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होलिका दहन के प्रतिरोध की परंपरा निभाती दलित-बहुजन महिलाएं

पूर्वी उत्तर प्रदेश में होलिका दहन के बाद वहां दलित-बहुजन महिलाएं होलई जोड़वाने की परंपरा करती हैं। इसके तहत वे होलिका दहन की राख, जिसे होलिका की चिता कहती हैं, से आग लेकर आती हैं तथा उसे साल भर तक जिंदा रखने का प्रयास करती हैं। ब्राह्मण वर्ग के लोग ऐसा नहीं करते। इस परंपरा के बारे में बता रहे हैं सुशील मानव

फ़ाल्गुन की पूर्णिमा। होलिका दहन की मुकर्रर तिथि की शाम एक होलियारों की टोली मेरे घर होलिका में डालने के लिये उपले (गोइठा) मांगने आई। ‘नहीं दूंगा’ शब्दों के साथ मैंने साफ मना कर दिया। टोली के अगुआ ने कहा क्यों नहीं देंगे आप। प्रत्युत्तर में मैंने कहा क्योंकि मैं होलिका को जिंदा जलाकर मारने जैसे नीच कृत्य की पुनरावृत्ति में शामिल नहीं होना चाहता हूं। मैं इससे इन्कार करता हूं। इस पर उन्होंने कहा आप ब्राह्मण होकर धर्म कर्म के काम में भागीदारी से इन्कार करेंगे तो समाज का क्या होगा। और मुझे दृढ़ जान वो लोग आगे बढ़ गये। मजे की बात यह कि मेरा घर कुर्मी टोले में है। गांव में सामुदायिक मिलन केंद्र में एक होलिका पहले से जलती आई है, लेकिन विगत कुछ वर्षों में कुर्मी टोले ने अलग होलिका जलाने की रवायत शुरु की है। दो तीन साल पहले जाटव टोले ने भी अपनी अलग होलिका दहन शुरु की। मैं बता दूं कि मेरे गंव का नाम पाली है और ये इलाहाबाद जिले की फूलपुर तहसील में आता है।

गांव के ही राम सजीवन जाटव बिरादरी के हैं। देर रात मेरे घऱ होली मिलने आये तो कहने लगे अबकि बार गांव से कोई मेरे यहां होलिका के लिये गोइठा लेने नहीं गया। मैंने कहा यह तो अच्छी बात है कि आप होलिका की हत्या में सहभागी बनने से बच गये। इस पर राम सजीवन कहने लगे, “भइया आपौ ग़ज़ब कहते हैं। जो परंपरा चली आ रही है वो ग़लत थोड़ी ही है। लेकिन हां अब गैस चूल्हा के चलन के बाद अधिकांश लोगों ने गोइठा बनाना और जानवर पालना छोड़ दिया है। पेड़ और रूख भी अब नहीं बचे हैं। कुछ दिन में होलिका दहन खुद-ब-खुद खत्म हो जायेगा।” 

होली की सुबह खेत की ओर निकला तो गांव की ही उर्मिला देवी होलिका जुड़वाती दिखी। मैंने उनसे पूछा कि आप होलिका क्यों जुड़वा रही हैं। उन्होंने दो टूक कहा, “मायके में मां, चाची, दादी, आजी और ससुराल में सास को होलई जुड़वाते देखा है। पंरपरा है तो निभा रही हूँ।” मैंने उनसे पूछा क्या परंपरा के पीछे का कारण नहीं जानतीं आप? तो उन्होंने कहा– “नहीं।” मैंने उनसे पूछा कि क्या आपने कभी किसी पुरुष को होलई जुड़वाते देखा है अपने मायके या ससुराल में तो उन्होंने अचरज़ से भरकर कहा– “नहीं”। फिर मैंने उनसे कहा कि आपके पति ससुर और बाक़ी पुरुष बिरादरी मिलकर होलई जलाती हैं और आप, आपकी मां, आजी, और सास समेत तमाम स्त्रियां होलई जुड़वाती हैं। पुरुष और स्त्री के कृत्य में आखिर ये विरोधाभास क्यों? 

मेरे इस सवाल पर उर्मिला देवी को कोई जवाब नहीं सूझता। वो कहती हैं, “जिसका जो काम है वो करता है। बचपन से पुरुषों द्वारा होलई जलाते और स्त्रियों द्वारा जुड़वाते देखती आई हूं, मुझे इससे ज़्यादा कभी कुछ नहीं सूझा-बूझा।”   

ये तो रही बात ग्रामीण परंपरा की। शहरी परंपरा में स्त्रियां होली की सुबह होलई की पूजा करती हैं। उन्हें जल अक्षत के साथ पूड़ी और बताशा आदि चढ़ाती हैं। उनसे अपने और अपने परिवार के लिये मंगलकामना करती हैं। मैंने जब शिवकुटी (इलाहाबाद शहर) की एक महिला से पूछा कि पुरुष लोग होलिका को राक्षसी बताकर जलाते हैं और आप स्त्रियां होलई माई कहकर उन्हें पूजती हो, उनसे अपने परिवार के लिये मंगलकामना करती हो, आखिर ये भेद क्यों? इस सवाल पर वो मौन धारण कर लेती हैं। कहती हैं, “मुझे ज़्यादा पता नहीं।” जब मैं कहता हूँ कि स्त्रियां दरअसल पुरुषों द्वारा होलिका को जिंदा जलाकर मार देने के प्रतिकार में होलई की पूजा करती हैं, उन्हें जुड़वाती हैं। तो मेरे इस तर्क का विरोध करते हुये पूनम यादव कहती हैं – “नहीं होलिका को किसी ने नहीं मारा था। वो तो खुद ही अपने भतीजे प्रह्लाद को जान मारने के लिये उसे लेकर आग में बैठी थी।” जब मैंने दलील दी कि कोई खुद से आग में जिंदा जलने के लिये बैठता है क्या। 

होलिका दहन स्थल से राख ले जाती एक दलित-बहुजन महिला

इस पर पूनम यादव कहती हैं, “होलिका को ब्रह्मा ने एक चादर दिया था, जो आग में जलने से बचाता था।” मैंने उनसे कहा कि ये तो होलिका को जलाने वालों ने हमें और आपको बताया है। जलने वाले ने नहीं बताया। हर अपराधी खुद के बचाव में एक कहानी गढ़ता है। सो उन लोगों ने भी गढ़ा कि होलिका खुद ही आग में जा बैठी और जलकर राख हो गई। 

बहरहाल, इस तरह की परंपरायें ब्राह्मणवादी झूठ, पाखंड और फर्ज़ीवाड़े को ध्वस्त करती चलती हैं। भले ही स्त्रियों को इस बात का बोध न हो कि वो सामंती प्रथा और पितृसत्ता का प्रतिरोध रच रही हैं। होलई जुड़वाने की रीति और परंपरा आज की स्त्रियों की होलिका से अपनत्व का संबंध जोड़ती हैं। 

ब्राह्मण परंपरा में भी जहां किसी परिजन की मौत होने के बाद उसके अंतिम संस्कार के रूप में शवदाह की रीति और परंपरा है। उनके यहां भी मृतक के शव को जलाने के बाद उसे जुड़वाने का रिवाज है। गंगा या तमाम नदियों के किनारे घाटों पर शवदाह के बाद मृतक के परिजन नदी में खड़े होकर जहां शव जलाया गया होता हैं, वहां पानी उलीचकर या फिर घड़े और बाल्टी से पानी भर भरकर लाकर जुड़वाते हैं। और जुड़ाने के बाद ही जलपान करके घर वापिस लौटते हैं। 

होलई की आग साल भर जिंदा रखने की परंपरा

होलई से आग लेकर घर जाती सीता देवी पटेल बताती हैं कि जब तक उनकी सास जिंदा थी वो होलई से आग निकालकर घर लाती थी और बोरसी में डाल देती थी। “वो आग साल भर ज़िंदा रखती थी। उसी आग से चूल्हा जलाया जाता था। जब तक मेरी सास ज़िंदा थी मेरे घर में कभी दियासलाई नहीं आया। कभी आग बुझ जाती थी तो कहीं किसी और के घर से आग मांगकर ले आती थी।” एडवोकेट राम कृपाल यादव भी बताते हैं कि – “हां, हमारी यादव बिरादरी में भी पहले स्त्रियां होलई से गोइठा में आग ले आती थी। लेकिन ये बहुत मुश्किल काम था। इसे मन्नत की तरह निभाना पड़ता था। साल भर उस आग को जियाये रखना होता था। बहुत लोगों की आग महीने दो महीने में ही बुझ जाती थी तो धीरे-धीरे करके लोगों ने होलई से आग लाना छोड़ दिया।” आगे राम कृपाल यादव बताते हैं कि, “पहले हमारे घरों की स्त्रियां जल के साथ अक्षत फूल बतासा, जौ आदि ले जाकर पूजा भी करती थी।” 

तर्कपूर्ण तौर पर देखें तो होलई एक तरह से होलिका की चिता ही है। ये अपने आप में एक इंतकाम लेने तक चिता की आग जलाने रखने की प्रतिज्ञा जैसा लगता है। वहीं ब्राह्मण समुदाय में चिता की आग लाना अपशकुन माना जाता है। यही कारण है कि ब्राह्मण समुदाय के लोग होलई से आग अपने घर नहीं ले जाते। जबकि दलित बहुजन समाज की स्त्रियां होलई से आग ले जाती और साल भर जिलाकर रखती। हालांकि दलित बहुजन पुरुष होलिका दहन कर उसे तापते हैं। और होलई में आलू, शकरकंद और होरहा भूनकर खाते हैं। होलई की राख एक दूजे को लगाकर ‘होली है’ और ‘सारा रारा’ चिल्लाते हैं। जबकि रात में स्त्रियां होलई के पास नहीं जाती, वो सुबह जाती हैं। लोटा में जल लिये होलई जुड़वाती हैं और फिर गोइंठा में होलई की आग लिये वापिस अपने घरों में जाती हैं। और मिट्टी का चूल्हा पोतने के लिये रखी पोतनहरी का पिरोर पुरुषों पर डालकर होली की शुरुआत करती हैं। 

गौरतलब है कि जब किसी घर में किसी की मौत होती है तो स्त्रियों द्वारा पोतनहरी फोड़ने का रिवाज़ है। होलई जुड़वाने और होलई से आग ले आने का रिवाज इल्हाबाद के अलावा इसके आस-पास के जिलों जौनपुर, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, मिर्जापुर, भदोही, वाराणसी, देवरिया, बस्ती, गोरखपुर आदि में भी ख़ूब प्रचलित है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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