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जब कांशीराम ने ठुकरा दिया था राष्ट्रपति पद का ऑफर

ऐसे समय में जब बसपा का जनाधार न्यून होता जा रहा है, कांशीराम की नीतियों के बारे में सोचना आवश्यक हो जाता है। कांशीराम द्वारा ‘इंडिया न्यूज़’ के पत्रकार रजत शर्मा को दिए एक इंटरव्यू की याद आती है। पढ़ें, रवि संभरवाल का यह आलेख

हाल ही में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जिसकी स्थापना मान्यवर कांशीराम ने की थी, को लेकर तमाम तरह बातें चल रही हैं। बहुजनों के बीचयही चर्चा है कि इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद भी सत्ता में उनकी भागीदारी नगण्य क्यों हो गई है। इसलिए इन दिनों दो कारणों से कांशीराम को याद किया जा रहा है। पहला तो यह कि 15 मार्च को उनकी जयंती मनाई जाती है और दूसरा कारण बसपा की दुर्गति। इसे देखते हुए कांशीराम जैसे दूरदर्शी व सूझबूझ वाले राजनीतिक व्यक्तित्व की कमी महसूस की जा रही है।

कार्यकर्तागण इसके लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने बयान जारी कर हार का ठीकरा पूरी तरह मुस्लिम समुदाय पर मढ दिया है। हालांकि यह अलग बात है कि यूपी चुनाव से पहले 80 से अधिक महासम्मेलन ब्राह्मण समाज को जोड़ने के लिए किए गए थे। 

ऐसे थे कांशीराम

ऐसे समय में जब बसपा का जनाधार न्यून होता जा रहा है, कांशीराम की नीतियों के बारे में सोचना आवश्यक हो जाता है। कांशीराम द्वारा ‘इंडिया न्यूज़’ के पत्रकार रजत शर्मा को दिए एक इंटरव्यू की याद आती है। रजत शर्मा सवाल पूछते हैं कि 4 साल के इतिहास में मुलायम सिंह के साथ समझौता, बीजेपी के साथ समझौता, नरसिम्हा राव, अकाली दल, शाही इमाम आदि के साथ हुए समझौते दो साल में हुए और टूट गए। अगला समझौता किसके साथ होगा? और किसके साथ तोडेंगे जरा बता दीजिए? जवाब में कांशीराम कहते हैं कि अभी आप बताइए कौन-कौन बचा है? अगर कोई बचा है, उनके साथ हो जाएगा अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए।इसके बाद रजत शर्मा कहते हैं कि अब देवगौड़ा और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग बचे हैं।

 जवाब में कांशीराम कहते हैं– “नहीं बचे हैं, इन्हें हम रिजेक्ट कर चुके हैं।”

कांशीराम ने बहुजनों को सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने के लिए कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया। वो हमेशा कहते थे कि हम अवसरवादी हैं, क्योंकि हमें अवसर ही नहीं दिए गए। कांग्रेस के साथ गठबंधन कर उसे कमजोर किया। इसी तरह भाजपा के साथ गठबंधन कर उसे तोड़ दिया। वह किसी भी कीमत पर दलितों को देश का हुक्मरान बनाना चाहते थे।

कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006)

इसके लिए कांशीराम ने कुर्बानियां दी। चौबीस पन्नों का पत्र लिखकर अपने घर भेजा था जिसमें उन्होंने कहा था कि अब वह कभी घर वापिस नहीं आएंगे, क्योंकि आज से बहुजन समाज ही उनका घर है। इस दौरान उन्होंने दो प्रतिज्ञाएं भी की। पहली यह कि वह कभी शादी नहीं करेंगे और दूसरी यह कि वह कभी प्रॉपर्टी नहीं बनाएंगे। इसके बाद कांशीराम कभी वापिस घर नहीं गए। अपनी बहन की शादी और पिता के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हुए। उन्होंने बहुजन समाज को देश का हुक्मरान बनाने का प्रण कर लिया था।

‘चमचा युग’ लिख समाज को झकझोरा

कांशीराम ने 1982 में चर्चित किताब ‘चमचा युग’ लिखी। उनकी सूझबूझ और सोशल इंजीनियरिंग इतनी कमाल की थी कि उन्होंने समाज को जगाने के लिए ‘बामसेफ’ संगठन खड़ा किया था। खुद का मीडिया तैयार करने में लगे हुए थे और साथ ही उनका जोर कैडर को मजबूत बनाने पर रहा ताकि विरोधी दल उन्हें हिला नहीं पाए।

खैर, यह अतीत की बात है। वर्तमान में बसपा में कैडर की संस्कृति रोज-ब-रोज खत्म होती जा रही है। ‘बामसेफ’ अनेक गुटों में बंटकर कमजोर हो चुकी है। 

कांशीराम को नारों के लिए याद किया जाता है। उन्होंने ऐसे नारे दिए जो लोगों को सीधे-सीधे समझ आए। मसलन, ‘वोट से लेंगे पीएम सीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी डीएम’, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ और ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ आदि। लेकिन अब बसपा ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ की नीति पर चल रही है, जिसकी वजह से पार्टी के साथ-साथ विचारधारा का भी ब्राह्मणीकरण हो गया है। इसकी इतनी माली हालत हो गई है कि अब इसे राष्ट्रीय पार्टी बनाए रखना भी चुनौती का विषय बन गया है। 1992 के बाद 2022 के चुनाव में सबसे कम वोट शेयर पार्टी की गलत नीतियों व दिशाहीन नेतृत्व की ओर इशारा है। कहना अतिरेक नहीं है कि इस समय बसपा लगभग हाशिए पर खड़ी है।

अगर ऐसा कहा जाए कि वर्ष 2007 में बसपा को मिला पूर्ण बहुमत कांशीराम के परिनिर्वाण के उपरांत मिली सहानुभूति भर था, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वहीं इसके बाद 2012 में भी पार्टी सत्ता से बाहर ही रही और फिर लगातार ग्राफ नीचे ही गिरता चला गया। 

वाजपेयी ने दिया था राष्ट्रपति पद का ऑफर

बहरहाल, कांशीराम की राजनीतिक नीति को इस बात से ही समझा जा सकता है कि उन्होंने राष्ट्रपति बनाए जाने के ऑफर को ठुकरा दिया था। भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राष्ट्रपति बनने का ऑफर दिया। जवाब में मान्यवर ने कहा कि वे राष्ट्रपति नहीं, इस देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। असली सत्ता प्रधानमंत्री की कुर्सी में है। 

कांशीराम का राजनीतिक सफर

कांशीराम लगातार तीन बार चुनाव हारे लेकिन वो डटे रहे। उनका कहना था कि “हम पहला चुनाव हारने के लिए लड़ेंगे, दूसरा हराने के लिए और तीसरा जीतने के लिए लड़ेंगे।” वर्ष 1984 के आम चुनाव में बसपा ने पहली बार 207 सीटों पर चुनाव लड़ा। कांशीराम छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्यप्रदेश का हिस्सा) की जांजगीर चंपा से चुनाव लड़े और हार गए। इसके बाद 1988 में इलाहबाद से विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ चुनाव लड़े और करीब 70 हजार वोट से हारे। वहीं 1989 में ईस्ट दिल्ली लोकसभा से चुनाव लड़े और चौथे स्थान पर रहे। इसके बाद उन्होंने 1991 में मुलायम यादव के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा और इटावा से चुनकर पहली बार लोकसभा पहुंचे। वहीं 1996 में होशियारपुर से भी चुनाव जीते।

वहीं कांशीराम के रूप में दलित समाज को दूसरे आंबेडकर मिल गए थे। 60 व 70 के दशक में बहुजन समाज हाशिए पर चला गया था और बाबासाहेब के चले जाने के बाद दलितों, पिछड़ों की आवाज बुलंद करने वाले नायकों की कमी हो गई थी। ऐसे समय में कांशीराम लोगों की उम्मीद बनकर उभरे। उन्होंने देश के गांव-गलियों में जाना शुरू किया, लोगों से बातचीत की। सड़कों पर उतरे। साइकिल से पूरे देश को नापा। इसके बाद 1971 में अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की गई। 1978 में इसे बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनोरिटी कम्युनिटी एम्प्लॉयज फेडरेशन) का नाम दिया गया। बामसेफ एक ऐसा सामाजिक संगठन बनकर उभरा, जिसने बहुजन समाज को जमीनी स्तर पर एक करने का काम किया। इसके बाद कांशीराम ने 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किया।

(आलेख परिवर्द्धित : 15 मार्च, 2022, 06:24 PM)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रवि संबरवाल

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में मास कम्युनिकेशन के छात्र रवि संबरवाल स्वतंत्र पत्रकार हैं

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