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बहस-तलब : जाति जानो उत्पीड़कों की

यह समझना जरूरी है कि इस समय कुमहेर में दलितों पर हिंसा गुर्जरों ने की और उनके बड़े संगठन इस घटना पर चुप रहे। विचार करने योग्य बात यह है कि यह सब डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर आयोजित कार्यक्रम से चिढ़कर ऐसे प्रयास किए गए। जबकि वे लोग ही जब आरक्षण और राजनीति का मसला आता है तो फिर ‘बहुजन समाज’ का नाम लेकर ‘सबका हित एक समान’ का नारा देते हैं। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

अभी कुछ दिनों पहले राजस्थान मे भरतपुर जिले का कुमहेर कस्बा खबरों मे था। वहां से खबर आयी कि बड़ी संख्या मे दलितों ने पलायन किया है। वजह यह रही कि बीते 14 अप्रैल, 2022 को आंबेडकर जयंती के एक कार्यक्रम को गुर्जर समाज के लोगों द्वारा हिंसक तौर पर रुकवाया गया। खबर मुकम्मल नहीं थी।

दरअसल हमारे पास खबरे बेहद ही सिलेक्टिव तरीके से आती हैं और जो ‘मानवाधिकार’ कार्यकर्ता व पत्रकार आदि सोशल मीडिया के जरिए ऐसी खबरें साझा करते हैं, उनकी दिलचस्पी खबरिया चैनलों की तरह खुद को हाइलाइट करने में ज्यादा होती है और इतनी मेहनत कोई करना नहीं चाहता कि उत्पीड़ितों को न्याय मिले। खबरों की हेडिंग को भी सनसनीखेज बनाकर पेश किया जाता है, जैसे– ‘दलितों पर सवर्णों का हमला’। 

सवाल इस बात का नहीं है कि हमलावर कौन हैं, क्योंकि दलितों पर हमला करनेवालों में लगभग सभी जातियों की बढ़ चढ़ कर हिस्सेदारी है। इसलिए अब आवश्यकता इस बात की है कि जातियों को बेनकाब भी किया जाए और उनके नाम बताए जाएं। अक्सर जातिगत हिंसा की घटनाओं को सब अपनी सुविधा अनुसार परोसते हैं। कई बार इसका चित्रण ‘दबंगों’ द्वारा की गई हिंसा के रूप में होती है तो कई बार मनुवादियों की हिंसा के रूप में। अगर इससे भी काम नहीं चलता है तो ‘ऊंची जाति’ के लोगों द्वारा प्रायोजित हिंसा कह दिया जाता है। 

समय आ गया है कि सुविधाओं के इस मकड़जाल से बाहर आएं और भारतीय समाज के जातिवादी चरित्र को बताएं। जहां पर भी हिंसा हो, उस जाति का नाम दें और यह इसलिए नहीं कि एक व्यक्ति के लिए पूरे समुदाय को दोषी ठहराया जाए, बल्कि इसलिए कि उत्पीड़न कर रही बिरादरी के अन्य लोग ऐसी घटनाओं का विरोध करते हैं अथवा नहीं। गांवों में तो कोई भी व्यक्ति समाज से बड़ा नहीं होता और दो व्यक्तियों का झगड़ा यदि वे अलग-अलग जातियों के हैं तो वह समाजों के बीच का झगड़ा बन जाता है और फिर उसे सब अपने-अपने समाज के हिसाब से देखते है। सही-गलत, पाप-पुण्य आदि निर्धारण केवल जाति के आधार पर कर लिया जाता है। 

खैर यह समझना जरूरी है कि इस समय कुमहेर में दलितों पर हिंसा गुर्जरों ने की और उनके बड़े संगठन इस घटना पर चुप रहे। विचार करने योग्य बात यह है कि यह सब डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर आयोजित कार्यक्रम से चिढ़कर ऐसे प्रयास किए गए। जबकि वे लोग ही जब आरक्षण और राजनीति का मसला आता है तो फिर ‘बहुजन समाज’ का नाम लेकर ‘सबका हित एक समान’ का नारा देते हैं। 

यह तो साफ है कि दलित अधिकार और आत्मसम्मान के प्रश्न मात्र ‘बहुजन’ व ‘आदिजन’ कहे जाने से समाधान नहीं होनेवाले और दलित-पिछड़ो में एकता के प्रश्न भी ऐसे ही नहीं आनेवाले क्योंकि जब तक दलितों पर होने वाली हिंसा को सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक तौर पर प्रतिकार नहीं किया जाएगा, तबतक इसका कोई उत्तर नहीं है। 

जाहिर तौर पर ऐसी घटनाओं के पीछे अनेक आयाम होते हैं। जिन जातियों का शासन-प्रशासन में दबदबा होता है, उन जातियाें के लोग इसमें रत्ती भी कमी नहीं करना चाहते। और फिर प्रशासन का प्रयास यह रहता है कि घटना को कैसे रफा-दफा कर दिया जाए। 

दरअसल हमलोग अपनी अपनी सुविधाओं के अनुसार घटनाओं को देखते रहते हैं। मसलन, जब किसान आंदोलन चल रहा था तब हम गदगद थे। सभी को यह लगा कि देश मे क्रांति आ रही है, लेकिन अंत मे सभी किसानों ने अपने-अपने गांवों मे अपनी-अपनी बिरादरी की अनुसार मतदान किया। लिहाजा भाजपा और भी बेहतर तरीके से चुनाव जीत गई। राजस्थान में भी चुनाव का मौसम है और अब दलितों पर हिंसा की खबरें लगातार आ रही हैं, लेकिन किस खबर को बढ़ाना है और किस खबर को सीमित कर देना है, इसका फैसला न केवल मीडिया के लोग कर रहे हैं, अपितु हमारे सामाजिक कार्यकर्ता भी कर रहे हैं।

उत्पीड़न के खिलाफ प्रदर्शन करतीं दलित महिलाएं

भारत मे जाति समाज की एक क्रूर सच्चाई है, जिससे हम निपटना नहीं चाहते। हमें याद भी नहीं रहता। आज कुमहेर में जो हुआ, वह पहली बार नहीं है और ना ही आखिरी बार। दरअसल अपने को बहुजन समाज से जोड़ने वाली जातियों ने भी दलितों पर हमला करने मे कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। इसलिए बहुजन समाज का कह देने से या उसके नारे लगा देने भर से सामाजिक एकता मजबूत नहीं होगी। जाति को ध्वस्त करने का डॉ. आंबेडकर का विचार सबके सामने लाना होगा। पहले समाज की क्रूर हकीकत को समझना होगा और फिर यह कि क्या समाज वाकई मे ऐसी घटनाओं पर प्रायश्चित करता है या नहीं। 

कुमहेर की घटना से तीस वर्ष पूर्व की एक वीभत्स घटना की याद अनायास हो जाती है। वह घटना, जो कि हमारे जनतंत्र के ऊपर एक गहरा धब्बा है। लेकिन उससे अधिक दागदार यह कि पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाया? जिस बेशर्मी और बेदर्दी सी पूरे घटनाक्रम को पलट दिया गया, वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि आज भी विचारणीय है। 

घटना जून, 1992 की है। राजस्थान के कुमहेर के इलाके में दलितों मे जाटव समाज के लोगों मे थोड़ी सी जमीन होने की वजह से उनमें थोड़ी खुशहाली आ गई थी। कुछ लोग सरकार मे अच्छे पदों पर थे और धीरे-धीरे आंबेडकरवाद की आहट भी वहां सुनाई दे रही रही थी। घटना के बारे में कुछ लोगों बताते हैं कि एक सिनेमा हॉल मे जाटव जाति के चार लड़कों से जमीन पर बैठने को कहा गया, जिससे कहा-सुनी हुई और सिनेमा हॉल के जाट कर्मचारियों ने दबंगई दिखाते हुए उन्हें पीट दिया था, लेकिन शायद घटना में कोई और मोड भी था, जो हमारी ग्रामीण सामंती मानसिकता को दिखाता है। ऐसा बताया जाता है के सिनेमा देखने के लिए जाटव परिवार के लड़के-लड़कियां सब साथ थे और हॉल मे मौजूद कुछ बनिया और जाट लड़कों ने उन्हे छेड़ा और यही से बात बढ़ी। जाटव लड़कों ने उन्हे समझाने की कोशिश की, लेकिन भारत की सामंती संस्कृति में तो तथाकथित बड़ी जातियों के दबंग लोग कभी किसी की नहीं सुनते हैं, क्योंकि वे तो स्वयं ही कानून होते हैं। जब बात उनके हाथ से निकलती नजर आती है तो वे फिर से कोई कहानी बनाते हैं और उसमें ‘महिला’ की ‘अस्मत’ समुदाय को ‘एक’ करने का बहुत बड़ा फैक्टर होता है। जाटों ने दलितों को मारा-पीटा, लेकिन उन्हे समझ आ गया था कि दलित अब जवाब दे रहे हैं और देंगे तो घटना में एक नया ट्विस्ट लाया गया। इस घटना के दो दिन बाद यह खबर फैलाई गई कि एक जाट लड़की के साथ ‘उत्पीड़न’ हुआ है और यह आरोप लगाया गया कि वह जाटव लड़कों द्वारा किया गया है। 

उसके बाद 6 जून को कुमहेर के चामुंडा देवी के मंदिर परिसर मे एक जाट पंचायत होती है, जिसमे 5 से 10 हजार की संख्या में लोग एकत्र होते है। इसमें प्रशासन को चेतावनी दी जाति है और ऐसा आरोप लगता है कि बैठक मे मौजूद एक मात्र जाटव नत्थी सिंह की हत्या होती है। कहा तो यह भी जाता है कि उसके खून का टीका लगाकर आरोपियों ने लोगों को जाटव समाज के विरुद्ध और भड़काया। इस घटना के बाद मौजूद भीड़ ने जाटव मुहल्लों और बस्तियों पर हमला किया। लोगों के घर जला दिए गए और उन्हें घरों से निकलकर भागने के अवसर भी नहीं मिले। पुलिस वहां मौजूद थी, लेकिन कुछ नहीं कर पाई और हिंसा में 17 दलित मारे गए। 

आखिर कुमहेर के दलितों पर हमला क्यों हुआ और क्या बात खटक रही थी जाटों के दिमाग में? राजस्थान में दलित अभी भी बहुत दवाब मे रहते हैं। भूमि सुधार नहीं हुए हैं और अधिकांश भूमिहीन हैं। लेकिन कुछ ऐतिहासिक कारण हैं, जिन्हे समझना जरूरी है और यह कि परिवर्तन आते कैसे हैं। 

कुमहेर भरतपुर जिले का हिस्सा है, जहा राजनीति और सामाजिक हैसियत मे जाटों का आधिपत्य है। यह उत्तर प्रदेश के आगरा जिले से जुड़ा है और आगरा बहुजन समाज के आंदोलन का गढ़ रहा है। आंबेडकरवाद महाराष्ट्र से बाहर सबसे अधिक प्रचारित और प्रसारित करनेवालों मे आगरा के जाटव समुदाय के लोगों की बड़ी भूमिका है। इसका परिणाम यह हुआ कि इस समुदाय के न केवल बुद्धिजीवी आगे आए अपितु व्यवसाय आदि में भी यह समुदाय किसी से पीछे नहीं रहा। बौद्ध धम्म आंदोलन भी उत्तर भारत मे सबसे पहले आगरा से ही खड़ा हुआ। आगरा के बदलाव का असर कुमहेर के जाटवों पर भी हुआ और वे अपने भले-बुरे का सोचने लगे थे और आंबेडकरवाद ने उनके अंदर आत्मसम्मान पैदा कर दिया और शायद यही स्वाभिमान जाट और गुर्जर समाज के जातिवादी तत्वों को पसंद नहीं आए। 

दलित हिंसा और उन्हे कानूनी मदद पहुचाने के मामले मे राजस्थान में सबसे बड़े और चर्चित संगठन ‘सेंटर फॉर दलित राइट्स’ के संस्थापक पी एल मीमरोठ ने कुमहेर को लेकर बहुत संघर्ष किया और दिल्ली सहित देश भर के न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओ को इस घटना की जांच मे सहयोग किया, लेकिन इस घटना में कुछ नहीं हुआ। वह बताते है–

“जून 1992 में कुम्हेर (भरतपुर) में दलितों का नरसंहार हुआ, जिसमें सरकारी आंकडों के अनुसार 17 दलित (जाटव) को जिले के दबंग जाति के लोगों ने जिंदा जला दिया था। इस प्रकरण में महिलाएं व बच्चे घायल हुए व सैकडों पशुधन मारे गए। 

दलितों पर यह हमला दबंगों की हिंसक भीड ने किया और पुलिस दल की मौजूदगी में दलितों के मोहल्ले में आग लगाकर जिंदा जला दिया। वास्तव में कुम्हेर की घटना बहुत ही निमर्म व अफसोसजनक थी। पुलिस प्रशासन तथा जिले की दबंग जातियों के गठजोड के कारण दलितों को न्याय से वंचित किया गया। इस कारण इस घटना ने पूरे राजस्थान की राजनीति को प्रभावित किया। इस घटना के बाद स्थानीय पुलिस ने आतताइयों को बचाने के लिए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज तक नही की। घटना के तीन दिन बाद ही सीबीआई ने आकर इस घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की। राज्य सरकार ने इस दुखद कांड की जांच के लिए लोढा कमीशन बिठाया, जिसने 3 वर्ष 6 माह बाद सभी हमलावारों तथा हमले के लिए प्रेरित करने वाले राजनेताओं को बचाने के लिए गोलमोल रिपोर्ट सरकार के सामने पेश की, जिसे सरकार ने मामले को पुराना बताकर ठंडे बस्ते में डाल दिया। इससे पूरे राजस्थान की दलित राजनीति और राजनेताओं में आक्रोश पैदा हुआ। राजस्थान में सशक्त दलित नेतृत्व का अभाव है और इस कारण जातिवाद, क्षेत्रवाद व राजनीतिक गुटो में विभक्त हो गया है। दलित इस घटना के बारे में कोई सामूहिक व निर्णायक भूमिका अदा नही कर पाए। आज इस घटना के 25 वर्ष से ज्यादा हो गये, परंतु जिले के जाटव व जाटों में इस घटना को लेकर अभी भी कटुता बनी हुई है।” 

अब तो इस घटना के तीस वर्ष गुजर गए। न्यायपालिका तो अपनी रफ्तार से चलती है और वो कोई काम तब तक आगे नहीं बढ़ा पाएगी जब पुलिस ठीक से केस फाइल न करे और पुलिस कभी अपना काम तबतक नहीं करेगी जबतक कि राजनैतिक नेतृत्व में इच्छाशक्ति न हो। जबकि राजनैतिक नेतृत्व का सरोकार केवल वोटों तक सीमित होता है। राजस्थान मे दलितों पर हिंसा जारी है, क्योंकि राजनैतिक नेतृत्व चाहे सत्ताधारी हो या उनको हटाकर सत्ता मे आने का ख्वाब देखने वाले दूसरे लोग हैं, वे सभी उन्ही जातियों से आते हैं, जो दलितों पर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हिंसा करते रहे हैं और उनके आत्मसम्मान को खत्म करने के लिए हर प्रकार के हथकंडे चाहे वह डराने-धमकाने हो या सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार तक अपनाते है और हमारे नेताओ में इतनी ताकत नहीं है के वे इन खाप पंचायतों का विरोध कर सकें तथा दलितों के मानवाधिकारों और आत्मसम्मान की बातकर अपने समाज को बदलने के लिए कह सकें। हालांकि यह जरूर है कि दलितों में बदलाव की जो हवा आंबेडकरी आंदोलन से आई है, वह आगे बढ़ रही है। कहीं उसकी रफ्तार तेज है और कहीं धीमे। लेकिन अब इसे रोका नहीं जा सकता है क्योंकि आंबेडकरवारी आंदोलनों ने पूंजीवादी पुरोहितवादी शक्तियों के पैरों की जमीने वैसे भी खिसका दी है और उन्हे अब आंबेडकरवाद का सहयोग लेना ही पड़ेगा तभी वे आगे बढ़ सकेंगे। 

(संपादन : नवल, अनिल)  


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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