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डॉ. लोहिया, आजाद भारत में ओबीसी के लिए साठ फीसद हिस्सेदारी मांगनेवाले पहले महानायक

डॉ. लोहिया समानता में विश्वास करते थे। उनके लिए जाति के खिलाफ लड़ाई आर्थिक व राजनीतिक लड़ाई से अलग नहीं थी। वे महिलाओं के अधिकारों के भी बड़े हिमायती थे। उनका मानना था कि अन्याय के खिलाफ हर मोर्चे पर लड़ाई होनी चाहिए। बता रहे हैं अभय कुमार

डॉ. राम मनोहर लोहिया (23 मार्च, 1910 – 12 अक्टूबर, 1967) पर विशेष

आज 23 मार्च प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया की जयंती है। यह देश की जनता के लिए एक बहुत बड़ा नुकसान था कि उनका निधन महज़ 57 साल की उम्र में ही हो गई। उन्होंने आजीवन वंचित समाज की समुचित हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ी। वे धर्म निरपेक्ष भारत के हिमायती थे। इस लिहाज से देखें तो जिस अत्याचार के खिलाफ डॉ. लोहिया जीवन भर लड़े, वह आज और भी ज्यादा बढ़ गया है। जहां आज असमानता और नफरत बढ़ रही है, वहीं सरकार आए दिन आम लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला कर रही है। आज जनता परेशान और बेचैन हैं। फिर इन परिस्थितियों में डॉ. राम मनोहर लोहिया के जीवन और उनके विचारों को याद करना बे-महल नहीं है।

उनके जीवनी-लेखक और स्वतंत्रता सेनानी इंदुमति केलकर के अनुसार, डॉ. लोहिया का जन्म 23 मार्च 2010 को उत्तरप्रदेश के फैजाबाद में हुआ था। उनके पिता का नाम हीरालाल और माता का नाम चंद्री था। परिवार का मुख्य व्यवसाय लोहे का कारोबार था। उनका परिवार कांग्रेस समर्थक था। 1930 के दशक में शुरू हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उनके पिता को जेल में डाल दिया गया था।

डॉ. लोहिया की शिक्षा काशी, कलकत्ता और जर्मनी में हुई थी। उन्होंने जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उनका शोध विषय ‘नमक क़ानून और सत्याग्रह’ था। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने भारत की आजादी के लिए छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने 1933 साल में अपनी पीएचडी पूरी की और फिर वह भारत लौट आये। जब वह जर्मनी में थे तभी ही उन्होंने अपना जीवन राजनीति के लिए समर्पित करने का फैसला किया था। उन्हीं दिनों वह कलकत्ता में चल रही छात्र राजनीति में शामिल हो गए। अगले वर्ष उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसी वर्ष वह कांग्रेस की अखिल भारतीय कार्यसमिति के सदस्य बने। उसके बाद के दिनों में, वह छात्र और श्रमिक आंदोलनों से जुड़े रहे। वह कांग्रेस सोशलिस्ट की पत्रिका के भी संपादक थे। 

साथ ही वे कांग्रेस में, जवाहरलाल नेहरू और गांधी के करीबी थे। लेकिन आजादी के बाद वे गांधी के विचारों से जुड़े रहे, लेकिन नेहरू और कांग्रेस पार्टी के एक बड़े आलोचक बन गए। न केवल कांग्रेस के खिलाफ कमजोर विपक्षी दलों को एक साथ लाने की उन्होंने कोशिश की, बल्कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए भी रणनीति बनाई। यह भी बात याद रखने की ज़रूरत है कि जब वह संसद में थे और कांग्रेस की सरकार ग़लत काम करती थी तो वह उसकी सार्वजनिक आलोचना करते थे। उसी तरह वे विपक्षी सोशलिस्ट पार्टी की राज्य सरकारों की ग़लत नीतियों की भी खुले आम निंदा करते थे। डॉ. लोहिया के नज़दीक सत्ता से ज़्यादा अहम उसूल और लोगों का कल्याण था।

लिखते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया की तस्वीर

यहां यह बताना जरूरी है कि कई बार सांप्रदायिक शक्तियां डॉ. लोहिया का इस्तेमाल कांग्रेस के खिलाफ करती हैं। भगवा ताक़तें खुद को सही ठहराने और अपने काले कामों को सफेद करने के लिए लोहिया को कट्टर कांग्रेस विरोधी कहती हैं ताकि लोहिया की विरासत का भगवाकरण कर दिया जाए। लेकिन सच्चाई यह है कि लोहिया के लिए सांप्रदायिक ताकतों और हिंदू-मुसलमानों को लड़ाने वालों के लिए कोई जगह नहीं थी। वह धर्म के नाम पर राजनीति और अंधविश्वास के कट्टर विरोधी थे। लोहिया तार्किक सोच के व्यक्ति थे। वे दलील और वैज्ञानिक सोच में विश्वास करते थे, अंध भक्ति में नहीं। वह किसी भी ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। यहां तक कि 12 अक्टूबर, 1967 को जब उनकी मृत्यु हुई तो उनका शरीर बिना किसी हिंदू संस्कार के बिजली की आग की मदद से भस्म कर दिया गया। 

जहां तक उनकी कांग्रेस विरोधी भावना का सवाल है, तो इसका मतलब यह नहीं था कि वे भगवा की राजनीति करनेवाली पार्टी जनसंघ से प्यार करते थे। दरअसल, कांग्रेस सरकार द्वारा लगातार की जा रही गलतियों से उन्हें बड़ी मायूसी थी, क्योंकि आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस नेताओं द्वारा किए गए वादों को पूरा नहीं किया जा रहा था। लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस के नेताओं का संपर्क लोगों से टूट गया था और वे अक्सर देश के कल्याण को पूंजीपतियों और ऊंची जातियों के हित में बनाई गई पॉलिसी को समझते थे। इस हालत में लोहियाजी ने वही किया जो कोई भी क्रांतिकारी करता। उन्होंने ताकतवर और शासकवर्ग़ के सामने सच बोला और उन्हें सत्ता से बेदखल करने के लिए सप्तक्रांति आंदोलन शुरू किया। 

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दरअसल डॉ. लोहिया समानता में विश्वास करते थे। उनके लिए जाति के खिलाफ लड़ाई आर्थिक व राजनीतिक लड़ाई से अलग नहीं थी। वे महिलाओं के अधिकारों के भी बड़े हिमायती थे। उनका मानना था कि अन्याय के खिलाफ हर मोर्चे पर लड़ाई होनी चाहिए। लोहिया चाहते थे कि सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के लिए काम करे और असमानता को खत्म करे। वे चाहते थे कि अमीर और गरीब के बीच की असमानता को समाप्त किया जाए। वह रंग और नस्ल के आधार पर भेदभाव से भी दुखी थे। वह अच्छी तरह जानते थे कि रंगभेद पर आधारित समाज में अश्वेत व्यक्ति को हीन माना जाता है। इसलिए उन्होंने रंग के आधार पर होने वाले भेदभाव के खिलाफ भी आवाज उठाई। डॉ. लोहिया ने अंग्रेज़ी भाषा को सरकारी भाषा बनाने का विरोध किया था जबकि वह बहुत अच्छी अंग्रेज़ी जानते थे और न ही वह किसी के अंग्रेज़ी पढ़ने के ख़िलाफ़ थे। मगर वह चाहते थे कि सरकारी कामकाज आमलोगों की भाषा में हो। महिलाओं को अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार मिले, इसके लिए भी उन्होंने सवाल उठाये। वह दहेज के भी कट्टर विरोधी थे। उनके लिए महाभारत में द्रौपदी आदर्श महिला थी, क्योंकि वह एक निडर, बहादुर और ज्ञानी महिला थी। इसी तरह, दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में शासन करने वाली रजिया सुल्ताना डॉ. लोहिया की दृष्टि में एक पसंदीदा व्यक्तित्व थीं। डॉ. लोहिया की अंतरराष्ट्रीय मामलों में भी गहरी रुचि थी और उन्होंने विश्व शांति और विश्व सरकार के विचार को बढ़ावा देने के लिए दुनिया के विभिन्न हिस्सों की यात्रा की। वे साम्राज्यवादी देशों के कट्टर विरोधी थी और सोशलिज़म के आधार पर कमजोर और गरीब मुल्कों को एक मंच पर लाना चाहते थे। उनके अनुसार, राष्ट्र-राज्य की संकीर्णता से मुक्त हुए बिना मानवता समृद्ध नहीं होगी। इसलिए वह विश्व शांति, आपसी सहयोग और ‘वर्ल्ड गवर्न्मेंट’ के समर्थक थे।

वहींआज के दौर में दुष्प्रचार किया जा रहा है कि डॉ. लोहिया हिंदुत्व की राजनीति करनेवाले दलों के समर्थक रहे। जबकि यह सर्वविदित है कि हिंदुत्व की राजनीति करनेवाली ये पार्टियां समाज के भीतर जाति को बनाए रखना चाहती हैं और उच्च जाति के वर्चस्व को बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। इन पार्टियों को पूंजीपतियों से कोई समस्या नहीं है, वहीं डॉ. लोहिया जीवन भर पूंजीपतियों के खिलाफ लड़ते रहे हैं। डॉ. लोहिया के पास न घर था और न ही बैंक खाता। खासकर उन्हीं की वजह से पिछड़े समाज को उनका हक मिला, जिसे तत्कालीन कांग्रेस सरकार भी देने को तैयार नहीं थी। उन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए 60 फीसदी आरक्षण की बात की और नारा दिया था– “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ”। इस तरह आजाद भारत में उन्होंने ओबीसी की राजनीति की मजबूत बुनियाद रखी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और तानाशाही पुलिस नीति के खिलाफ डॉ. लोहिया मरते दम तक सड़कों पर लड़ते रहे और जेल जाते रहे। डॉ. लोहिया जिन बातों के खिलाफ थे, आज वही हो रहा है। आज देश को डॉ. लोहिया की प्रतिरोध की विरासत का बेसब्री से इंतजार है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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