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दलित मुक्ति का अकेला योद्धा

डॉ. आंबेडकर ने दलितों की मुक्ति का जो आंदोलन खड़ा किया, समाज-व्यवस्था को बदलने के लिए जो संघर्ष किया, और ब्रिटिश सरकार के सहयोग से उनके विकास के जो रास्ते खोले, वह भारत के इतिहास की एक बड़ी घटना है। बता रहे हैं कंवल भारती

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) पर विशेष

लाखों भारतीयों को अछूत बनाकर उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित करने वाली हिंदू समाज-व्यवस्था के खिलाफ एक मात्र योद्धा, अगर कोई लड़ा था, जिसका साथ न समाजवादियों ने दिया था, और न कम्युनिस्टों ने, और जो अकेला लड़ा था, तो वह सिर्फ और सिर्फ डॉ. आंबेडकर था, और कोई नहीं।

अगर अधिकार-वंचित अछूत समुदाय की संपूर्ण मुक्ति का मार्ग किसी एक मात्र व्यक्ति के संघर्ष से खुला, तो वह निस्संदेह डॉ. आंबेडकर थे, दूसरा कोई नहीं। दूसरा कोई दावा भी नहीं कर सकता।

यह उस दौर की बात है, जब अछूतों को अपना पेट भरने के लिए बहुत ही गंदे और घृणित काम करने पड़ते थे। बिना मजदूरी के भी उन्हें हिंदुओं की बेगार करनी पड़ती थी, और जहां वे मजदूरी करते थे, वहां भी, जैसा कि कैथरीन मेयो ने एक जगह लिखा है, उन्हें पगार भी दो आना रोज मिलती थी।[1] गांवों में तो यह मजदूरी, जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने लिखा है, गोबराहा के रूप में मिलती थी।[2] जो बैल बालों से दाने निकालते वक्त गेहूं खा जाते थे, तो वह गेहूं उनके गोबर में निकलता था। उस गोबर को गोबराहा कहते थे। अछूत उस गोबर में से दाने बीनकर निकालते थे। ऐसी बदतर स्थिति हिंदूओं ने उनकी बनाई हुई थी। ये वे हिंदू थे, जो कुत्ते पालते थे, गाय पालते थे, गाय का पेशाब पीते थे, और अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए गोबर खाते थे, लेकिन अछूतों को नहीं छूते थे।[3] उन्हें वे इंसान ही नहीं समझते थे।

जानवरों से भी बदतर इन मनुष्यों को जगाने का काम किसी हिंदू समाजसुधारक, प्रगतिशील हिंदू और कम्युनिस्ट ने नहीं किया। उन्हें डॉ. आंबेडकर के सिवा किसी ने यह अहसास नहीं कराया कि तुम भी मनुष्य हो, मनुष्य की तरह रहो। सारे गंदे और घृणित काम छोड़ो, शिक्षा हासिल करो और अपने हकों के लिए संघर्ष करो।

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956)

डॉ. आंबेडकर ने दलितों की मुक्ति का जो आंदोलन खड़ा किया, समाज-व्यवस्था को बदलने के लिए जो संघर्ष किया, और ब्रिटिश सरकार के सहयोग से उनके विकास के जो रास्ते खोले, वह भारत के इतिहास की एक बड़ी घटना है। कल्पना कीजिए, अगर डॉ. आंबेडकर ने यह लड़ाई नहीं लड़ी होती, तो आज भी दलित समुदाय अछूत के रूप में घृणित जीवन जी रहा होता और बिना किसी अधिकार के हिंदुओं के रहमोकरम पर जिंदा रहता। क्योंकि, मौसम बदल सकता है, नदियां अपना रास्ता बदल सकती हैं, पहाड़ अपना स्वभाव बदल सकते हैं, परंतु ब्राह्मण मानस अपनी व्यवस्था नहीं बदल सकता, वह मरता मर जाएगा, पर दलितों के प्रति अपनी नफ़रत नहीं बदल सकता।

सच तो यह है कि सवर्ण हिंदुओं को दलितों के दुखों का अहसास ही नहीं था। उनके समाजसुधारक और धर्मगुरु उनको यह उपदेश देते थे कि उनके दुख और उनकी गरीबी उनके पिछले जन्म के पापों के कारण है। अगर वे इस जन्म में अच्छे काम करेंगे, तो अगले जन्म में उन्हें ये दुख उठाने नहीं पड़ेंगे। और इस जन्म में अच्छे कर्मों का मतलब था चुपचाप द्विजों की सेवा करते रहना। डा. आंबेडकर ने उन्हें यह बताया कि उनके दुख और उनकी गरीबी पिछले जन्म के पापों की वजह से नहीं है, बल्कि उस व्यवस्था की वजह से है, जो द्विजों ने उनके लिए बनाई है। सन् 1925 में रत्नागिरी जिले के मालबड़ गांव में बाबासाहेब अछूतों की सभा में फटे-पुराने मैले-कुचैले कपड़े पहने गरीबी से उनके मुरझाए चेहरों को देखकर द्रवित होकर बोले थे– “अरे तुम्हारी यह दुर्दशा! तुम्हारे ये मुरझाए चेहरे देखकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। तुम अपने दीनहीन जीवन से दुनिया के दुख-दरिद्रता को क्यों बढ़ाते हो? मां के पेट में ही तुम क्यों नहीं मर गए? अब भी मर जाओ, तो दुनिया पर तुम्हारा उपकार ही होगा। यदि तुम जीना चाहते हो, तो दीनता त्याग दो, जिंदादिल होकर जियो। जैसा इस देश के दूसरे इंसानों को प्राप्त है, वैसा ही अन्न, वैसे ही कपड़े और वैसे ही मकान तुम लोगों को भी चाहिए। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार को पाने के लिए तुम्हें लड़ना होगा।”

रत्नागिरी वही इलाका था, जहां से आरएसएस के विनायक दामोदर सावरकर ने 1924 में अछूतों का उद्धार करने के लिए डेरा डाला था। क्या सावरकर ने उनका उद्धार किया? क्या वह अछूतों के दुख देखकर द्रवित हुए थे? नहीं, बल्कि वहां उन्होंने अछूतों को पतित मानकर उनके लिए ‘पतित पावन मंदिर’ बनवाया था। उनको मंदिर में उलझाकर उन्हें अछूत और गरीब बनाए रखना उनका अछूतोद्धार था। सावरकर ब्राह्मण थे, वह अछूतों के दुखों को कैसे महसूस कर सकते थे? क्या वह यह कह सकते थे कि “जैसा इस देश के दूसरे इंसानों को प्राप्त है, वैसा ही अन्न, वैसे ही कपड़े और वैसे ही मकान तुम लोगों को भी चाहिए। यह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार को पाने के लिए तुम्हें लड़ना होगा।” यह सही रास्ता सावरकर कैसे दिखा सकते थे?

एक और दृष्टान्त उन अछूत परिया औरतों का है, जो अर्धनंगी रहती थीं। डॉ. आंबेडकर उनकी दशा देखकर रो पड़े थे। उन्होंने मालाबार में सिर्फ परिया औरतों की सभा बुलाई। उसमें काफी परिया औरतें आईं। सभा रात में हुई। चार घंटे तक बाबासाहेब ने उनको समझाया– “तुम अपनी जांघों को क्यों नहीं ढांकतीं? अपने शरीर को क्यों नंगा रखती हो? यह तो बहुत बुरी बात है। इस तरह रहकर तुम अपने सतीत्व की रक्षा कैसे करोगी? दुनिया की किसी जाति की स्त्रियां तुम्हारी तरह नंगी नहीं रहतीं। यह बड़ी लज्जा की बात है। अपनी इज्जत बनाओ। अपना कपड़ा पहनने का तरीका बदलो। तुम्हें अपनी एड़ी से गर्दन तक अंग कपड़े से ढके रखना चाहिए। तभी तुम इज्जतदार कहलाओगी।”

चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने लिखा है कि दूसरे दिन बहुत सी परिया स्त्रियां बाबासाहेब को फूल चढ़ाने आईं। वे सब की सब एड़ी से गर्दन तक कपड़ा पहने हुए थीं। यह देखकर बाबासाहेब बहुत खुश हुए थे। परिया औरतें न जाने कितनी सदियों से अधनंगी रह रही थीं, पर किसी हिंदू सुधारक और गुरू को क्या पड़ी थी कि वह उन्हें इज्जत से रहने की शिक्षा देता?

और भी बहुत सी घटनाएं हैं, जो इतिहास में पहली बार हुईं। महाड आंदोलन ने पूरी दुनिया को दिखाया कि भारत में अछूतों को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने का अधिकार पाने के लिए सत्याग्रह करना पड़ा। नासिक के मंदिर आंदोलन ने पूरी दुनिया को बताया कि दलित समुदाय हिंदू नहीं है, और हिंदुओं को अंग्रेजों ने स्वराज दिया, तो वह हिंदुओं का स्वराज होगा, और उसमें दलितों की स्थिति वही होगी, जो गुलामों की होती है।

और अगर डॉ. आंबेडकर ने हस्तक्षेप न किया होता, तो दलितों को स्वराज के केक का एक टुकड़ा भी नहीं मिलता। उनका यही वह योगदान है, जो उन्हें दलितों का एकमात्र योद्धा, एकमात्र नायक और एक मात्र मसीहा बनाता है। वह योगदान क्या है? वह योगदान है दलितों को सत्ता के केंद्र में लाना, जो वे हजारों साल से नहीं थे। यह भारत के इतिहास में पहली बार हुआ था, जब दलित वर्ग सत्ता का तीसरा केंद्र बना था। तीसरा केंद्र क्यों? क्योंकि, सत्ता के दो केंद्र बने हुए थे, एक केंद्र सवर्ण हिंदुओं का था, और दूसरा मुसलमानों का था। गांधी की कांग्रेस चाहती ही नहीं थी कि कोई तीसरा केंद्र भी बने। इसलिए वह दलितों, पिछड़ों और आदिवासी सबको हिंदू मानकर चल रही थी। उस समय पिछड़ी जातियों और आदिवासियों का कोई मजबूत नायक नहीं था, इसलिए वे उन्हें सत्ता के केंद्र में नहीं ला सके। लेकिन डॉ. आंबेडकर ने ठान लिया था कि वह स्वराज का सारा केक सवर्ण हिंदुओं को नहीं खाने देंगे, उसमें दलित वर्ग का भी उतना ही हिस्सा है, जितना सवर्ण हिंदुओं और मुसलमानों का। इसलिए उन्होंने जोर देकर स्वराजवादियों से कहा, कि दलितों को भी स्वराज में हिस्सा चाहिए। किंतु जब स्वराजवादियों ने दलित-पिछड़े सभी वर्गों को जोड़कर बहुसंख्यक हिंदुओं की ओर से स्वराज पाने का दावा पेश किया, तो डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी कि दलित वर्ग हिंदू नहीं है, क्योंकि हिंदुओं के साथ उनका न उठना-बैठना है, न सामाजिक संबंध है, और ना ही कोई धार्मिक संबंध है। उन्होंने कहा कि दलित वर्ग एक अलग समुदाय है, इसलिए उसे सत्ता में पृथक प्रतिनिधित्व उसी तरह चाहिए, जिस तरह हिंदुओं और मुसलमानों को चाहिए। अगर सिर्फ हिंदुओं और मुसलमानों को ही प्रतिनिधित्व दिया जाएगा, तो यह दलित वर्ग के साथ अन्याय होगा, और दलित उन अधिकारों से सदैव वंचित रहेंगे, जो मनुष्य होने के नाते उन्हें मिलने चाहिए।

इसलिए डॉ. आंबेडकर ने लंदन के गोलमेज सम्मेलन में दलित वर्ग के लिए पृथक प्रतिनिधित्व की मांग की। हिंदुओं के लिए यह मांग ऐसी थी, जैसे उनके वर्चस्व पर किसी ने बम फोड़ दिया हो। सारे देश का हिंदू समाज इस मांग से बुरी तरह बौखला गया। लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए अनेक आयोगों और समितियों की रिपोर्टों को देखने के बाद, जिनमें डॉ. आंबेडकर के साथ-साथ और भी बहुत से दलित नेताओं और बुद्धिजीवियों की गवाहियां दर्ज थीं कि दलित वर्ग हिंदू नहीं है, और सवर्ण हिंदुओं ने उन्हें अपने ही देश में गुलाम बनाकर रखा हुआ है, ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने दलित वर्ग के पक्ष में निर्णय लिया और दलितों को तीसरा पक्ष मानते हुए पृथक निर्वाचन का अधिकार प्रदान कर दिया। जैसे ही इस निर्णय की घोषणा हुई, द्विजों का सिंहासन डोल गया, इंग्लैंड में बैठे हुए मार्क्सवादी राहुल सांकृत्यायन तक की आत्मा कराह उठी। और यह आत्मा तभी शांत हुई, जब डॉ. आंबेडकर ने हिंदुओं के पक्ष में पूना में समझौता किया और गांधीजी की प्राण रक्षा हुई।[4]

पूना-समझौते से डॉ. आंबेडकर का सारा राजनीतिक संघर्ष अकारथ चला गया। दलित वर्ग अपनी लड़ाई हार गया, और सवर्ण हिंदुओं ने दलितों को अपने अधीन रखने की जिद जीतकर पूरे देश में विजय-जुलूस निकाला। दलितों को हिंदुओं के रहमोकरम पर ही संयुक्त निर्वाचन में आरक्षित सीटों को लेकर संतोष करना पड़ा। यह समझौता हिंदुओं के हिंसक दबाव में हुआ था। गांधी ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी। डॉ. आंबेडकर के दफ्तर में धमकी भरे पत्रों का अंबार लग गया था। न जाने कितने राम और परशुराम हाथों में तलवारें लेकर सड़कों पर निकल आते। तब क्या कोई शंबूक बच पाता?

उसी समझौते का परिणाम है कि ब्राह्मणवादी सरकारों ने दलितों में अपने चमचे पैदा किए और दलित समुदाय को गरीब और अनपढ़ बनाकर रखने की योजनाएं बनाई गईं। नतीजा यह है कि दलितों को सवर्ण हिंदुओं के समकक्ष आने में अभी न जाने कितनी सदियां और लगेंगी।

लेकिन डॉ. आंबेडकर का महत्व पूना-समझौते में नहीं है। उनका महत्व संविधान के निर्माण में उनके उस योगदान में भी नहीं है, जिसके खिलाफ द्विज अपना रोष उनकी मूर्तियां तोड़कर निकालते रहते हैं। आज की स्थिति यह है कि संविधान को लागू करने वाली सभी संस्थाएं आरएसएस और भाजपा के नियंत्रण में हैं, जो संविधान के प्रति नहीं, हिंदुत्व के प्रति समर्पित हैं। ये संगठन और संस्थाएं डॉ. आंबेडकर को भी राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी बनाकर ठिकाने लगाने में लगे हुए हैं। इसलिए डॉ. आंबेडकर का महत्व मुक्ति की उस लड़ाई में है, जो उनके द्वारा भारत के इतिहास में पहली बार लड़ी गई थी। इसी लड़ाई ने वर्ण व्यवस्था और जातिभेद की हिंदू कानून की किताब मनुस्मृति में आग लगाई थी। इसी लड़ाई ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांत दिए थे। इसी लड़ाई ने दलितों को गुलामी का अहसास और मनुष्य होने का बोध कराया था। इसी लड़ाई ने दलित वर्ग को शिक्षा, संघर्ष और संगठन का महत्व बताया था। यही वह लड़ाई है, जिसे दलितों को याद रखना है, और यही वह लड़ाई है, जो डॉ. आंबेडकर को दलितों का मसीहा बनाती है।

[1] स्लेव्स ऑफ दी गॉड्स,  कैथरीन मेयो, हर्कोर्ट ब्रेस एंड कंपनी, न्यूयार्क, 1929, पृष्ठ 148

[2] डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 5, पृष्ठ 23

[3] राव बहादुर एम. सी. राजा, दी ऑप्रेस्ड हिंदूज, हक्सले प्रेस, मद्रास, 1925, पृष्ठ 6

[4] राहुल सांकृत्यायन, मेरी जीवन यात्रा, दूसरा भाग, पृष्ठ 153-154

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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