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बहस-तलब : ब्राह्मणवाद से जद्दोजहद के बीच बौद्ध और आंबेडकरवादी होने के निहितार्थ

जिस वैकल्पिक संस्कृति की बात डॉ. आंबेडकर कर रहे थे, वह अभी पूरी तरह से हर समुदाय में नहीं पहुंची है। लेकिन बदलाव की आहट तो आ ही चुकी है। जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में भी अब विभिन्न समुदायों के लोग शादियों में ब्राह्मण पुरोहित के बजाय अपने हिसाब से ‘लगन’ तय कर रहे हैं। पढ़ें, साप्ताहिक स्तंभ ‘बहस-तलब’ के तहत विद्या भूषण रावत का यह आलेख

आंबेडकर जयंती के अवसर पर अक्सर जनसभाएं अब परंपरा बनती जा रही हैं। लेकिन इस बार मुझे इस अवसर पर अपने एक आंबेडकरवादी मित्र महेशानंद जी की बेटी के विवाह मे शामिल होने का निमंत्रण मिला। महेश जी उत्तराखंड मे आंबेडकरी आंदोलन को समर्पित एक साहित्यकार हैं, जिन्होंने गढ़वाली भाषा में शब्दकोश बनाया है तथा दलितों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध हमेशा अपनी आवाज बुलंद की है। गढ़वाली भाषा मे उनके कविता संग्रह और कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। महेश जी उत्तराखंड के शिल्पकार समाज से आते है और उन्होंने जातीय पूर्वाग्रहों के विरुद्ध जीवनपर्यंत संघर्ष कर अपना एक मुकाम हासिल किया है। उनकी बेटी का विवाह था और हालांकि साधारण भाषा में तो हम यह कह सकते है कि विवाह दो व्यक्तियों के बीच का निजी मामला है, लेकिन ऐसा भारत मे होना तो बहुत मुश्किल है और तभी संभव है जब दोनों व्यक्ति समाज से कट जाए और समाज से बाहर रहें। महेश जी को भी परंपरा और परिवर्तन का समन्वय करना पड़ा, लेकिन मै कहना चाहता हूँ कि उन्होंने इसे बेहतरीन तरीके से किया।

यह बात मैं इसलिए कर रहा हूं कि अक्सर हम आसानी से कह देते हैं कि समाज को छोड़ क्यों नहीं देते। लेकिन जितना आसान यह कहना होता है उतना ही कठिन इस पर अमल करना। भारत मे विवाह दो व्यक्तियों से अधिक दो परिवारों का मिलन है और इसलिए यह वैयक्तिकतता से ऊपर हो जाता है। महेश जी के परिवार के लोग विवाह पारंपरिक तरीके से चाहते थे। जबकि महेश जी बाबा साहब की जयंती को भी विवाह समारोह में मनाना चाहते थे, क्योंकि विवाह 14 अप्रैल के दिन निर्धारित हुआ था। अंततः उन्होंने रिश्तेदारों की भी थोड़ी बात मानी और अपनी बात भी उनसे मनवा दी। 

विवाह समारोह बेहद शालीनता से सम्पन्न हुआ। दूल्हा-दुल्हन के जयमाल के समय बाबा साहब की फोटो पर पहले मुझे भी महेश जी के साथ माल्यार्पण करने के अवसर मिला और फिर वर-वधू व अन्य लोगों ने भी पुष्पांजलि अर्पित की। उस स्थान पर विवाह के दिन यह बात करना बहुत बड़ी बात है। 

यहां मैं यह बात भी बताना चाहता हूं कि उत्तराखंड में शिल्पकार समाज में 1925-1930 के दौरान बहुत बदलाव आए, जिसमें आर्य समाज की बड़ी भूमिका रही। लेकिन इसी दौर मे मुंशी हरी प्रसाद टमटा के नेतृत्व में लोगों ने गोलमेज सम्मेलन में पृथक निर्वाचन के लिए डॉ. आंबेडकर का समर्थन किया और उन्हें पत्र लिखा। उत्तराखंड मे शिल्पकारो का बहुत बड़ा वर्ग आज भी आर्य समाजी परंपराओं को मानता है और डॉ. आंबेडकर को भी। बिल्कुल वैसे ही जैसे रविदासी समाज के लोग सांस्कृतिक और धार्मिक तौर पर अपनी परंपराओं पर चल रहे हैं और बाबा साहेब का सम्मान भी करते हैं। ऐसे ही मुस्लिम और ईसाइयों में भी यह चल रहा है। मतलब यह कि डॉ. आंबेडकर को सभी अपनी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिदृश्य में बेहतरी का कारक मान रहे हैं, और अपनी धार्मिक व सांस्कृतिक परंपराओं को नहीं छोड़ रहे हैं। 

दरअसल, इस विषय को लाने का मेरा उद्देश्य वह बात है जो मैं हमेशा कहता रहा हूं कि सामाजिक परिवर्तन एक धीमी प्रक्रिया है। बहुत से स्थानों पर दूसरी और तीसरी पीढ़ी के लोग बदलाववादी होते हैं। कई बार हमारा पद प्रतिष्ठा भी मदद करता है और किसी दूसरे की हिम्मत नहीं होती। लेकिन अभी भी गांवों मे लोग दोनों पद्धतियों का मिश्रण कर रहे हैं, क्योंकि वे अपने रिश्तेदारों और समाज से अलग नहीं रह सकते और वे आंबेडकरवादी रास्ते पर भी चल कर दिखाना चाहते हैं। 

कुछ वर्षों पूर्व मैं अपने एक मित्र की बेटी की शादी में हरियाणा गया था। हमारे मित्र बड़े क्रांतिकारी थे और एक समय सफाई कर्मचारी संगठनों से जुड़े थे। उनके पास राजनीतिक समझ थी और वे अपने को वामपंथी कहते थे। विवाह के दिन जब घर पर विभिन्न परंपराओं की बात आ रही थी तो उन्होंने कहा कि मैं इन परंपराओं को नहीं मानता। जब उनके बड़े भाई ने बताया कि दूल्हे के परिवार के लोग इन बातों का बुरा मांनेंगे तो हमारे मित्र के मुंह से निकल गया कि उन्हें तो इन बातों से वैसे भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि वह तो ईसाई हैं। बस यह बात सुनकर तो हमारे मित्र के भाई बहुत गुस्से में आ गए और उन्होंने अपने भाई को बहुत खरी-खरी सुनाई। खैर बात ज्यादा नहीं बढ़ी और शादी ठीक-ठाक तरीके से सम्पन्न हो गई।

गैर ब्राह्मणवादी तरीके से शादी का बढ़ रहा चलन

दरअसल, जिस वैकल्पिक संस्कृति की बात डॉ. आंबेडकर कर रहे थे, वह अभी पूरी तरह से हर समुदाय में नहीं पहुंची है। लेकिन बदलाव की आहट तो आ ही चुकी है। जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में भी अब विभिन्न समुदायों के लोग शादियों में ब्राह्मण पुरोहित के बजाय अपने हिसाब से ‘लगन’ तय कर रहे हैं। वहां अर्जक संघ का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। लोगों ने ब्राह्मणों को बुलाना छोड़ दिया है और उनके अपने समुदायों के लोग ऐसे विवाह सम्पन्न करवा रहे हैं। ऐसे परिवर्तन उत्तर प्रदेश में आंबेडकरी आंदोलन की ताकत को भी दिखाते हैं। फिर भले ही बसपा जैसी पार्टी राजनैतिक तौर पर कमजोर हो गयी हो। विवाह पंडालों में अब सावित्रीबाई फुले, जोतीराव फुले, डॉ. आंबेडकर, छत्रपति शाहूजी महाराज, पेरियार, श्रीनारायन गुरु की तस्वीरें लगायी जाने लगी हैं। अभी छठ के पर्व में भी महिलाओं ने बुद्ध और डॉ. आंबेडकर की तस्वीरें लगाना शुरू किया है।

दरअसल, दलितों मे जिन समुदायों ने डॉ. आंबेडकर की सांस्कृतिक क्रांति का हिस्सा बनने का निर्णय किया, वे तो अब पूरी तरह से बौद्ध परंपरा के अनुसार विवाह और अन्य संस्कार कर रहे हैं। इसमें अब ओबीसी के लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। पूर्वांचल मे कुशवाहा और मौर्या लोगों में यह बहुत तेज गति से बढ़ रही है। लेकिन इसमें एक पेंच फंसा है। 

अभी कुशवाहा और मौर्य समाज मे बुद्ध या सम्राट अशोक को इसलिए पूजा जा रहा है क्योंकि वे इन्हें अपनी जाति का मानते हैं। ऐसा करना दो महानायकों को अपनी जाति तक सीमित कर बहुत छोटा कर देते हैं। अलग-अलग समुदायों के भंते लोगों मे भी तनाव रहता है। ऐसे भी लोग हैं, जो डॉ. आंबेडकर की तस्वीर को हर स्थान पर नहीं लगवाना चाहते और उन्हें दलितों द्वारा केवल उनके उपर फोकस किए जाने से परेशानी है। ऐसे लोग यह कह रहे हैं कि डॉ. आंबेडकर को को बुद्ध से बड़ा दिखाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो गलत है। उनके मुताबिक, अब धम्म में आकर भी वही पुरानी जातीयता दिखाना बेहद गलत बात है।

हिंदी के कुछ धुरंधर साहित्यकारों के मध्य एक बार मैं गलती से बैठ गया तो उन्होंने मेरा ‘टेस्ट’ लेना शुरू किया कि तुम बुद्धिज़्म के विषय में कितना जानते हो। बुद्ध भी तो ऐसे थे या फिर वैसे थे। ब्राह्मणवादी तंत्र मे ऐसे क्रांतिकारी दिखने वाले ‘लिबरल’ ज्यादा खतरनाक होते हैं। पहले तो वे बदलाव के हमारे सभी नायकों का ‘सरलीकरण’ कर देते हैं और फिर अपनी ‘वाकचातुर्य’ से आपको स्वयं पर तरस खाने को मजबूर कर देंगे। जब उन्होंने मुझे बहुत इधर उधर के तीर चलाए तो मैंने कहा कि मेरा बुद्धिज़्म डॉ. आंबेडकर की देन है। पहले मैं भी यही कहता था कि बुद्ध कितने गैर जिम्मेवार व्यक्ति थे कि उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को बिना बताए घर छोड़ दिया। मेरी समझ में नहीं आता था कि एक व्यक्ति, जिसे सुख-दुख व बड़े-छोटे की समझ नहीं थी, उसने सालों तक आंख बंद कर कैसे ‘ज्ञान’ प्राप्त कर लिया। लेकिन डॉ. आंबेडकर की ऐतिहासिक पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ हम सबकी आंखें खोलती हैं और बताती हैं कि बुद्ध की क्रांति आंख बंद कर नहीं अपितु समुदायों के बीच जाकर हुई। उन्होंने पानी के बंटवारे के सवाल को लेकर अपने पिता का साथ छोड़ा। मतलब यह कि दुनिया में पानी के लिए पहला आंदोलन बुद्ध का था। इससे भी महत्वपूर्ण यह कि डॉ. आंबेडकर ने बुद्ध के क्रांतिकारी पक्ष को दुनिया के सामने लाकर रख दिया। वर्ना ब्राह्मणवादी कथावाचकों ने बुद्ध की आंखों कोख बंद दिखाकर उन्हें विष्णु का अवतार ही बना दिया होता। आज दुनिया बुद्ध के मानववादी वैज्ञानिक चिंतन के प्रति आकर्षण महसूस कर रहे हैं।है इसमें डॉ. आंबेडकर की बड़ी भूमिका है। भारत मे बुद्ध धम्म के पुनरुत्थान में डॉ. आंबेडकर की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता और हम सभी को इस बात को स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। बाबा साहब ने बुद्ध का क्रांतिपथ हमारे सामने रखा और इसलिए देश इतने बड़े सांस्कृतिक परिवर्तन को देख रहा है।

जो लोग बुद्ध को अपनी बिरादरी का मानकर ही चल रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि बौद्ध होने का मतलब जाति के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ मानव कल्याण है। थाइलैंड, ताइवान, चीन, कंबोडिया, दक्षिण कोरिया, सिंगापूर, म्यांमार, श्रीलंका, मलेशिया आदि देशों मे बुद्ध धम्म प्रचलित है। इनमें से कई स्थानों पर वह राज्य के अत्याचार का हिस्सा भी हुआ है और इससे सावधान रहने की जरूरत है। उत्तर भारत के विपरीत महाराष्ट्र में बुद्धिज़्म की क्रांति साफ दिखाई देती है। जबकि उत्तर भारत में अभी विवाह में केवल बाहरी आवरण ही बदला है। उत्तर भारतीयों में अभी भी विवाह के दौरान वधू को लाल वस्त्रों मे रहना परंपरा का हिस्सा है। सिंदूर और मगलसूत्रों की परंपरा बुद्धिस्ट विवाहों में भी कायम है। लेकिन महाराष्ट्र में वर-वधू सफेद कपड़ों में बेहद खूबसूरत नजर आते हैं। विवाह की रस्म भी बेहद छोटी होती है।

महाराष्ट्र में बुद्धिस्ट सांस्कृतिक क्रांति भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण उदाहरण है। धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस के दिन नागपुर जैसे शहर में, जहां से आरएसएस के कार्यक्रम को राष्ट्रीय चैनलों के जरिए प्रसारित किया जाता है, उससे कई गुना बड़ा कार्यक्रम दीक्षा भूमि पर होता है, जहा लाखों की संख्या में लोग आते हैं, उन्हें कोई राजनैतिक दल या सत्ताधारी नहीं बुलाते। ये लोग डॉ. आंबेडकर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए वहां आते हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में पेरियार ने भी सांस्कृतिक परिवर्तन को महत्वपूर्ण माना और सेल्फ रेसपेक्ट मैरिज [आत्म सम्मान शादी] को कानूनी जामा पहनाया। तमिलनाडु में ऐसी शादियों को मान्यता प्राप्त है और एक सर्टिफिकेट वर-वधू को दिया जाता है। वहीं उत्तर भारत मे बिना धर्म की परंपराओं की शादियों के लिए स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी करनी पड़ती है, जिसकी प्रक्रिया जटिल है। आवेदक को एक महीने की नोटिस देनी पड़ती है और फिर उसके आलोक में दोनों परिवारों से अनापत्ति संबंधी हलफनामा देना जरूरी होता है। यदि किसी ने कोई सवाल खड़ा कर दिया तो शादी मुश्किल मे पड़ जाती है। लिहाजा प्रेमी युगल अक्सर या तो आर्य समाज मंदिर में शादी करते हैं या अन्य धार्मिक स्थानों पर चले जाते हैं, जहां उन्हें विवाह का सर्टिफिकेट मिल जाता है।

बहरहाल, कई स्थानों पर समाज में बदलाव प्रारंभ हो चुके हैं। यह सकारात्मक संकेत है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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