहीं होगी। भूमि सुधार के बिना न तो समाज का लोकतांत्रिकरण होगा न ही समाज में खाद्य सुरक्षा आ पाएगी। दलित पिछड़ी जातियों के दल भी भूमि सुधार के सवाल से भागते हैं। 

विद्याभूषण रावत बताते हैं कि चंदौली, सोनभद्र, बुंदेलखंड, चित्रकूट, कोरांव आदि में कोल आदिवासी रहते हैं, फ़ैज़ाबाद के आगे सिद्धार्थनगर लखीमपुर खीरी, कुशीनगर में थारू आदिवासी हैं, जिनकी हालत बहुत खराब है। यहां भुखमरी के हालात हैं। तमाम सरकारी योजनाओं पर जातीय पूर्वाग्रह स्कीम में हावी हो जाता है। क्योंकि योजनायें सबके लिये नहीं होती। लाभार्थियों की संख्या पहले से तय होती है। जैसे मान लीजिये के वृद्धा या विधवा पेंशन योजना एक गांव में सिर्फ़ दो स्त्रियों को मिलेगा। और किसी गांव में 5 विधवायें हैं तो जिन दो को प्रधान चाहेगा या फिर जो उसके जातीय समीकरण में फिट बैठेगा, उसे मिलेगा। इसी तरह वृद्धा पेंशन का भी कोटा होता है, वह सबको नहीं मिलता। जिसे प्रधान चाहेगा, उसे ही मिलेगा। गांव का शासन जातिवादी है। समाजिक न्याय की अवधारणा जातीय उत्पीड़न का शिकार हो जाती है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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