h n

बहस-तलब : उड़ीसा के इन गांववालों पर क्यों जुल्म ढा रही सरकार?

जब गांववालों ने गांव में ही रहकर इसका सामना करने का निर्णय लिया तो पुलिस और कंपनी के लोगों ने मिलकर गांव के बाहर पान के खेतों को उजाड़ना शुरू कर दिया। करीब चालीस हज़ार परिवारों को पालने लायक पान की खेती को सरकारी पुलिस के संरक्षण में उजाड़ दिया गया। पढ़ें, हिमांशु कुमार का यह विश्लेषण

इस समय जब हमारे शासक इस बात से खुश हैं कि उन्होंने मुस्लिम लड़कियों के चेहरे से हिजाब उतरवा कर हिन्दुओं की ताकत का अहसास करवा दिया है। दूसरी ओर ठीक इसी समय देश के एक हिस्से में पचास हजार परिवारों की आजीविका सरकार ने नष्ट कर दी। और मज़े की बात यह है कि इन परिवारों में कोई भी मुसलमान नहीं है। इनमें अधिकांश अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के कुछेक परिवार के अलावा कुछ परिवार सवर्ण भी हैं। दरअसल, इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जब एक पूंजीपति के लिए सरकार को गरीबों की खेती कमाई नष्ट करनी होती है तब आपका ध्यान इस तरह के फ़ालतू मुद्दों की तरफ उलझाया जाता है ताकि आप खुद की बर्बादी के खिलाफ लड़ ना सकें।

मैं उडीसा के जगतसिंहपुर ज़िले के समुद्र तट और किनारे बसे गावों पर कब्ज़ा किये जाने लोगों को पीटे जाने और सरकार द्वारा उनके पान के खेतों को उजाड़े जाने की बात कर रहा हूं। । 

हम एक आज़ाद देश हैं। किसी भी देश का निर्माण वहां रहनेवाले लोगों से होता है । देश की ज़मीन का मालिक कौन है? संसाधनों पर अधिकार किसका है? भारतीय संविधान के मुताबिक़ इस देश में सभी को बराबरी का हक हासिल है। सभी समान रूप से इस देश के मालिक हैं। लेकिन हुकूमतें संविधान को ही नहीं मान रही हैं।

मसलन, उडीसा के जगतसिंहपुर में 2011 से 2013 में उडीसा सरकार ने दक्षिण कोरियाई कम्पनी पोस्को को देने के लिए 2700 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया था । गांववालों ने तब इसका तीखा विरोध किया था। कंपनी द्वारा अपने इलाके में ज़मीन हड़पने के खिलाफ औरतें और बच्चों ने भीषण गर्मीं में गर्म रेत पर लेट कर सत्याग्रह किया था। इस सत्याग्रह की तस्वीरों ने पूरे भारत को झकझोर दिया था। सारी दुनिया में इन गांववालों के समर्थन में माहौल बना सरकार पर दबाव आया और अंत में पोस्को कम्पनी को वापिस जाना पड़ा।

इसके बाद कायदे से अधिगृहित 2700 एकड़ ज़मीन को ग्रामीणों को वापिस कर दिया जाना चाहिए था। लेकिन इंडट्रीयलल डेवेलपमेंट कारपोरेशन ने ज़मीन किसानों को वापिस देने की बजाय सज्जन जिंदल नामक एक पूंजीपति की कम्पनी को दे दी। पहले से छीनी गई 2700 एकड़ ज़मीन के अलावा सरकार ने दो सौ एकड़ सरकारी ज़मीन तथा ढेंकिया मुहाल और पटना नामक तीन नए गावों के किसानों की ग्यारह सौ एकड़ नई ज़मीन भी छीन कर जिंदल की कंपनी को दे दी। 

जब किसी उद्योग को ज़मीन दी जाती है तो सरकार और उस औद्योगिक संस्थान के बीच एक करारनामा होता है, जिसे मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) कहा जाता है । इसमें बताया जाता है कि यह कम्पनी क्या काम करेगी और उसे कितनी ज़मीन दी जायेगी । इस आन्दोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत पैकरे बताते हैं कि इस कम्पनी के साथ उडीसा सरकार ने क्या एमओयू किया है, इसकी जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मांगने पर सरकार ने कहा है कि अब कानून बदल गया है और अब हम बिना एमओयू के भी ज़मीन दे सकते हैं। गांववालों को यह भी नहीं पता चल रहा है कि आखिर इस कम्पनी को कितनी ज़मीन सरकार और देना चाहती है।

इस ज़मीन पर पहले पोस्को के लिए एक फारेस्ट क्लीयरेंस जन-सुनवाई की गई थी, जिसका गांववालों ने विरोध किया था। लेकिन तब पोस्को कंपनी ने बाहरी लोगों की सहायता से यह अधिकार लाकर व हासिल कर लिया था। अब जिंदल की कम्पनी ने तो वह भी करने की जहमत नहीं उठाई है। सरकार ने पिछली कम्पनी का फारेस्ट क्लीयरेंस नई कम्पनी को सौंप दिया, जो कि नियमों के विपरीत है।

अब हुआ यह है कि जिंदल की कम्पनी ने इलाके की घेराबंदी करने के लिए 18 किलोमीटर लंबी दीवार बनानी शरू कर दी। इसके खिलाफ ग्रामीण नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में गये। वहाँ से इस दीवार को तोड़ने का आदेश निर्गत किया गया। लेकिन सरकार ने दीवार तोड़ने के अदालती आदेश को नहीं माना। अब उलटे कम्पनी और भी दीवार बनाने के लिए धड़ाधड पेड़ काटे जा रहे हैं। स्थानीय लोगों से मिल रही सूचना के मुताबिक अब तक करीब दो हज़ार से अधिक पेड़ काटे जा चुके हैं। 

मार्च, 2020 में जिंदल स्टील कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन करतीं महिलाएं

सनद रहे कि यह तटीय वन क्षेत्र है, जो बेशकीमती है और इसका संरक्षण करना सरकार का कर्तव्य है। लेकिन कम्पनी उसे खुले आम सरकारी संरक्षण में नष्ट कर रही है। कम्पनी पारादीप समुद्र तट से ग्यारह किलोमीटर दूरी पर अपना प्राइवेट समुद्र तट भी बना रही है। 

अभी पिछले ही साल 6 दिसंबर, 2021 को ग्रामीणों ने अपनी ज़मीन छीने जाने के विरोध में एक रैली की, जिसमें करीब चार हज़ार ग्रामीणों ने हिस्सा लिया। गांववालों का आरोप है कि पुलिस ने गांव में कंपनी के गुंडों को लाकर उन्हें डराया धमकाया। ग्रामीणों ने जवाब में अपने गावों के प्रवेश द्वार पर बांस के गेट लगा दिए और रखवाली के लिए महिलाएं भी खड़ी हो गईं। इस तरह गांववालों ने कंपनी के लोगों को अपने गावों में घुसने से रोक दिया। 

ध्यातव्य है कि यहां के किसानों की मुख्य फसल पान की खेती है। यहां से पान बांग्लादेश, बंगाल और नेपाल के अलावा समेत पूरे भारत में भेजे जाते हैं। इसके अलावा मछ्ली उत्पादन और धान की खेती भी यहां व्यापक स्तर पर होती है। 

तो जब पुलिस ने देखा कि गांववाले अपने गावों में कम्पनी के लोगों को नहीं घुसने दे रहे हैं तो गांववालों के उपर 440 फर्ज़ी मुकदमे लादे गए और उनके आधार पर गांवालों को गांव से बाहर निकालते ही पकड़ना शुरू कर दिया। जब गांवालों ने गांव में ही रहकर इसका सामना करने का निर्णय लिया तो पुलिस और कंपनी के लोगों ने मिलकर गांव के बाहर पान के खेतों को उजाड़ना शुरू कर दिया। करीब चालीस हज़ार परिवारों को पालने लायक पान की खेती को सरकारी पुलिस के संरक्षण में उजाड़ दिया गया। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी आज़ाद देश में सरकार अपने नागरिकों की फसल उजाड़ सकती है? 

बहरहाल, गांववाले वर्ष 2011 से ही संघर्ष कर रहे हैं। अभी हाल ही में सरकार ने 28 नए मुकदमें ग्रामीणों के ऊपर थोप दिए हैं। इस आन्दोलन के नेता देवेन्द्र स्वेन को सरकार ने फर्जी मामले बना कर जेल में डाल दिया है। इसके पहले पुलिस ने देवेन्द्र के चार दांत भी तोड़ दिये, जो क्रूरता की पराकाष्ठा है।

इस आन्दोलन से जुड़े पांच लोग अभी भी जेल में हैं। उडीसा हाई कोर्ट ने पांच वकीलों की समिति को ग्रामीणों से मिलने भेजा और पुलिस को आदेश दिया कि वह इस दौरान ग्रामीणों से दूर रहे। लेकिन पुलिस ने इस दल के दौरे से एक रात पहले घरों में घुस कर ग्रामीणों को मुंह बंद रखने के लिए धमकाया। इतना ही नहीं, अदालत के आदेश की परवाह ना करते हुए ग्रामीणों पर वकीलों की मौजूदगी में हमले किये और लोगों को चोट पहुंचाई। महिलाओं को भी इस दौरान नहीं बख्शा गया।

भारत के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत कहता है कि राज्य का कर्तव्य होगा कि वह नागरिकों के बीच समानता बढाने की दिशा में काम करेगा। लेकिन अगर राज्य हजारों लोगों की आजीविका छीन कर एक पूंजीपति की तिजोरी भरेगा तो यह तो संविधान का उल्लंघन ही कहा जाएगा। 

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

हिमांशु कुमार

हिमांशु कुमार प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता है। वे लंबे समय तक छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के जल जंगल जमीन के मुद्दे पर काम करते रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में आदिवासियों के मुद्दे पर लिखी गई पुस्तक ‘विकास आदिवासी और हिंसा’ शामिल है।

संबंधित आलेख

महाराष्ट्र : वंचित बहुजन आघाड़ी ने खोल दिया तीसरा मोर्चा
आघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर ने अपनी ओर से सात उम्मीदवारों की सूची 27 मार्च को जारी कर दी। यह पूछने पर कि वंचित...
‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा में मेरी भागीदारी की वजह’
यद्यपि कांग्रेस और आंबेडकर के बीच कई मुद्दों पर असहमतियां थीं, मगर इसके बावजूद कांग्रेस ने आंबेडकर को यह मौका दिया कि देश के...
इलेक्टोरल बॉन्ड : मनुवाद के पोषक पूंजीवाद का घृणित चेहरा 
पिछले नौ सालों में जो महंगाई बढ़ी है, वह आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह चंदे के कारण की गई लूट का ही दुष्परिणाम है।...
कौन हैं 60 लाख से अधिक वे बच्चे, जिन्हें शून्य खाद्य श्रेणी में रखा गया है? 
प्रयागराज के पाली ग्रामसभा में लोनिया समुदाय की एक स्त्री तपती दोपहरी में भैंसा से माटी ढो रही है। उसका सात-आठ माह का भूखा...
यूपी : नगीना लोकसभा सीट आख़िर क्यों है इतनी ख़ास?
इस सीट का महत्व इस बात से समझिए कि इस सीट पर उम्मीदवारी की लिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, बसपा नेता आकाश आनंद समेत...