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पूर्वी यूपी : वैचारिक द्वंद्व ने दलित-बहुजन पार्टियों को डूबोया

‘कोई नेता दूसरी पार्टी से आ गया तो उसके साथ जाति के सारे मतदाता आ गये, अब ऐसा नहीं है। यह फॉर्मूला पिट चुका है। यदि आप कोई नॅरेटिव लेकर किसी पार्टी में आते हैं तो आपके पास उतना समय भी होना चाहिये कि आप उन बातों को अपने समुदाय को समझा सकें कि हां मैंने इस स्टैंड पर पार्टी छोड़ी है। … आरक्षण, जातीय जनगणना आदि मुद्दे प्रभावशाली होने के बावजूद जनता के बीच महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं बन सके।’ पढ़ें, पूर्वांचल के दो वरिष्ठ पत्रकारों मनोज कुमार सिंह व रामजी यादव का विश्लेषण

गत 10 मार्च, 2022 को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम के नतीजे आने के साथ ही एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) गठबंधन दो-तिहाई बहुमत से सत्ता में आ गई है। उत्तर प्रदेश की पूरी चुनावी प्रक्रिया को हमने उसके भौगोलिक भूभाग यानि पश्चिमांचल, मध्य यूपी, बुंदेलखंड, अवध और पूर्वांचल में बांटकर देखा समझा है। चुनाव नतीजों को भी हम इसी भौगोलिक खांचे में डालकर देखेंगे। इस रिपोर्ट में बात पूर्वांचल के नतीजों की। पूर्वांचल में दलित व अति पिछड़ी जातियों का प्रभाव ज़्यादा है, जिसमें नाई, बिंद, मल्लाह, राजभर, पाल, लोहार, चौहान, काची, लोध आदि प्रमुख हैं। पूर्वांचल यूपी के चुनावी नतीजे में एक बात निकलकर सामने आई है कि इन दलित और अति पिछड़ी जातियों में एकता नहीं स्थापित हो पाई और इनके मतों में स्पष्ट विभाजन दिखा। आखिर ऐसा क्यों हुआ?

बसपा से दूर हुईं गैर-जाटव जातियां

पूर्वांचल की राजनीति को बहुत नजदीक से देखने वाले गोरखपुर न्यूजलाइन के संपादक मनोज कुमार सिंह कहते हैं – “पूर्वांचल के नतीजे बंटे हुये हैं तो इसके कई कारण हैं। वर्ष 2014 और वर्ष 2017 में जो मतदाता भाजपा में आये उनका, भाजपा ने हिंदू वोट बैंक के रूप में राजनीतिकरण किया है। पिछले तीन चुनावों में भाजपा का मत प्रतिशत 37-39 प्रतिशत बना हुआ है। और अब ये भाजपा का एक परमानेंट वोटबैंक जैसा लग रहा है। इसमें गिरावट नहीं आ रही है क्योंकि भाजपा ने उन्हें अपने सांप्रदायिक विचारधारा के अंदर ढाल लिया है। वहीं दूसरे दलों ने मतदाताओं के राजनीतिकरण का काम छोड़ दिया है। इस वजह से उनके मतों में कमी हो रही है। बसपा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस चुनाव में बसपा को 13 प्रतिशत वोट मिलने का मतलब है कि उसके साथ अब सिर्फ़ जाटव ही बचे हैं, क्योंकि जाटवों का आंबेडकरवादी विचारधारा के तहत राजनीतिकरण हुआ है। यही कारण है कि इस चुनाव में भी तमाम उतार चढ़ाव के बावजूद जाटव मतदाता बसपा के साथ रहा। जबकि अन्य दलित जातियां बसपा छोड़ गईं। इस चुनाव में ज़्यादातर दलित जातियां भाजपा के साथ गई हैं।”

मनोज कुमार सिंह, संपादक, गोरखपुर न्यूजलाइन

अति पिछड़ों में सपा ने बढ़ाई पैठ

समाजवादी पार्टी (सपा) के बढ़े हुये वोट बैंक को रेखांकित करते हुये मनोज कुमार सिंह कहते हैं कि “समाजवादी पार्टी का वोटबैंक जो बढ़ा है, वह अति पिछड़ी जातियों के वजह से बढ़ा है। अति पिछड़े समुदाय की पार्टी सुभासपा के ओम प्रकाश राजभर सपा के साथ आये तो उन्होंने सपा के साथ काम किया। राजभर का वोट आधार बलिया, ग़ाज़ीपुर, मऊ, आजमगढ़, अंबेडकरनगर, जौनपुर में सपा के साथ जुड़ा, जिसके चलते इन जिलों में सपा गठबंधन का प्रदर्शन लाजवाब रहा है। आजमगढ़, ग़ाज़ीपुर में पूरी सीटें सपा गठबंधन ने जीती। वहीं सपा ने पूर्वांचल और अवध में कुर्मी मतदाताओं को जोड़ने की कोशिश की। और इसमें आंसिक कामयाबी भी सपा को मिली। अपना दल (कमेरावादी) और कुछ बसपा से आये कुर्मी नेताओं के जरिये सपा कुर्मी मतदाताओं को भी चुनिंदा सीटों पर अपने साथ जोड़ने में कामयाब हुयी। आंबेडकरनगर में लालजी वर्मा, बस्ती में बड़े कुर्मी नेता राम प्रसाद चौधरी की वजह से सपा 5 में से 4 सीटें जीती। सिराथू में पल्लवी पटेल ने केशव प्रसाद मौर्य को हराया। तो कुछ जातियां जो पहले सपा के साथ नहीं थीं, इस चुनाव में उन्होंने पूर्वांचल में प्रदर्शन किया है।” 

जो पिछड़ी जातियां सपा से नहीं जुड़ीं, उनका उल्लेख करते हुये मनोज कुमार सिंह बताते हैं कि “निषाद और तमाम मछुआरा समुदाय के मतदाता सपा के साथ नहीं आये। सपा ने कई निषाद नेताओं को टिकट भी दिया था, लेकिन निषाद पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन होने के चलते निषाद मतदाता भाजपा के साथ गये। इसके अलावा सपा मौर्य और कुशवाहा मतों में भी विभाजन नहीं कर सकी, जिसके चलते चौहान, प्रजापति, विश्वकर्मा जैसी तमाम जातियां भाजपा के साथ रहीं। 

स्वामी प्रसाद मौर्य और अखिलेश यादव की तस्वीर

मनोज कुमार सिंह चुनाव से ठीक पहले बसपा और भाजपा छोड़कर सपा में आने वाले दलित-पिछड़ी जाति के नेताओं की भूमिका पर कहते हैं– “कोई नेता दूसरी पार्टी से आ गया तो उसके साथ जाति के सारे मतदाता आ गये, अब ऐसा नहीं है। यह फॉर्मूला पिट चुका है। यदि आप कोई नॅरेटिव लेकर किसी पार्टी में आते हैं तो आपके पास उतना समय भी होना चाहिये कि आप उन बातों को अपने समुदाय को समझा सकें कि हां मैंने इस स्टैंड पर पार्टी छोड़ी है और मतदाताओं को भी उनके साथ आना चाहिये। लेकिन चुनाव के ठीक पहले पार्टी छोड़कर लोग आये। लेकिन इंद्रजीत सरोज और स्वामी प्रसाद मौर्या, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी अपने साथ अपने समुदाय का वोट नहीं ला सके। आरक्षण, जातीय जनगणना आदि मुद्दे प्रभावशाली होने के बावजूद जनता के बीच महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं बन सके। अगर ये लोग थोड़ा और पहले सपा में आते, थोड़ा और पहले गठबंधन बनता तो यह लोग अपनी समुदाय के मतदाताओं में इन बातों को ज़्यादा अच्छे से ले जा पाते और परिणाम ज़्यादा असरदार होता।”   

मनोज सिंह कहते हैं कि “इसके विपरीत भाजपा अपनी मजबूत मशीनरी के बूते गैर-जाटव दलितों और पिछड़ी जातियों में राशन और आवास योजनाओं को ले गई। उन्हें नमक के नाम पर इमोशनल किया जबकि राशन योजना के उलट महंगाई को सपा उतना बड़ा मुद्दा नहीं बना पाई। सरकार चार पैसे देकर 10 पैसे जनता के जेब से निकाल रही है, यह बात भी सपा मतदाताओं को नहीं समझा पाई।”  

21-22 प्रतिशत बसपा का वोटबैंक बना रहता तो सपा को फायदा होता

स्थानीय स्तर पर लोगों का कहना है कि यदि बसपा खारिज नहीं होती, उसका पिछला वोट शेयर बना रहता तो भाजपा यह चुनाव हार जाती। और इसका फायदा सपा को होता। पूर्वांचल में सपा का प्रदर्शन उतना भी बुरा नहीं है। 50 सीटों पर सपा गठबंधन प्रत्याशी के हार का फासला बेहद मामूली है। यदि इन सीटों पर मामला त्रिकोणीय होता और बसपा लड़ाई में होती, तो ऐसी 50 सीटें भाजपा हार जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पूरे चुनाव के दौरान बसपा की निष्क्रियता एक मुद्दा बना रहा। बसपा लड़ना नहीं चाहती थी। बैकडोर से भाजपा को सपोर्ट कर रही है। लोगों में यह धारणा भी बनी कि यदि बसपा जीत भी गई तो भाजपा को सपोर्ट कर देगी। ऐसी चर्चाओं ने बसपा मतदाताओं को कन्फ्यूज किया और वो भाजपा की ओर चले गये। इसने बसपा को जितनी क्षति पहुंचाई, उतना ही भाजपा को फायदा हुआ। यह 10 प्रतिशत वोट भाजपा में नहीं जुड़ते तो इनका फायदा सपा को होता।  

वहीं ‘गांव के लोग’ पत्रिका के संपादक रामजी यादव कहते हैं कि “सारा दोष दलित-पिछड़ी जाति के मतदाताओं पर ही मढ़ देना ठीक नहीं है। मतदाताओं भी तो विश्वास होना चाहिये कि वह आप पर क्यों भरोसा करे। जब तक अखिलेश यादव का वैचारिक द्वंद्व खत्म नहीं होगा, यही कहानी दोहराई जाती रहेगी। द्वंद्व खत्म होगा तो उन्हें ग्रासरूट पर जाने की ज़रूरत महसूस होगी। अवधारणात्मक रूप से आप चीजों को तय नहीं कर सकते। इसके लिये आपको तथ्य होने चाहिये कि वो जो अलग-अलग मुद्दे आप लेना चाहते हैं, वह कहां कहां काम कर रहे हैं। स्थानीयता मायने रखती हैं।”

दलित-बहुजनों की पार्टी का होने दंभ भरने वालों की कमियों को रेखाकिंत करते हुये रामजी यादव कहते हैं कि “इन्होंने एक भी चुनावी नारे नहीं गढ़े, जिनमें फासीवाद के ख़िलाफ़ समाजवाद और दलित-बहुजनों की सामूहिक एकता व संघर्ष ध्वनित होती। ‘जय जय अखिलेश’ का फैनक्लब बना दिया। अखिलेश आ रहे हैं के बजाय यदि समाजवाद का नारा देते तो जनता में गूंजते। लेकिन ये तो आत्मकेंद्रित हो गये। विचारधारा और दलित-बहुजनों के हित हाशिये पर डाल दिये गये। वैचारिक द्वंद्व का साफ होना बहुत ज़रूरी है। सबको खुश करने के लिये प्रतीकात्मक होते जाना शुरु से ही ख़िलाफ़ चला गया। रही सही कसर बुर्जुआ मीडिया ने उनकी छवि गढ़ी गुंडे की गढ़कर पूरी कर दी, जिससे अन्य दलित-पिछड़ी जातियों ने बड़े गुंडे की ओर जाना सही समझा।”

रामजी यादव, संपादक, गांव के लोग पत्रिका, वाराणसी

रामजी यादव आगे कहते हैं कि “भाजपा ने पूरे चुनाव में ढिंढोरा पीटा कि उन्होंने 15 करोड़ लाभार्थी वर्ग के लोगों को अनाज दिया है। यह भयावह सत्य है। यानि आज 15 करोड़ लोग देश में अनाज नहीं ख़रीदकर खा सकते हैं। इसे उस रूप में विपक्षी दलों ने नहीं उठाया। खाद्य सुरक्षा के तहत दे रहे तब भी ऐसे लोगों को काम छीन लिया गया। उनके पास खाने को नहीं हैं, सरकार ने उन्हें हाथ फैलाने के लिये विवश करके लाभार्थी बना दिया है। ये मुद्दा इसका काउंटर नहीं कर सकी दलित-बहुजनों की पार्टियां।” 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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