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बहस-तलब : आदिवासी संस्कृति को कौन नष्ट कर रहा है?

रजनी मुर्मू के मामले में हस्तक्षेप करते हुए सीमा आजाद बता रही हैं कि सोहराय होली जैसे हिन्दू त्योहारों की तरह पुरुषों के लिए नृत्य और औरतों के लिए रसोई में खटने और अश्लील गाने झेलने वाला पर्व नहीं है, बल्कि दोनों के नृत्य का पर्व है। लेकिन जो काम अंग्रेज़ नहीं कर सके, वो काम आरएसएस ने कर दिखाया

पिछले महीने झारखंड के सिदो-कान्हू विश्वविद्यालय के गोड्डा कॉलेज की अध्यापिका रजनी मुर्मू चर्चा में थीं, और उनके साथ ही झारखंड के आदिवासियों का बड़ा पर्व सोहराय भी। रजनी पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने सोहराय के बहाने आदिवासी संस्कृति को बदनाम किया है। रजनी मुर्मू खुद संताल आदिवासी समुदाय की हैं, सोहराय जिसका सबसे बड़ा पर्व है। उन्होंने सोहराय पर अपनी फेसबुक पोस्ट में जो लिखा उसका सार यह है कि सोहराय पर्व जबसे शहर पहुंच गया है, तबसे उसका स्वरूप बदल गया है। यह लड़कियों के यौन शोषण का पर्याय बन गया है।

रजनी की इस फेसबुक पोस्ट पर आदिवासी समुदाय के लोगों ने ही ट्रोलिंग की और इस पोस्ट को आदिवासियों को बदनाम करने वाला बताते हुए रजनी को खलनायिका घोषित कर उनके समुदाय बहिष्कार की अपील की गई। 

यह तो सोशल मीडिया की बात हुई। उनकी पोस्ट के खिलाफ उनके कॉलेज के कुछ छात्र नेताओं ने कॉलेज के प्रॉक्टर से इसकी लिखित शिकायत की। कॉलेज प्रशासन ने भी इस पर कार्रवाई करते हुए उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया। उन्हें जवाब देने के लिए बुलवाया और यह कहकर एक माफीनामे पर हस्ताक्षर कराया कि हम आपके साथ है। रजनी का कहना है कि यह माफीनामा उनकी मर्ज़ी नहीं, बल्कि कॉलेज प्रशासन की इमोशनल ब्लैकमेलिंग थी, कि यहीं पर मामले को खत्म किया जाय। वे तैयार हो गईं। 

लेकिन अगले दिन धमकी देने और शिकायत दर्ज कराने वाले छात्रों ने इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित किया, यह कह कर कि “देखो, हार मान ली आखिर।” यह देखकर उन्होंने अपनी पोस्ट को फिर से लगा दिया और माफीनामे से इंकार करते हुए दूसरी पोस्ट लिखी। इसके बाद इस मामले को निपटाने के लिए एक जांच कमेटी बिठा दी गई और जनवरी के अंत में उन्हें एक पत्र भेजकर जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया। 

एक तरह से देखा जाय तो यह शिकायती छात्र नेताओं की जीत है, जिन्होंने आदिवासी संस्कृति को बदनाम करने का हवाला देकर आदिवासी संस्कृति के कुछ नकारात्मक पहलुओं को खुद ही लोगों के सामने रख दिया है, जैसे ‘डायन प्रथा’। रजनी ने तो आदिवासी संस्कृति पर शहरी प्रभाव को उजागर किया, लेकिन इसका विरोध करने वाले शिकायतियों ने आदिवासी समाज की एक गलत प्रथा को अपना हथियार ही बना कर उनके ऊपर लगाए गए आरोप को खुद सही साबित कर दिया।

रजनी मुर्मू का कहना है कि यह मामला आदिवासी संस्कृति की रक्षा का है ही नहीं, बल्कि संस्कृति की राजनीति का है। उनका कहना है यह मामला इसलिए उछाला गया, क्योंकि “मैंने जिस कॉलेज की बात फेसबुक पोस्ट में की है, वहां इस बार सोहराय के कार्यक्रम की चीफ गेस्ट भाजपा समर्थित पूर्व सरकार में विधायक लुईस मरांडी थीं, इस कारण भाजपा से जुड़े छात्र संगठनों को मेरी बात बुरी लगी है, और वे ही मेरा विरोध भी कर रहे हैं आ और ट्रोलिंग भी।”

प्रो. रजनी मुर्मू, अध्यापिका, सिदो-कान्हू विश्वविद्यालय

रजनी मुर्मू की इस बात में काफी हद तक सच्चाई प्रतीत होती है। यह तथ्यात्मक बात है आरएसएस और भाजपा ने ही इस समय पूरे समाज की संस्कृति का ठेका ले रखा है। वे हर संस्कृति का मनुवादीकरण करने में जी जान से लगे हैं। संस्कृति में बराबरी और जनवाद की बात करना उन्हें पसंद नहीं, उन्हें औरतों का दमन करने वाली संस्कृति ही पसंद है। वे अपना एजेंडा जहां भी लेकर जा रहे हैं, उस संस्कृति के गैरबराबरी वाले पक्ष को बढ़ावा दे रहे हैं और जनवादी पहलुओं को नष्ट कर रहे हैं। इसके साथ ही आदिवासी समाज में बहुत कुछ ऐसा भी दे रहें हैं, जो उनकी अपनी संस्कृति का हिस्सा नहीं थी। जैसे ‘दहेज प्रथा’। 

भला उन्हें रजनी मुर्मू की सोहराय के बिगड़ते स्वरूप की बात क्यों पसंद आएगी? उन्हें तो वहीं सोहराय पसंद होगा, जो शहर में पहुंच कर बाजार की पितृसत्ता से जुड़ चुका है। रजनी मुर्मू ने लिखा कि शहर आकर जो सोहराय वो देख रही हैं, वह लड़कियों का शोषण करने वाला है फिर भी कॉलेज प्रशासन वह सब होने दे रहा है। जांच तो सोहराय के इस स्वरूप की होनी चाहिए थी।

आदिवासी समाज की तरह आदिवासी संस्कृति भी प्रकृति और सामूहिक उत्पादन से गहरे जुड़ी है, उसके पर्व भी। सोहराय भी ऐसा ही पर्व है जब प्रकृति और सामूहिकता की जय का उल्लास मनाया जाता है। और महत्वपूर्ण है कि ये त्योहार होली जैसे हिन्दू त्योहारों की तरह पुरुषों के लिए नृत्य और औरतों के लिए रसोई में खटने और अश्लील गाने झेलने वाला पर्व नहीं है, बल्कि दोनों के नृत्य का पर्व है। लेकिन जो काम अंग्रेज़ नहीं कर सके, वो काम आरएसएस ने कर दिखाया। उसने ब्राह्मणवादी संस्कृति के एकाधिकार के साथ बाज़ार को भी हर जगह पहुंचा दिया है। शहरों में आरएसएस अधिक मजबूती के साथ उपस्थित है, जबकि यहां आदिवासी संस्कृति अपने परिवेश से कटी हुई, केवल परंपरा के रूप में ही मौजूद हैं। 

सोहराय नृत्य करते आदिवासी छात्र-छात्राएं

दरअसल, जड़ से कटी परंपरा जब बाज़ार से जुड़ती है तो वहीं संभव है, जो रजनी ने अपनी पोस्ट में लिखा है। बाज़ार के लिए औरत एक ‘माल’ है। बाज़ार का यह विचार भाजपा की राजनीति के सबसे करीब है। लेकिन हेमंत सोरेन को भी इससे बरी नहीं किया जा सकता, कॉलेज प्रशासन की कार्रवाही उनकी सरकार के ही देख-रेख में चल रही है। वे आदिवासी समाज के ज़रूर है, लेकिन बाज़ार को झारखंड में लाने के कार्यवाहक भी। उस साम्राज्यवादी बाज़ार के जो आदिवासियों को उनकी ज़मीन से उजाड़ कर सिर्फ उपभोक्ता में तब्दील कर रहा है। जमीन से उजड़े लोग अपनी संस्कृति अधिक दिनों तक बचा नहीं पाते है। सोहराय का शहरी स्वरूप इसी कारण बदल रहा है। 

बहरहाल, रजनी मुर्मू की बात बाज़ार और गैरबराबरी की संस्कृति के रक्षकों को ही नागवार लग सकती है, किसी और को नहीं। आदिवासी संस्कृति के शानदार जनवादी हिस्से को बचाने के लिए रजनी मुर्मू की बात पर विचार करना चाहिए, न कि उनके खिलाफ जांच कमेटी बिठाकर, उन्हें लंबी छुट्टी पर भेजकर उनका मानसिक शोषण करना चाहिए। उनके साथ अभी भी मजबूती से खड़े होना चाहिए।

आदिवासी संस्कृति को आखिर कौन नष्ट कर रहा है? इस पर ज़रूर विचार करना चाहिए।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सीमा आजाद

मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल से सम्बद्ध लेखिका सीमा आजाद जानी-मानी मानवाधिकार कार्यकता हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘ज़िंदांनामा’, ‘चांद तारों के बगैर एक दुनिया’ (जेल डायरी), ‘सरोगेट कन्ट्री’ (कहानी संग्रह), ‘औरत का सफर, जेल से जेल तक’ (कहानी संग्रह) शामिल हैं। संपति द्वैमासिक पत्रिका ‘दस्तक’ की संपादक हैं।

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