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संस्मरण : ऐसे थे अण्णा भाऊ साठे (पहला भाग)

तब अण्णा भाऊ ने कहा था– “दलितों की शक्ति के आधार पर ही यह दुनिया चलती है। उनकी मेहनत और यश प्राप्ति पर मेरा विश्वास है। उन्हें असफल बनाना मुझे पसंद नहीं है। ऐसा करने में मुझे डर लगता है। यह धरती शेषनाग के फन पर टिकी हुई नहीं है, बल्कि दलितों ने इसे अपनी हथेली पर झेल रखा है।” पढ़ें, प्रो. गंगाधर पानतावणे के संस्मरण का पहला भाग

प्रस्तुत संस्मरण “अण्णा भाऊ साठे गौरवग्रंथ, संपादक : चंद्रकांत वानखेडे, अण्णा भाऊ साठे साहित्य एवं कला अकादमी, नागपुर” में मराठी में संकलित है। इसे हिंदी में डॉ. सोनकांबळे पिराजी मनोहर ने अनूदित किया है।

अण्णा भाऊ साठे (1 अगस्त, 1920 – 18 जुलाई, 1969) पर विशेष

तारीख थी 18 जुलाई, 1969 जब आकाशवाणी से यह समाचार प्रसारित किया गया कि अण्णा भाऊ साठे अब नहीं रहे। यह खबर सुनकर मैं स्तब्ध हो गया और कुछ क्षण के लिए ऐसा लगा कि महाराष्ट्र के सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र का व्यक्तित्व स्मृति शेष हो गया हो। अस्पृश्य समाज की वास्तविकता का परिचय कराने वाले क्रांतिकारी शायर को मन ही मन याद कर रहा था तब उनके साथ बिताई हुई शाम का स्मरण हुआ।

 

नागपुर के युवा दलित लेखकों की ‘साहित्यिक चर्चा संस्था’ की ओर से अण्णा भाऊ के ‘मराठी शायरी वाङ्मय’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया था। इसका उद्देश्य यही था कि अण्णा भाऊ नई पीढ़ी के दलित लेखकों को मार्गदर्शन दें एवं उन्हें प्रेरित करें। उन्हें देखने-सुनने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोग आए हुए थे। सांवले रंग और घुंघराले बाल वाले अण्णा भाऊ बंगाली कुर्ता पहनकर आए। सभी लोगों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया था। लोग उन्हें अपना समझते थे। उस दिन उनका व्याख्यान सारगर्भित रहा। वे अपने व्याख्यान में बीच-बीच में अपने खास अंदाज में कवने (गीत) गा रहे थे। उनकी वह आवाज आज भी मेरे कानों में गूँजती है। मराठी शायरी के संदर्भ में अपनी बात रखते हुए उन्होंने यह कहा था– 

“शायरी ने ऐसे दलित पीड़ित मांग, महारों के घरों में जन्म लिया। शायरी जो है वह साधारण व्यक्ति ने, सामान्य शब्दों में, सामान्य लोगों के लिए लिखा हुआ अप्रतिम प्रकार है। संत कवि रामायण, महाभारत आदि गाते थे, तब शूद्र अपनी झोपड़ी में बैठकर अपनी ढ़पली पर थाप मारते हुए शायरी गाया करते थे। माना कि शूद्रों के हाथों में कलम नहीं थी, परंतु मौखिक रूप धारण करने वाली शायरी आज भी जिंदा है। श्रृंगार और तत्त्व ज्ञान शायरी का मुख्य विषय बन गए। शायरी का साथ देने वाले ‘तुणतुणे’ का भी जन्म हुआ। शूद्रों द्वारा निर्माण की गयी शायरी इस राष्ट्र के लिए अनमोल देन बन गयी।” जब वे यह बात कह रहे थे, तब उनका आत्मविश्वास साफ झलक रहा था और मानो शब्दों पर उनकी हुकूमत ही थी। हाथों से इशारे करते हुए श्रोताओं के साथ वे सहज रूप से संवाद कर रहे थे। 

उन्होंने आगे कहा कि “शायरी ने जनता का दिल जीत लिया है और अनेक ब्राह्मण पंडित शूद्रों की इस कला की तरफ आकर्षित हो रहे थे, जिनमें सोलापुर के धोंड्या महार के साथ राम जोशी गीत गाने का काम कर रहा था। यह शायरी से ही संभव हुआ था। राजा-महाराजाओं का समय चला गया। अब समाज में परिवर्तन लाना जरूरी हो गया है। मजदूरों का संघर्षमय जीवन और किसानों की भूख आदि से शायरों को परिचित होना ही चाहिए। यदि कोई मंत्री तमाशा देखने आ रहा है, यह समझकर सफेद टोपी नहीं पहननी चाहिए। अपने अंतर्मन को स्थिर रखकर ही आगे बढ़ना चाहिए। लावणी में नृत्य करने वाली स्त्री की चेष्टा करना ही मात्र एक विषय नहीं है, क्योंकि समाज में परिवर्तन लाने के लिए भाषणों की अपेक्षा शायरी ही श्रेष्ठ है।” ऐसा कहकर अण्णा बैठ गए। 

मैंने अपने अध्यक्षीय टिप्पणी में उनके व्याख्यान के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात रखते हुए ही अपना भाषण खत्म किया। इसके बाद हम बहुत देर तक साहित्य के संबंध में बात कर रहे थे। बात करते-करते लेक बाहरी लाउंज जा पहुँचे, जहाँ पर उनके सह कलाकार रूके हुए थे। इस मुलाकात में अनेक विषयों पर चर्चा हुई, वे लगातार बात करते जा रहे थे। जैसे– अपना गाँव, समाज, शिक्षा, परिस्थिति तथा राजनीतिक दलदल में हम कैसे फँसते गए आदि। ऐसे अनेक विषयों पर वे अपनी राय दे रहे थे, कुछ इस तरह अण्णा भाऊ के साथ मेरी पहली मुलाकात हुई थी। 

उसके बाद कई बार मुंबई के चिरानगर भी गया था, जहां उनसे मुलाकात हुई थी। परंतु वह काफी व्यस्त थे। उन्होंने अपनी व्यस्तता में भी साहित्य लेखन के संकल्पों को लेकर चर्चा करते हुए यह इच्छा व्यक्त की थी कि दलित समाज में भी व्यापक स्तर पर लेखकों का निर्माण होना चाहिए। 

अण्णा भाऊ साठे की तस्वीर

अण्णा भाऊ के समय में महार-मांग समाज के बच्चे स्कूल जाते हैं, यही बहुत बड़ी बात थी। अण्णा भाऊ सतारा जिले में अपने गाँव वाटेगाँव की स्कूल में पढ़ने गए थे “गाँव अर्थात् भारतीय संस्कृति की आत्मा।” ऐसा कहा जाता है। ऐसी भारतीय संस्कृति की आत्मा न दिखाई देने वाले स्कूल में अण्णा भाऊ का मन कैसे लगेगा, क्योंकि ऐसे स्कूल में सभी बच्चों के दिमाग का विकास नहीं होता है। उन्होंने जिस स्कूल में प्रवेश किया था उस स्कूल में छत भी नहीं थी। ऐसी ही स्कूल में उन्हें यह अनुभव हुआ– आंबेडकरवाद।

अपने अनुभवों को उन्होंने लिखा– “उस वक्त मैं काफी छोटा था, मेरी माँ की यह इच्छा थी कि मैं स्कूल जाऊँ। माँ के इच्छा अनुसार मुझे स्कूल में दाखिला मिला, लेकिन मैंने कभी स्कूल की दहलीज पर पैर तक नहीं रखे। इसका कारण यह था कि गुनहगार समझी गयी जाति के सभी बच्चे स्कूल के आँगन में बैठकर स्लेट और टूटी हुई तख़्ती लेकर अध्ययन कर रहे थे। मैं भी उनके साथ जाकर बैठ गया। दोपहर का समय हो गया, लेकिन दिन ढलने के बाद भी मास्टर जी बाहर नहीं आये। पहला दिन ऐसे ही गुजर गया। दूसरे दिन मास्टर जी ने तिरछी नज़र से मुझे देखा, उन्होंने बिना स्पर्श किए ही गुरु होने का रौब दिखाया। उनका उस तरह से देखना ही मेरे लिए विद्या प्राप्ति थी बस! फिर स्कूल को छुट्टी मिली, उसके बाद हमने स्कूल का नाम ही नहीं लिया।” 

इस प्रकार स्कूल के यह न भूलने वाले अनुभव लेकर अण्णा भाऊ अपनी अलग दुनिया में निकल चुके थे। जन्म से ही जाति के नाम पर मिले हुए दुःखों की कोई सीमा नहीं होती है। उसके बाद वे अपने वाटेगाँव को भूलकर पेट भरने या गुजारा करने के लिए अपने पिता के साथ मुंबई की ओर निकल पड़े थे। जाने के लिए पैसे न होने के कारण पैदल ही निकले थे, रास्ते में जो काम मिलता था, वह करते हुए खंडाळा तक पहुँच गए थे। तब खंडाळा में सुरंग बनाने का काम चल रहा था। वहाँ पर काम करके कुछ पैसे मिले, तब वे वहाँ से फिर पैदल यात्रा करते हुए मुंबई पहुँच गए। मुंबई में अपने रिश्तेदारों के यहाँ रह रहे थे। दिन भर काम की तलाश में फिरते थे और रात में सुबह की चिंता में लेट जाया कतरे थे। उनके पिताजी को एक कंपनी में काम मिल गया था और अण्णा भाऊ भी बर्तन बेचने वाले के साथ काम पर लग गए थे। तब वे अपने मालिक के साथ बर्तनों का बक्सा लेकर दर-दर फिरते थे। उसके बाद कोयले की खदान में काम किया। इस तरह के काम कर अपनी दरिद्रता दूर करने का प्रयत्न करते रहे। कभी किसी के कुत्ते को संभालने का काम किया तो कभी किसी के बच्चे को। कुछ दिनों बाद बापू साठे के तमाशे में साड़ी पहनकर खड़े रहने का काम भी करना पड़ा। एक दिन मोरबाग की गीरणी (कंपनी) में पहली बार झाडू लगाने का काम मिल गया था। इस प्रकार त्रासदी की दुनिया में, अनुभव के विश्वविद्यालयों में अण्णा को बहुत कुछ सिखने को मिला। उनके अनुभव कभी अंधेरी कोठरी के, कभी गहरे, अत्यंत दुखद जख्म देकर जाने वाले थे। वही कुछ ऐसे अनुभव भी रहे, जो जख्मों पर मरहम भी लगाते थे। उनकी दयनीय अवस्था की बात की जाए तो ऐसा लगता है कि जीवन भर अण्णा के साथ उसकी गहरी दोस्ती ही है। समाज की इसी दयनीय अवस्था को अण्णा भाऊ साठे ने अपनी कला के माध्यम से दर्शाया है और फिर उसे शब्द बद्ध किया है। 

अण्णा भाऊ साठे ने शायरी, कहानी और उपन्यासों की रचना की है। उसमें अनुभव ही सत्य है, बाकी सब झूठ है। यही उनके जीवन का सूत्र रहा है। जो लेखक गंभीर प्रवृत्ति का होता है वह अपने लेखन में सत्य को दर्शाने का प्रयास करता है। जो अण्णा भाऊ साठे में देखने को मिलती है। उपेक्षित जीवन में भोगे हुए दुःख तथा क्रूर सत्य को शद्ब बद्ध करने वाले लेखक के विचार तेजस्वी होते हैं। उसे जिस सत्य का दर्शन होता है उसे अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। अण्णा ने बहुत दुःख झेले हैं, दरिद्रता के साथ तो उनका अटूट रिश्ता ही रहा है। फिर भी वह लिखते रहे। साहित्य जगत में ऐसे अनेक लेखक उदाहरण के रूप में मिलेंगे, जो अनुभव ना होते हुए भी कल्पना के आधार पर साहित्य में ऊँचाइयाँ हासिल कर चुके हैं। परंतु अण्णा भाऊ ने ऐसा नहीं किया। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने सिर्फ पेट भरने का काम नहीं किया। उन्होंने तथाकथित साहित्य में एक नए साहित्य को जन्म दिया। अण्णा अपनी मर्यादा जानते थे। वह कहते थे कि “मैंने जो जीवन जीया है, देखा है, जो मेरा अनुभव रहा है, वही मैं लिखता हूँ। मैं कल्पना के पंख लगाकर उड़ान भरने वालों में से नहीं हूँ। इस मामले में मैं अपने आप को मेंढक समझता हूँ।” यह उनकी साहित्य के प्रति प्रामाणिकता थी, इसे जाने बगैर उनकी आलोचना नहीं की जा सकती। उनका विषय भले ही अलग रहा हो, उसके आधार पर उन पर जो भी आरोप लगाए जाएंगे, वे सारे आरोप अर्थहीन माने जाने चाहिए। 

अण्णा भाऊ को जिस प्रकार अपने जीवन के प्रति आस्था थी, उसी प्रकार अपने लेखन के प्रति भी थी। इस संबंध में उन्हें रूस में एक संपादक ने प्रश्न किया था “आप किस प्रकार की कहानियाँ लिखते हैं?” अण्णा जवाब देते हैं– “अपने जीवन के प्रति मेरी बहुत निष्ठा है और उन लोगों के प्रति भी, जिनके बारे में मैं लिखता हूँ। उन्हें काफी पसंद भी करता हूँ। उनकी श्रम शक्ति भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वे जीवन जीते भी है और दूसरों को जीवन कैसे जीना है, यह सिखाते भी हैं। उनकी शक्ति के आधार पर ही यह दुनिया चलती है। उनकी मेहनत और यश प्राप्ति पर मेरा विश्वास है। उन्हें असफल बनाना मुझे पसंद नहीं है। ऐसा करने में मुझे डर लगता है। यह धरती शेषनाग के फन पर टिकी हुई नहीं है, बल्कि दलितों ने इसे अपनी हथेली पर झेल रखा है। ऐसा मैं मानता हूँ।” ऐसा जीवन जीने वाले लोगों को विफलता के नाम पर विद्रूप नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि विफलता उस धूल के समान होती है जो तलवार पर लगी रहती है, उसे झटकने से तलवार चमकने लगती है। 

अण्णा भाऊ ने अपने साहित्य के माध्यम से ऐसे पात्रों का निर्माण किया है, जो चैतन्य प्राप्त कर अमर हो गए हैं। अण्णा भाऊ के संबंध में यह कहना कि उन्होंने अस्पृश्य समाज में जन्म लिया है, इसलिए दलितों के दुःख, यातना और समस्याओं को न जानते हुए भी उनका चित्रण किया है, ऐसा कहना या मनगढ़ंत कहानियाँ रचना, इसका अर्थ उनके साहित्य के मर्म को ना पहचाना यही हो सकता है। यदि किसी लेखक को यह कहना ठीक होगा कि वह ब्राह्मण जाति में जन्म लेकर उनके जीवन की समस्याओं को न जानते हुए कुछ लिखता है, ऐसा कहना उचित होगा? क्या इस आधार पर उसकी कला को निरर्थक माना जा सकता है? 

अनुभूति को सहानुभूति की आवश्यकता होती है। हम जिनके बारे में लिखते हैं, उनके प्रति आत्मीयता होनी चाहिए, उनके अंतर्मन को जानने की क्षमता होनी चाहिए। यह सारे गुण अण्णा भाऊ साठे में थे। वे अपनी कहानी, उपन्यासों के पात्रों को अपना समझते हैं। उनके दुःख-दर्द को भी अपना ही समझते हैं। उनके पात्र बेबस तो हैं, परंतु जीने की चाह रखते हैं और अण्णा ऐसे लोगों के साथ रिश्ता बनाते हैं। इसीलिए अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाले, हँसते-हँसते दुःख का सामना करने वाले, जीवन का तत्व ज्ञान लोक भाषा में समझाने वाले, अकाल के कारण भूख से परेशान लोग, पाप और पुण्य की कल्पना को धिक्कारने वाले। ऐसे अनेक पात्र अण्णा की कहानी और उपन्यासों में देखने को मिलते हैं। उपेक्षित, अपमानित, सताएँ हुए, ठुकराएँ हुए और लाचार होते हुए भी जीवन जीने की प्रबल इच्छा रखने वाले लोग मानो अण्णा भाऊ को अपना समझकर आलिंगन दे रहे हों, क्योंकि उनकी वेदनाओं को शब्द बद्ध करने का सामर्थ्य उनकी लेखनी में है और इसका कारण यह है कि उनके दर्द की दास्ताँ ही कुछ अलग है। 

मसलन, ‘थडग्यातील हाडं’ नामक कहानी इसी तरह के दर्द की दास्ताँ को बयान करती है। “उस दिन तारणगाँव की चावड़ी के सामने वाले चौक में गाँव वालों का आना-जाना चल रहा था। उसका कारण यह था कि उस दिन थडगु बाबा के भंडारे का आयोजन किया गया था। गाँव भोज होने के नाते सभी जाति के लोग आकर, खाना खा कर चले जा रहे थे। महार, मांग तथा रामोशी जाति के लोगों की पगंत हमेशा की तरह अंत में ही बैठती थी, क्योंकि यह नियम यहाँ की धर्म व्यवस्था ने बनाया हुआ है! अंत की पगंत बैठने तक खीर खत्म हो जाती थी। ऐसे में महार और मांग जाति के युवक आपस में बात करते हुए यह सोचने लगते हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है। परंतु ऐसा सोचने से क्या होगा? राणोजी रामोशी जो हट्टा कट्टा था वह न जाने कितने सालों से यह देख रहा था। लेकिन वह कर भी क्या सकता था क्योंकि परिस्थिति ने उसे मजबूर बना दिया था। सवर्णों की पगंत उठने तक युवाओं को थडगूबाबा की कथा सुनाता हूँ, यह निश्चय उसने किया था। वह कहानी सुना रहा था। बहुत साल पहले तारणगाँव पर एक संकट मंडरा रहा था। मल्या धनगर के बंड्या ने यह धमकी दी थी कि यदि मेरे सात हजार रुपये नहीं दिए गए तो मैं पूरे गाँव को जलाकर राख कर दूँगा, जिससे गाँव के नामी लोग जैसे बजाबा पाटिल, गाँव के साहूकार, मारवाडी आदि की बोलती बंद हो चुकी थी। गाँव में एक सभा बुलाई गयी और उसमें यह निर्णय लिया गया कि बंड्या को उसका टैक्स दिया जाएगा। लेकिन रायनाक महार को यह मंजूर नहीं था। उसने यह कहा कि कर क्यों देंगे, युद्ध करेंगे। आने दो उसे। इससे लोगों में संशय की भावना उत्पन्न हो चुकी थी। अंत में यह तय किया गया और शपथ ली गयी कि युद्ध किया जाएगा। रायनाक महार की यह मल्या के साथ युद्ध करने की युक्ति आखिरकार काम आ गयी और मल्या के साथ युद्ध करके उसे पराजित किया। शर्त के मुताबिक महार, मांग और रामोशी जाति के लोगों ने जान की बाजी लगाते हुए गाँव के इज्जत के खातिर युद्ध किया और उसमें उन्हें यश प्राप्त हुआ। इसके बाद हर साल रायनाक के नाम से भंडारे का आयोजन किया जाने लगा। लेकिन आगे चलकर कुछ बेईमान लोगों ने रायनाक के थडग्या का नाम बदलकर उसकी जगह पर ‘थडगूबाबा का थडगा’ नाम से नामकरण किया। तभी से थडगूबाबा के भंडारे का आरंभ हुआ। इतने में ही गाँव के पाटील ने यह आवाज दी कि ‘खीर खत्म हो गयी है दाल-चावल खा लो, वो भी तो प्रसाद ही है।’ हर वर्ष यही होता था, इस बार किशा चीड़ जाता है क्योंकि वह रायनाक का वंशज था। उसकी ओर देखते हुए रामोशी कहता है कि– 

‘इस कब्र में जो हड्डियाँ हैं, वह तुम्हारे ही पूर्वजों की हैं, चले जाओ अपने-अपने घर और दूसरा भंडारा बनाकर खाओ, लेकिन इन मुर्दों के यहाँ का खाना मत खाना। यह देखो मैं चला। हमें नहीं चाहिए तुम्हारा प्रसाद।’ 

राणोजी के स्वाभिमान को देखते हुए सारे युवक वहाँ से चले जाते हैं।” 

अण्णा भाऊ इस कथा के माध्यम से उस यथार्थ बोध से परिचित करना चाहते हैं, जिसमें गाँव की लाज रखने के लिए मल्या से युद्ध कर अपने जान की बाजी लगाने वाले रायनाक के नाम की जगह पर किसी और का नाम लगाने में जो छल और मूर्खता की गयी थी, उसका पर्दाफाश किया है। इसके अलावा युद्ध में मल्या को पराजित करने वाले रायनाक के वंशजों को ही भंडारे की खीर न देना,  इस वैमनस्य को देखकर अण्णा व्यथित होते दिखाई देते हैं। इस प्रकार अनेक नायकों के साथ यहाँ की समाज व्यवस्था ने अन्याय किया है, उनका अपमान किया है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण अण्णा की अनेक कहानियों में देखने को मिलते हैं। 

‘निळू’ मांग भी ऐसा ही एक नायक है, जो साजुर गाँव के सज्जनों में शुमार है। परंतु गाँव के पाटिलों ने उसे गुनाहगार बना दिया है। भीम जी के खेत में रखवाली करने वाले निळू को फसाने के लिए चिमाजी पाटिल एक युक्ति अपनाता है, जिसमें रामा बड़ई मक्का चुराकर ले जाता है और इसका इल्जाम निळु पर लगाया जाता है। इसके कारण निळु को जेल जाकर हाजिरी देनी पड़ती है। इस प्रकार एक साधारण व्यक्ति को बे-वजह गुनहगार बनाया जाना और उसके बाद उसका जेल जाना। ऐसे में वह मन ही मन यह सोचने लगता है कि “मैंने गरीबी में अपने दिन गुजारे, उन लोगों को जोहार करता रहा, दूर बैठकर ही तम्बाकू खाता रहा। लेकिन गाँव वालों ने मेरी सादगी को अलग ही अर्थ में लिया है। मुझे निर्बल समझकर जेल भेज दिया है, अब मैं भी उन्हें मौत के घाट उतारे बगैर नहीं छोडूंगा।”

निळु जेल से छूट जाता है और डकैत बन जाता है। डकैत बनकर जिन लोगों ने उसे गुनाहगार बनाया था, उनसे बदला ले लेता है। इस बात का फायदा उठाते हुए कुछ डकैती चोरियाँ करते हैं, सरकारी खजाने लुटते हैं और इसका इल्जाम निळू पर लगाया जाता है। चारों ओर भय की स्थिति उत्पन्न हुई थी तथा पुलिस थाने में केस दर्ज की गयी थी। निळू को डकैत समझकर खोज की जा रही थी, अंत में वह पकड़ा भी गया। जब वह पकड़ा गया तब उसका अंतः मन यह कह रहा था कि “मैंने गुनाह किया ही नहीं, मैं तो ईमानदार हूँ, लेकिन राम्या बड़ई और चिम्या पाटिल, इन दोनों ने इस तरह के काम करने के लिए मुझे मजबूर किया, मुझे डकैत बनाया है, असली गुनाहगार तो वही लोग हैं।” 

लेकिन उसका कहना मानने वाला कौन था? निळू को मृत्यु दंड देने की सजा सुनाई गयी, तब वह हंसते हुए कह रहा था कि “सरकार मेरा नाम निळू मांग, साजुर गाँव में तम्बाकू माँग कर खाने वाले की कीमत बंदूक की गोली के बराबर कर दी, यही मेरा बड़प्पन है। मुझ जैसे निर्धन व्यक्ति को मृत्यु की सजा सुनाने के लिए मैं आपका आभारी हूँ, आपके सामने नतमस्तक हूँ।” 

निळू बंदूक की नोक के सामने खड़ा हुआ था। क्या कहा जाए, यही वह सोच रहा था। तब एक साहब ने पुछा कि तुम्हारी अंतिम इच्छा क्या है? तब वह सहज रूप से कहता है “साहब सरकारी खजाना लूटने वालों ने लूट लिया, लेकिन बंदूक की नोंक के सामने निळू को रखा गया है। चला दीजिए गोली।”

उसकी निडर बातों से साहब आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उसकी वह वीर वृत्ति, धैर्य और मृत्यु को स्वीकारने का साहस देखकर साहब ने उसकी सजा माफ कर दी। निळू फिर एक बार अपने गाँव साजूर आ गया तब सभी गांववाले दंग रह गए थे। 

अण्णा भाऊ साठे ने इस कहानी के माध्यम से सामाजिक सत्य को दिखाने का प्रयास किया है। इंसान बनकर जीवन जीने वाले दलितों के किस प्रकार डकैत या लुटेरा बनाया जाता है, इसका यथार्थ चित्रण किया है। कहानी का अंत तो इतना सार्थक है, जिसमें अण्णा भाऊ की विशिष्ट प्रतिभा साफ झलकती है– 

“अपने साजूर गाँव में आते ही निळू सर्वप्रथम कोयना नदी में जाकर कूदता है। वह बहुत देर तक तैरता है, और नदी को माँ समझकर कहता है– ‘माँ, यह निळ्या जिंदा है, यदि मर गया होता तो तेरा पानी भी नसीब ना होता।’ अब मैं सीधे तरह से रहूँगा और एक अच्छा इंसान बनकर जीवन जीऊंगा।”

(क्रमश: जारी)

(संपादन : नवल/अनिल, मराठी से अनुवाद : डॉ. सोनकांबळे पिराजी मनोहर)


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गंगाधर पानतावणे

गंगाधर विठोबा पानतावणे (28 जून 1937 - 27 मार्च 2018) मराठी भाषी साहित्यकार, खोजकर्ता, आंबेडकरवादी विचारक थे। वह पहले विश्व मराठी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष थे। उनके योगदानों के लिए 20 मार्च 2018 उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सन्मानित किया गया। उनकी प्रकाशित कृतियाें में शामिल हैं– ‘आंबेडकरी जाणिवांची आत्मप्रत्ययी कविता’, ‘साहित्य निर्मिती: चर्चा आणि चिकित्सा’, ‘साहित्य: प्रकृती आणि प्रवृत्ती’, ‘अर्थ आणि अन्वयार्थ’ (समीक्षा), ‘चैत्य दलित वैचारिक वाङ्मय’ (समीक्षा), ‘पत्रकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर’ आदि।

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