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जिग्नेश की गिरफ्तारी पर चुप्पी क्यों?

जिग्नेश को असम में उन लोगों का समर्थन मिल रहा है जो कि कमजोर वर्ग के लिए लड़ने वाले संगठन माने जाते हैं। असम में सीपीएम के विधायक को जिग्नेश से जेल में मिलने के लिए धरना देना पड़ा था। वहीं, राजधानी दिल्ली में अभी तक कोई संगठित विरोध नहीं हुआ है, जबकि आमतौर पर इस तरह की घटनाओं के खिलाफ सामाजिक-राजनीतिक संगठन अपना विरोध प्रगट करने में सक्रिय रहे हैं। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

जिग्नेश मेवाणी गुजरात से पकड़कर असम की जेल में डाल दिए गए हैं। वे गुजरात में कांग्रेस समर्थक निर्दलीय दलित विधायक हैं। उन्हें जमानत भी मिल गई। लेकिन फिर से जेल में डाल दिया गया। सवाल उठता है कि यदि जिग्नेश चमड़े के कारखाने में काम करने वाले पिता के बेटे नहीं होते तो भी क्या यह किया जा सकता था? दलित पृष्ठभूमि के उन नेताओं की गिरफ्तारी और हत्या का सिलसिला क्यों भारतीय समाज व व्यवस्था में लंबे समय से जारी है जो कि कमजोर वर्गों के हित में आवाज उठाते हैं और किसी समझौते पर नहीं झुकते? 

जिग्नेश की गिरफ्तारी के मामले पर एक नजर 

असम के कोकराझार इलाके में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक कार्यकर्ता अरुप कुमार डे ने 18 अप्रैल, 2022 को पुलिस थाने में यह शिकायत दर्ज करायी कि गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी अपने ट्वीटर पर अपनी बातों से समाज में लड़ाई झगड़े बढ़ाते हैं। 

गौरतलब है कि उत्तर असम में हिंदू बंगाली अल्पसंख्यक है और सत्ता संरक्षण मिलने का एक मनोविज्ञानिक दबाव उन पर होता है। अरुप असम की सत्ताधारी पार्टी के करीब बने रहने के मौके का भरपूर इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने थाने में दिये अपने शिकायत पत्र में लिखा कि जिग्नेश ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गोड़से का भक्त बताया है। 

सनद रहे कि देश भर में सांप्रदायिक तनाव के बढ़ने से आमतौर पर लोगों को चिंतित होते देखा गया है। ऐसी स्थिति का एक दबाव प्रधानमंत्री पर भी देखा गया और उन्होंने गुजरात पहुंचकर अमन चैन रखने की अपील की। इसी अपील पर गुजरात के जन प्रतिनिधि के तौर पर जिग्नेश ने सोशल मीडिया पर अपनी एक प्रतिक्रिया लिख दी। जिग्नेश के खिलाफ दर्ज एफआईआर की प्रति में यह देखा जा सकता है कि गुजरात के एक विधायक को गिरफ्तार करने के लिए असम पुलिस की इतनी सक्रियता के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? गत 20 अप्रैल, 2022 को जिग्नेश को पुलिस हिरासत में लिया गया और स्थानीय अदालत ने कड़ी शर्तों के साथ जमानत की अर्जी पांच दिनों के बाद 25 अप्रैल, 2022 को मंजूर कर ली। लेकिन अदालत के बीच असम पुलिस भी खड़ी थी और उसने यह तय कर लिया था कि जिग्नेश को जेल से बाहर नहीं आने देना है। जिग्नेश को असम के एक अन्य जिला बरपेटा की पुलिस ने फिर इस आरोप के साथ हिरासत में ले लिया कि उन्होंने एक महिला पुलिस के साथ बदसलूकी की है। इतना ही नहीं, जिग्नेश के वकील ने बताया कि उनके खिलाफ असम के दूसरे जिलों में भी नई एफआईआर दर्ज होने की सूचना मिल रही है। इस तरह जिग्नेश के असम के जेलों में घूमा-घूमाकर बंद रहने का इंतजाम किया जा रहा है। 

यह भी पढ़ें – आखिर किस सियासी ट्वीट को लेकर जिग्नेश मेवाणी को असम पुलिस ने किया गुजरात से गिरफ्तार?

दलित पृष्ठभूमि के नेताओं के विरुद्ध हत्या और मुकदमों का सिलसिला 

भारतीय समाज और व्यवस्था में दलित पृष्ठभूमि के राजनीतिक नेताओं व सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ हत्या और मुकदमों में फंसाने का एक लंबा अध्याय है। खासतौर से उन नेताओं के साथ यह बात लागू होती है जो दलितों के लिए नेता होते हैं और दलित होते हैं। पूरे भारत के तथ्यों पर आधारित इस पर शोध ग्रंथ लिखा जा सकता है। पढ़ने-लिखने वाले दलितों के लिए आत्महत्या के हालात बन जाते हैं। जिग्नेश के खिलाफ असम में दर्ज मुकदमों के जरिए सियासत स्पष्ट तौर पर जाहिर होता है।

दमन बनाम हौसला : असम पुलिस की हिरासत में जिग्नेश मेवाणी

गुजरात में विधानसभा के लिए चुनाव की तैयारी चल रही है। दरअसल, जिग्नेश का मामला गुजरात के चुनाव तक सीमित मामला भर नहीं है। इसे एक बड़े परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। यह एक संदेश देने के लिए घटना है। राजनीतिक तौर पर सक्रिय किसी एक कार्यकर्ता भर के खिलाफ भी नहीं है। इसे इस तरह भी देखा जाना चाहिए कि एक एकलव्य को अंगुठाविहीन बनाकर पूरे समाज को संदेश दिया गया था। 

गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध 

जिग्नेश मेवाणी की इस तरह से गिऱफ्तारी के खिलाफ राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रियाएं तो आ रही हैं, लेकिन एक संगठित आवाज में वह तब्दील नहीं हुई हैं। जिग्नेश निर्दलीय विधायक है, जिन्होंने कांग्रेस को अपना समर्थन दिया है। उन्हें असम में उन लोगों का समर्थन मिल रहा है जो कि कमजोर वर्ग के लिए लड़ने वाले संगठन माने जाते हैं। असम में सीपीएम के विधायक को जिग्नेश से जेल में मिलने के लिए धरना देना पड़ा था। राजधानी दिल्ली में अभी तक कोई संगठित विरोध नहीं हुआ है, जबकि आमतौर पर इस तरह की घटनाओं के खिलाफ सामाजिक-राजनीतिक संगठन अपना विरोध प्रगट करने में सक्रिय रहे हैं। गिरफ्तारी का डर दिखाकर या जेल में डालकर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को चुप कराने का एक कानून अघोषित रुप से सक्रिय है। जिग्नेश के इस मामले में यह साफ तौर पर दिख रहा है कि उन्हें राजनीतिक तौर पर चुप रहने की यह चेतावनी है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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