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हार के बाद कैसे बिखरने लगा अखिलेश यादव का कुनबा?

पिछड़े और दलितों को गोलबंद करने वाले बड़े चेहरे सपा के पास नहीं हैं। हालांकि तमाम मनमुटाव के बावजूद अखिलेश यादव को एक अदद शिवपाल की भी ज़रूरत है, जो संगठन को बूथ स्तर तक लेकर जाए और सड़क पर पार्टी की तरफ से संघर्ष करे। बता रहे हैं सैयद जै़ग़म मुर्तजा

हाल के दिनों में शिवपाल सिंह यादव के समाजवादी पार्टी (सपा) छोड़कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होने की चर्चा तेज़ हुई हैं। हालांकि शिवपाल सिंह यादव से जुड़े लोग इस चर्चा को महज़ अफवाह बता रहे हैं। लेकिन हालात बता रहे हैं कि यह चर्चा पूरी तरह बेबुनियाद भी नहीं हैं। वैसे यह बात तो सही है कि शिवपाल सिंह यादव नाराज़ हैं, लेकिन क्या वह बीजेपी में जाने को तैयार हैं। इसे लेकर जितने मुंह, उतनी ही बातें हो रही हैं।

शिवपाल सिंह यादव सपा की बुनियाद भले ही न रहे हों, लेकिन लंबे अरसे तक उनका पार्टी में दबदबा रहा है। जिस काल में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे, तब पार्टी संगठन, और टिकट वितरण के अलावा बूथ प्रबंधन तक में शिवपाल की ठीक-ठाक चलती थी। लेकिन वर्ष 2012 में अखिलेश यादव के सक्रिय राजनीति में आने के बाद से उनका क़द घटता ही चला गया। वर्ष 2012 में बनी सरकार में शिवपाल के पास लोक निर्माण विभाग जैसा विभाग ज़रूर था, लेकिन साधना गुप्ता से नज़दीकी, अपर्णा यादव और गायत्री प्रजापति को संरक्षण जैसे मुद्दे पर अखिलेश यादव से उनकी दूरियां बढ़ती गईं।

इसके बाद रामगोपाल यादव, और धर्मेंद्र यादव जितना अखिलेश के नज़दीक आते गए, शिवपाल उतना ही दूर हो गए। वर्ष 2017 आते-आते पार्टी में बिखराव की नौबत आ गई। अखिलेश विभाजन तो न टाल सके, लेकिन पार्टी के चुनाव चिह्न, दफ्तर और संसाधनों पर उनका क़ब्ज़ा हो गया। यह शिवपाल सिंह यादव के लिए नई स्थिति थी। अभी तक मुलायम सिंह के बाएं हाथ कहे जाने शिवपाल ने नई पार्टी बनाई, और चुनाव लड़ा। भले ही उनकी पार्टी को सफलता नहीं मिली लेकिन वर्ष 2017 में सपा की हार और भाजपा की जीत का सेहरा उनके सिर बंधा। तमाम यादव बाहुल सीटों पर सपा की हार हुई और लोगों ने इसे शिवपाल फैक्टर माना।

शायद यही वजह थी कि वर्ष 2022 में अखिलेश यादव शिवपाल को साथ लाने को मजबूर हुए। हालांकि उन्होंने शिवपाल समर्थकों को 60 टिकट देने की मांग ठुकरा दी, लेकिन माना यही गया कि तमाम ठेकेदारों, और बाहुबली समर्थकों के दबाव में शिवपाल ने सिर्फ एक टिकट पर समझौता मंज़ूर कर लिया। उन्हें उम्मीद रही होगी कि सपा की सरकार बनी तो अपने समर्थकों को काम दिलाकर ही प्रासंगिक बने रहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सपा की फिर हार हुई और शिवपाल यादव फिर किनारे हो गए।

अखिलेश यादव व शिवपाल सिंह यादव

अखिलेश और शिवपाल के बीच ताज़ा विवाद नेता प्रतिपक्ष के पद को लेकर शुरु हुआ। चर्चा थी कि अखिलेश करहल विधानसभा सीट से इस्तीफा देंगे और शिवपाल नेता प्रतिपक्ष बनेंगे। इस बीच अखिलेश के सलाहकारों ने सलाह दी कि ऐसा हुआ तो शिवपाल तमाम विधायकों के दम पर पार्टी क़ब्ज़ा सकते हैं। बस यहीं से खेल बदल गया। चर्चा शुरु हुई कि शिवपाल या तो आज़मगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे या भाजपा उन्हें राज्य सभा भेजेगी। हालांकि शिवपाल का भाजपा में जाना भी इतना आसान नहीं है। 

एक तो भाजपा में तमाम नेता हैं, जो शिवपाल के पार्टी में आने को लेकर असहज हैं। ख़ासकर पिछड़ों की राजनीति करनेवाले केशव प्रसाद मौर्य को लगता है कि शिवपाल भाजपा में आए तो उनका क़द घट जाएगा। ऐसे ही तमाम ओबीसी और दलित नेता हैं, जो मानते हैं कि शिवपाल का काम करने का जो तरीक़ा रहा है उसके चलते वह पिछड़ों के तमाम नेताओं का भविष्य निगल जाएंगे।

इधर शिवपाल की अपनी दिक्कत हैं। अखिलेश के रहते सपा में उन्हें अब पहले जैसा स्थान मिलने वाला नहीं है। उनके बेटे आदित्य का भविष्य भी अधर में है, क्योंकि अखिलेश अब नहीं चाहते कि सपा में परिवार के लोग चुनाव लड़ें। इसी के चलते अपर्णा पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हुई हैं। फिर शिवपाल को जिस तरह अपनी मर्ज़ी से काम करने की आदत है, वह भाजपा में संभव नहीं है। भले ही सपामें उनका पहले-सा दबदबा नहीं है , लेकिन उनके जैसा नेता भाजपा में अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, और केशव प्रसाद के यहां रोज़ाना हाज़िरी नहीं दे सकता।

शिवपाल की एक दिक्कत यह भी है कि वह 2012 के बाद से संगठन के कामों से दूर हैं। इस बीच अखिलेश यादव अब यादवों के तक़रीबन सर्वमान्य नेता बन चुके हैं। हालांकि शिवपाल के पास अभी भी कई समर्थक हैं लेकिन उनकी आवाज़ पर कुछ भी करने को तैयार रहने वाले नेता या तो अब बूढ़े हो गए हैं या फिर अब इस दुनिया में नहीं है। ऐसे में उनको हर स्तर पर नई शुरुआत करनी पड़ेगी। इसके चलते उनके पास विकल्प कम ही हैं। अब या तो वह अपनी पार्टी को फिर से ज़िंदा करें, या फिर नया घर ढूंढे। भाजपा उनकी अभी तक की सेक्युलर राजनीति के लिहाज़ से फिट नहीं है, और कोई दूसरा दल नहीं है, जहां उन्हें पनाह मिले। हालांकि एक समय उनके कांग्रेस में जाने की भी चर्चा थी लेकिन फिर बात शायद आगे बढ़ी नहीं।

इस बीच अखिलेश यादव की अपनी चिंताएं हैं। शिवपाल यादव के सपा से जाने को लेकर वह ज़्यादा चिंतित नहीं हैं। शिवपाल को पार्टी का जितना नुक़सान करना था, वह 2017 में कर चुके हैं। ऐसे में अगर वह जाते भी हैं तो सपा पर ज़्यादा असर नहीं होगा। अखिलेश की चिंता है कि पार्टी में यादव और मुसलमानों के अलावा दूसरी जातियों के वोटरों को कैसे जोड़ा जाए। क़रीब 30 साल पहले, यानी अक्टूबर 1992 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में पूर्ववर्ती जनता दल के नेताओं ने जब सपा का गठन किया तब पार्टी के पास तमाम नेता थे। अब उन नेताओं की कमी साफ दिखती है।

सपा को अगर सत्ता में वापसी करनी है तो उसे बेनी प्रसाद वर्मा, मोहन सिंह, जनेश्वर मिश्रा, रामाशंकर कौशिक, आज़म ख़ान, क़ाज़ी रशीद मसूद, पारसनाथ यादव, रेवती रमण सिंह, जमुना निषाद जैसे चेहरों की ज़रूरत पड़ेगी। यह नेता मुलायम सिंह यादव की असली ताक़त थे। सपा के पास अब ऐसे नेता कम हैं, जो एक से ज़्यादा ज़िलों में अपना प्रभाव रखते हों। ख़ासकर पिछड़े और दलितों को गोलबंद करने वाले बड़े चेहरे सपा के पास नहीं हैं। हालांकि तमाम मनमुटाव के बावजूद अखिलेश यादव को एक अदद शिवपाल की भी ज़रूरत है, जो संगठन को बूथ स्तर तक लेकर जाए और सड़क पर पार्टी की तरफ से संघर्ष करे।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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