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मौजूदा राजनीति के बरक्स हस्तक्षेप हैं युवा आदिवासी कवि अनुज लुगुन की कविताएं

अनुज लुगुन की कविता की शैली मुहावरेदार है। वैसे भी जब सत्ता अपनी राजनीति में भाषिक जुमले और राजनीतिक नारों के जरिए जनता की आवाज का दमन करती है तब कविता को नई शैली और मुहावरों की जरूरत पड़ती है। इसके अभाव में उनके भाषिक हिंसा से संघर्ष नहीं किया जा सकता है। बता रहे हैं महेश कुमार

इक्कीस सदी के तीसरे दशक में नागरिकता, अभिव्यक्ति की आजादी, समानता के लिए संघर्ष और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर चरणबद्ध तरीके से हमले हो रहे हैं। कह लीजिए कि बहुमत के सहारे संविधान को अप्रासंगिक बनाने की मुहिम चल पड़ी है, जिसमें राज्य और केंद्र दोनों प्रयासरत हैं। बुद्धिजीवी भी अपने अध्ययन और विश्लेषण में बार-बार यह कहते हैं कि लोकतंत्र वोट तंत्र में बदल गया। चुनाव में धर्म केंद्रीय भूमिका निभा रहा है। कमोबेश हर पार्टी किसी न किसी धार्मिक पहचान की राजनीति के जरिये सत्ता में आने का प्रयास कर रही है। येन-केन-प्रकारेण सरकार बना लेना ही आज सोशल इंजीनियरिंग कही जाती है और बुद्धिजीवी भी इस शब्दजाल में फंसते दिखाई देते हैं। इसी को प्रायः जनता की राजनीतिक चेतना और प्रशिक्षण भी कह देने का चलन बढ़ा है।

ऐसे ही सरोकार और सवाल युवा आदिवासी कवि अनुज लुगुन के नये कविता संग्रह ‘पत्थलगड़ी’ में शामिल है। इस संग्रह का प्रकाशन वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा किया गया है। इसमें कुल 54 कविताएं हैं, जिनमें कवि ने 2015 से 2020 तक के समसामयिक राजनीतिक घटनाओं, सरकारी नीतियों और जनपक्षधर आंदोलनों को दर्ज किया है। कविता संग्रह से दो बातें निकलकर आती हैं। एक तो यह कि लोकतंत्र की दशा-दिशा के संदर्भ में कवि का बौद्धिक आत्मसंघर्ष और दूसरी यह कि कविताओं में अपने समय के राजनीतिक नारों और प्रतीकों को चुनौती देने के लिए नए मुहावरों और प्रतीकों की स्थापना का प्रयास।

वह हर साहित्यकार, जिसका समाज से सरोकार है, वह देश मेंराजनीतिक हलचलों से खुद को तटस्थ नहीं रख सकता। अनुज लुगून भी इस संग्रह में स्वयं को आदिवासी अस्मिता और मुख्यधारा के पीड़ित जनसमूह बीच में रखकर पीड़ित मनुष्यता का वृहत संकुल बनाते हैं।

अनुज लुगुन की कविताएं संविधान के अंतर्विरोधों पर भी दृष्टि रखती है और उस संघर्ष के दौर से बाहर निकलने का रास्ता भी बताती है। ‘पत्थलगढ़ी’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसे बौद्धिक उलगुलान की दिशा में एक सशक्त हस्तक्षेप की तरह देखा जाना चाहिए। ‘आदिवासियों की परंपरा के अनुसार मृतक के कब्र पर 4 से 15 फीट तक का पत्थर गाड़ा जाता है और उसके उपर कुछ संदेश अंकित कर दिए जाते हैं।’[1] ब्रिटिश काल में यह परंपरा जमीन बचाने का प्रतीक बन गया। बिरसा मुंडा के आंदोलन उलगुलान के दौरान अंग्रेजों ने समझ लिया कि आदिवासियों के साथ समझौता करना ही बेहतर है। जमीन की समस्या का समाधान हो जाएगा तब आदिवासी शायद उसका समर्थन कर देंगे। वर्ष 1908 में छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट लाया गया, जिसके तहत आदिवासियों की जमीन को कोई भी बाहरी (दिकू) नहीं खरीद सकता। 1949 में संथाल परगना टेनेंसी एक्ट आया। इसमें भी जमीन को ठोस प्रावधान किए गए।[2]

धीरे-धीरे पत्थलगढ़ी की यह सांस्कृतिक परंपरा उनके राजनीतिक अधिकारों की गवाही के प्रतीक बनते गए। इसपर संवैधानिक अधिकार अंकित किए जाने लगे। “भूरिया कमिटी के संस्तुति पर जब 1996 में पेसा एक्ट आया तबसे उनके ग्राम सभाओं को लोकतंत्र के भीतर एक गति मिली। आदिवासी इसके लिए संघर्ष करते रहे और पत्थरों पर पेशा एक्ट दर्ज किया जाने लगा। 2016 में झारखंड के रघुवर दास की सरकार ने ‘लैंड बैंक पॉलिसी’ के नाम पर पेसा एक्ट में संशोधन करके विकास कार्य के नाम पर कम्पनियों को देने को योजना बनायी। आदिवासियों ने इसका विरोध किया। उनसे जमीन के पट्टे माँगे जाने लगे। इसके बाद ‘पत्थलगढ़ी आंदोलन’ खूंटी से शुरू होकर पूरे झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक फैल गयी। दिकूओं का आदिवासियों के गाँव में प्रवेश वर्जित कर दिया गया।”[3] सरकार ने फौज उतार दिया, राजद्रोह के मुकदमे चले और आंदोलन को नक्सल समर्थित बताया गया। यह आंदोलन आदिवासी अस्तित्व के संघर्ष के साथ संविधान को जमीन पर लागू करने का संगठित पहल था। यह देखकर आश्चर्य होता है कि मुख्यधारा के से जुड़े कवि, विचारक और एक्टिविस्ट ने बहुत रुचि नहीं लिया इस आंदोलन में। यही चुप्पी प्रतिक्रियावादी ताकतों को संविधान पर हावी होने में मदद करता है।

कवि ने लिखा है–

‘हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है
न ही वे पत्थर फेंकने का मुहावरा जानते हैं
वे तो सिर्फ पत्थर गाड़ना जानते हैं
फिर भी वे पत्थर फेंकने के दोषी माने गए।’[4]

अनुज लुगुन की कविता की शैली मुहावरेदार है। वैसे भी जब सत्ता अपनी राजनीति में भाषिक जुमले और राजनीतिक नारों के जरिए जनता की आवाज का दमन करती है तब कविता को नई शैली और मुहावरों की जरूरत पड़ती है। इसके अभाव में उनके भाषिक हिंसा से संघर्ष नहीं किया जा सकता है। इसी तरह ‘पत्थर गाड़ना’ वह मुहावरा है, जिसके जरिए कवि राजनीतिक सत्ता के भाषिक हिंसा ‘पत्थर फेंकने’ का प्रतिकार करते हैं। ये मुहावरे कवि और सत्ता के बीच के संबंधों को समझने का सूत्र है।

जब जन विरोधी ताकतें प्रतीकों के जरिये इतिहास को बदलने के लिए तत्पर हैं तो ऐसे में कवि को भी अपने प्रतीकों को बदलने की जरूरत होती है। सरकार अपना प्रतीक लाल किले, सेना, विकास, संविधान, सरकारी योजनाओं और विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं को ही बनाती है। इसी की आड़ में वह जनता के आंदोलनों को जनविरोधी सिद्ध करती है और अपनी नीतिगत विफ़लता को विपक्ष की गलती बताकर बहुसंख्यक जनता को अपने पक्ष में बनाए रखती है।

कवि के रूप में अनुज लुगुन दो मोर्चे पर काम करते हैं। पहले मोर्चे पर वह प्रतीकों का काट के लिए नए प्रतीकों और मुहावरों का सृजन करते हैं तो दूसरे मोर्चे पर वह भाषा को वैचारिक बहस के अनुकूल बनाते हैं, जिसमें भविष्य के समाज के लिए नई दृष्टि होती है।

कवि लिखते हैं–

‘मुनाफे का एक कण संविधान पर
उल्का की तरह गिरता है और
गाँव के गाँव, बस्ती के बस्ती
बेगारी के गड्ढे में धकेल दिए जाते हैं।’[5]

इन पंक्तियों के जरिए कवि कहना चाहते हैं कि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का सिमटते जाना और पूँजी की पकड़ का मजबूत होना भारतीय संविधान को सीमित करने का षड्यंत्र ही तो है। ऐसी नीतियाँ बनती हैं पार्लियामेंट में और सरकार गणतंत्र दिवस पर जोर-शोर से लाल किले से अपनी नीतियों का गुणगान करती हैं। कुछ किलो अनाज के वितरण को ही कल्याणकारी योजना बताकर सरकार गरीबों का वोट कैश कर लेती है। इसी अनाज के कीमत के लिए जब किसान आंदोलनरत होते हैं तो ‘लाल किले’ को सामने करके उन्हें आतंकी और देशद्रोही बताने का प्रोपगेंडा किया जाता है। कवि ने बहुत योजनाबद्ध तरीके से राजनीतिक कविताओं का शीर्षक तय किया है। मसलन ‘मजदूरों की मौत का सदमा लाल किले को नहीं होता’, ‘नागरिकता के सीमांतो पर खड़े लोग’, ‘लाल कार्ड’, ‘मेरे गाँव में सीआरपीएफ कैम्प लग गया है’ आदि।

जिस प्रतिक्रियावादी ताकतों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन होते हैं, उन्हें अपने लिए आम जनता का समर्थन जुटाना और भी आसान हो जाता है, क्योंकि उनके पास प्रशासनिक, आर्थिक समर्थन के साथ ही जनता का भावनात्मक सहयोग भी मिल जाता है। वे जनता के बीच सेवा कार्य की योजना के साथ जाते हैं और अपने एजेंडे का विस्तार करते हैं। उनकी सेवा भावना राजनीतिक होती है, जिसे वे सामाजिक, सांस्कृतिक और मनुष्यता प्रेरित बताते हैं। उनकी सेवा योजनाओं के खास प्रतीक होते हैं। जैसे आदिवासियों के बीच वे ‘वनवासी’ कल्याण के तहत काम करते हैं और मुख्यधारा के आम जनता के बीच ‘झंडा’ वितरण को आगे बढ़ाते हैं। देखने में यह सामान्य घटना है। लेकिन इन्हीं प्रतीकों के जरिए वे अपनी वैधता समाज में स्थापित करते हैं। कवि के पास इस सांस्कृतिक उपनिवेशवाद को समझने की पैनी दृष्टि है। सेवा के बहाने जमीन और विचार दोनों पर कब्जे इस योजना के विरुद्ध अनुज लुगुन लिखते हैं–

‘सेवा जिनके लिए
अपना झंडा फहराने का चोर दरवाजा है
वे ही जंगलों में
प्रतीक लेकर आते हैं।’[6]

खैर समाज को यथास्थितिवाद से निकालने का जोखिम प्रायः शोषित जनता ही करती है। शुरुआत करने वाले मुट्ठी भर लोग होते हैं। क्रांति होती है तब बहुसंख्यक उत्पीड़ित जनता उससे जुड़ने लगती है और बौद्धिक तबका उन्हें अपना वैचारिक समर्थन देने लगता है। जिस समाज का बुद्धिजीवी वर्ग पूंजी और मुनाफे का स्वाद चख चुका होता है, उसे अपनी सुविधाएं छोड़ते नहीं बनता। वैचारिक बहस उसके लिए अन्य विलासिता की तरह एक सुख है। वह इस सुख को छोड़कर क्रांति के गतिविधियों में सरकार का कोपभाजन नहीं बनना चाहता। इसलिए वह ‘भाषा का व्यवसायी/इतिहास की कब्र पर खड़े होकर उनका स्वागत करते हैं।’

बहरहाल, ऐसे बहुतेरे कवि अपने आत्मसुख के लिए ‘हिंदी का युवा कवि’ हो जाना चाहते हैं। उन्हें बस मंच, ताली और पुरस्कार चाहिए होता है। परंतु जनता का कवि होने के लिए एक्टिविस्ट होना एक अनिवार्य शर्त होता है। अपने वैचारिकी में ‘वरवर राव’ होना पड़ता है। जरूरत पड़ने पर अपनी जनता के साथ खड़ा होना पड़ता है। उसे एक साथ दो भूमिकाएं निभानी होती हैं। अपनी एक कविता में लुगुन लिखते हैं–

‘मैंने अपनी वफादारी नहीं चुनी है
अनाज के गोदामों के लिए
कविता की उस भाषा के लिए भी नहीं
जो किसी भूखे की कब्र पर राष्ट्रगान के लिए खड़ी हो।’[7]

अकारण नहीं है कि इस संग्रह में नागरिकता पर तीन कविताएं हैं। इनमें से एक कविता है–

‘नागरिकता के सीमांत पर खड़े लोग आपकी तरह
मुस्कुराते हुए आधार कार्ड दिखा नहीं सकते
… वे हर चीज को लाँघते हुए
आदमियत के बन्द दरवाजे को तोड़ते हैं।’[8]

यदि कोई भी नागरिक इससे वंचित है तो संविधान की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होना स्वाभाविक है। संविधान की प्रासंगिकता बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि जीवन की गरिमा को स्थापित किया जाए। कविता में इसे स्थापित करने के लिए नए विम्बों और प्रतीकों की जरूरत पड़ेगी, जो जीवन में सत्ता के प्रतीकों को चुनौती दे। ‘गोह की कविता’, ‘चाँद चौरा का मोची’, ‘पर्दे से गुम होती स्त्रियाँ’ और ‘भीमा कोरेगाँव’ जीवन की गरिमा के लिए लिखी गई कविताएं हैं। इन कविताओं के कथ्य और शिल्प दोनों अपने तेवर में जीवन की गरिमा की गारंटी के लिए प्रतिबद्ध हैं भाषा में भी और जीवन में भी।

यह अकारण नहीं है कि पहली कविता जीवन की गरिमा को हासिल करने के संघर्ष से शुरू होती है और अंतिम कविता ‘अबुआ : दिसुम’ (अपना देश) पर खत्म होती है। जीवन की गरिमा बिना संघर्ष के हासिल नहीं हो सकता है। संघर्ष के लिए नई पीढ़ी के पास इतिहास की ठोस जानकारी और जमीन से जुड़ाव की जरूरत होती है। इतिहास ही वह आधार बिंदु है, जहाँ से वर्तमान समय के मूल्यांकन के लिए दृष्टि विकसित किया जा सकता है। इतिहास से कटकर कोई यह नहीं जान सकता कि उसने क्या खोया है। बिना इतिहास के कोई भी संघर्ष अंततः अधूरा रह जाता है, क्योंकि इतिहास ही संघर्ष के बाद नवनिर्माण के लिए दिशा और दृष्टि उपलब्ध कराती है। इसलिए कवि शुरू संघर्ष से करता है लेकिन अंत इतिहास की ओर लौटने से करता है। अपनी जमीन पाने के लिए और विरोधियों की सही पहचान करने के लिए इतिहास की ओर बार-बार लौटना ही पड़ता है। इसके बिना नए प्रतीक नहीं गढ़े जा सकते हैं।

समीक्षित पुस्तक : पत्थलगड़ी (काव्य संग्रह)
कवि : अनुज लुगुन
प्रकाशन वर्ष : 2021
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 199 रुपए

[1]‘ईकनॉमिक एंड पालिटिकल वीकली’, इंगेज, जल-जंगल-जमीन : दी पत्थलगड़ी मूवमेंट एंड आदिवासी राइट्स
[2] वही
[3] वही
[4] ‘पत्थलगढ़ी’, अनुज लुगुन, वाणी प्रकाशन, पेपरबैक, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ 56
[5] वही,पृष्ठ 36
[6] वही, पृष्ठ 22
[7] वही,पृष्ठ 33
[8] वही,पृष्ठ 25

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

महेश कुमार

लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया के स्नातकोत्तर छात्र रहे हैं तथा विभिन्न विषयों पर इनके आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

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