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बहस-तलब : वर्चस्ववाद की शब्दावली

भाजपा ने गांधी के ‘स्वराज’ के स्थान पर ‘सुराज’ का नारा दिया। यह नारा लाल कृष्ण आडवाणी ने लगाया। ऊपर से देखने में इसमें कोई परेशानी नहीं है। लेकिन थोड़ा खंगालकर देखें तो पता चलेगा कि आखिर किस एजेंडे के तहत वह ऐसी बात कह रहे थे। पढ़ें, विद्या भूषण रावत का यह आलेख

दशकों पूर्व जब देश मे ‘नाच-गाकर’ खबरे दिखाने वाले चैनल नहीं थे, तब रेडियो पर आकाशवाणी पर ही भरोसा करना होता था। आकाशवाणी से समाचार सुनते समय हमें कई शब्दों की जानकारी होती थी, लेकिन सबकुछ बहुत शालीन तरीके से होता था। हम यह समझ जाते थे के यह सरकारी सेवा है, इसलिए किसी भी प्रकार से कोई ‘रिस्क’ लेकर काम नहीं करते और बड़े ही सौम्य तरीकों से अपनी बात को रखते थे। हालांकि यह सब किसी से छिपी हुई बात नहीं थी कि इस प्रकार की शब्दावली किसके लिए प्रयोग की जा रही है। जैसे शहर में ‘पुराने’ इलाके में कुछ कुछ स्थानों पर ‘छिटपुट’ वारदात हुई है और स्थिति तनावपूर्ण लेकिन ‘नियंत्रण’ में है। पुलिस ‘संवेदनशील इलाकों’ मे गश्त लगा रही है। प्रधानमंत्री ने ‘सांप्रदायिक शक्तियों’ से सावधान रहने को कहा। 

चूंकि रेडियो सरकार के अधीन होता था, फिर भी भाषा का कमाल था। कहीं कोई गाली नहीं। हालांकि यदि शब्दों को ध्यान से विश्लेषण करें तो उसके निहितार्थ समझ आ जाएंगे। जैसे पुराना इलाका अक्सर वह होता था, जहा मुस्लिम आबादी ज्यादा होती थी। संवेदनशील इलाका भी मुस्लिम आबादी वाले इलाकों को कहा जाता था और ‘सेक्यूलरिज़म’ के सियासी दौर मे ‘सांप्रदायिक शक्तियों’ का मतलब आरएसएस और उसकी तरह की हिन्दूवादी संघठनों से था। दुर्भाग्यवश, उस दौर मे राजनीतिक दलों को कभी भी यह नहीं लगा कि मुस्लिम भी सांप्रदायिक हो सकते हैं, जैसे आज हिन्दुत्व के दौर मे हिन्दू कभी ‘आतंकवादी’ या अपराधी नहीं हो सकते और पूरी डिबेट मुसलमानों के इर्द-गिर्द घूमती है। अब ‘सांप्रदायिक शक्तियों’ के खिलाफ एकजुट होने की हिमाकत मुलायम सिंह यादव भी नहीं कर सकते। सभी यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनसे अधिक हिन्दू हितैषी और कोई नहीं। राजनेताओ और लोकप्रिय मीडिया की भाषा सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ी हुई प्रतीत होती है और इसी हिसाब से जुमले और शब्दावली तय होती हैं। 

उदाहरणार्थ 1990 दशक के बाद मंडल और कमंडल शब्द राजनैतिक शब्दावली का हिस्सा बने। फिर धीरे-धीरे ‘ब्रह्मणवाद’ शब्द भी मुख्यधारा मे बहस के दौरान आने लगा। इसी दौर मे ‘सामाजिक न्याय’ शब्द भी बहुत प्रचलित हुआ। बसपा ने ‘मनुवाद’ शब्द को प्रचलित किया और धीरे-धीरे वह ब्रह्मणवाद के स्थान पर प्रयोग होने लगा। इसके विपरीत मनुवादी दलितों व पिछड़ों में स्वाभिमान आंदोलन को ‘जातिवादी’ कहने लगे। अखबारों मे जातिवादी शब्द का प्रयोग अक्सर दलित, पिछड़े नेताओ और चिंतकों के लिए इस्तेमाल होने लगा और उनकी राजनीति को ‘आइडेंटिटी’ या ‘अस्मिता’ की राजनीति कहा जाने लगा। हालांकि किसी ने भाजपा या हिन्दुत्व के लोगों पर आडेन्टिटी पॉलिटिक्स करने का आरोप नहीं लगाया। 

नये नॅरेटिव गढ़ फैलाया जा रहा है उन्माद

सामाजिक न्याय की राजनीति फुले, आंबेडकर और पेरियार के सशक्त विचारों से उपजी है। लेकिन उत्तर भारत मे इसे जातिगत अस्मिताओं मे बदल दिया गया और जिस तरह का वैचारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकल्प द्रविड आंदोलन में तमिलनाडु मे दिखाई दिया, वह परिदृश्य उत्तर भारत में नहीं दिखा। सामाजिक न्याय की इस राजनीति के पक्ष को सबसे अच्छा भाजपा और हिन्दुत्व की शक्तियों ने समझा और इसमें उन्होंने सामाजिक न्याय की शब्दावली को काटने के लिए नॅरटिव बनाकर नई शब्दावली गढ़नी शुरू की। यदि हम 1980 मे भाजपा के खड़े होने को देखे तो हमे उनके नॅरटिव और शब्दावली बेहद सावधानी से गढ़ी गई है। भाजपा ने पहले से ही ‘राष्ट्रीय’ प्रश्नों पर सेना की कभी आलोचना नहीं की, और इस प्रकार आज के दौर मे पुलिस बलों और सैन्य संस्थानों के लिए वह सबसे पसंदीदा पार्टी बन गई। उसने सार्वजनिक तौर पर ‘आरक्षण’ का विरोध नहीं किया, लेकिन ‘सवर्णों’ को पता है कि उनके हित भाजपा के राज में सुरक्षित है, इसलिए वे पार्टी का विरोध नहीं करते। 

सर्वप्रथम भाजपा ने गांधी के ‘स्वराज’ के स्थान पर ‘सुराज’ का नारा दिया। ये नारा लाल कृष्ण आडवाणी ने लगाया। ऊपर से देखने मे इसमे कोई परेशानी नहीं है, लेकिन थोड़ा खंगालकर देखें तो पता चलेगा कि आखिर किस एजेंडे के तहत वह ऐसी बात कह रहे थे। दरअसल सुराज का असली मतलब कांशीराम के उस स्लोगन मे निहित है, जो उन्होंने बेहद शक्तिशाली तरीके से दिया था और यह था– ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। जब-जब ऐसी आवाजें उठीं, भाजपा ने ‘सुराज’ जैसा नारा दिया जो ‘हिन्दू’ समाज को विभाजन से बचाएगा। लेकिन उसके असली मायने होंगे– ‘वोट तुम्हारा राज हमारा’। इसको इस प्रकार से समझ सकते हैं कि मंडल के विरोध मे कांग्रेस खुले तौर पर दिखाई दी। लेकिन भाजपा उसके विरोध को उकसा रही थी। लेकिन सीधे-सीधे उसका विरोध नहीं कर रही थी, क्योंकि उसे पता था कि पिछड़े वर्ग का विरोध करके वह अब राजनीति नहीं कर पाएगी।

कांग्रेस के पराभव की शुरुआत 1977 से ही हो गई थी और 1990 तक आते-आते पार्टी के बारे मे यह प्रचलित हो गया कि यह पार्टी किसी भी कीमत पर सत्ता चाहती है और विचारहीन राजनीति कर रही है, जिसकी सत्ता के केंद्र मे ब्राह्मणवादी जातिवादी ताकते हैं, जो दलितों व पिछडों का वोट तो चाहती है, लेकिन उन्हें हिस्सेदारी देने को तैयार नहीं। दूसरी और भाजपा ने अपने यहां जातीय गुटबंदी करनी शुरू कर दी और नए नेताओं को तैयार कर दिया, जिनका महत्वपूर्ण पक्ष उनकी वैचारिक ताकत नहीं अपितु जातीय समीकरण था। भाजपा मे अटल बिहारी वाजपेयी युग के अवसान के बाद नरेंद्र मोदी अमित शाह का युग चला है और ये नए-नए जुमले कसने और नए नॅरेटिव बनाने मे माहिर है। सोशल मीडिया के इस युग मे भाजपा ने सवर्ण हिन्दुओ के अंदर पनप रहे असंतोष को सबसे अधिक भुनाया। बहुत से लोग आज यह सवाल पूछ रहे हैं कि ‘हिन्दू’ भाजपा के खिलाफ बोल क्यों नहीं रहे। तो इसका उत्तर देने से पहले हमे समझना होगा कि भाजपा ने कैसे ‘हिन्दुओ’ के अंदर एक ऐसा ‘गर्व’ भर दिया है कि उन्हे लगता है कि यह उनका स्वर्णिम युग है। 

1992 मे जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया था तब भाजपा के नेताओं का अलग-अलग राग था। बहुतों ने कहा के वहां मस्जिद का अस्तित्व ही नहीं था। लाल कृष्ण आडवाणी ने अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन को भारत की आजादी के आंदोलन के समान बताया। मतलब जो लोग देश की आजादी के आंदोलन मे अपनी कुर्बानिया दिए, उनके समकक्ष ही उनलोगों को रख दिया, जिन्हें देश के संविधान मे कोई आस्था नहीं थी और जो भारत की विविधता और धर्मनिरपेक्ष विरासत को भी नहीं स्वीकारते थे। 

इस देश में नॅरेटिव सेट करने का काम ओपिनियन मैकिंग क्लास करती है, जिसका निर्माण पूरी तरह से सवर्ण जातियों से होता है। हिन्दू मुस्लिम के आधार पर ध्रुवीकरण अक्सर उसकी चौधराहट को मजबूत करती है और इसे करने मे उसे महारत हासिल है। 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो सभी सिखों को ‘हत्यारा’ साबित किया जाने लगा। पहली बार देश मे सिखों ने महसूस किया के उन्हे कैसे अलग-थलग किया जा रहा है। राजीव गांधी भारी बहुमत से सत्ता मे आए, लेकिन वह पूरी तरह से एक सांप्रदायिक मैन्डेट था। राजीव गांधी उस समय हिन्दुत्व की राजनीति कर रहे थे और उन्हें नहीं पता था कि यह राजनीति अंत मे काँग्रेस का खात्मा कर देगी। अल्पसंख्यकों को खलनायक बनाकर सत्ता प्राप्त करने का यह तरीका सबसे आसान था। वर्ष 1990 मे राजीव गांधी की हत्या हुई, लेकिन कुछ हुआ नहीं, क्योंकि हत्यारे मुसलमान या सिख नहीं थे। वर्ष 2002 में गुजरात में व्यापक हिंसा हुई और मुसलमानों को निशाना बनाया गया। यह एक नया प्रयोग था और सफल रहा। भाजपा ने वही किया जो कांग्रेन ने 1984 मे किया था। 

अगर उन चुनावों को देखे तो नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री के चलते पहला चुनाव लड़ा था। उनकी शब्दावली बेहद चतुराई वाली थी। वह चुनाव आयुक्त लिंगदोह का नाम लेकर उनसे सवाल पूछते। जेम्स माइकल लिंगदोह। वह मुसलमान को बजाय, पाकिस्तान को टारगेट करते और कहते कि “मिया मुशर्रफ तुम्हें मालूम नहीं है कि हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता”। इस नॅरेटिव को अमेरिका में सितंबर, 2001 में हुए आतंकी हमले ने भी मजबूती प्रदान की। धीरे धीरे आतंकवादी शब्द मुसलमानों का पर्याय हो गया। भाजपा के सभी नेता, संत, बाबा, आतंकवाद शब्द का प्रयोग मुसलमानों के संदर्भ मे करते थे, क्योंकि वे पहले ही कह चुके थे के हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं होता, इसलिए यह टैग तो मुसलमानों के लिए है और उनका नाम लेने की जरूरत नहीं है। 

जब पाकिस्तान और आतंकवादी बहुत इस्तेमाल हो गया तो चुनावों मे उसकी ‘मारक’ क्षमता नहीं रह गए हैं, इसलिए अब नए नए शब्द गढ़े जा रहे थे। दिल्ली के चुनावों के लिए नए शब्द का इस्तेमाल हुआ और वो था ‘विदेशी घुसपैठिये’ और बांग्लादेशी। अब पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के बांग्लाभाषी भी बांग्लादेशी बोलकर डराए जाने लगे। 

2014 के चुनावों मे नरेंद्र मोदी ने गुजरात का ‘विकास’ मॉडल सबको दिखाया और फिर जातीय समीकरण साधकर वह आगे बढ़ गए, लेकिन समय-समय पर जब भी जरूरत पड़ी चुनावों मे ध्रुवीकरण करने हेतु उन्होंने अपनी शब्दावली में लगातार बदलाव किया। 

उत्तर प्रदेश के चुनावों मे योगी आदित्यनाथ ने साफ कहा कि ‘दंगाइयों’ को बख्शा नहीं जाएगा और यह बताया कि प्रदेश अब ‘दंगामुक्त’ हो चुका है। अब ऊपर से देखकर कोई भी ये नहीं कह सकता कि यह कोई सांप्रदायिक भाषा है, लेकिन ‘आतंकवादी’ और ‘बांग्लादेशी’ की तरह यह भी शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए प्रयोग किया जा रहा था। उत्तर प्रदेश मे ‘बुलडोजर’ का मतलब अब सब को समझ आ रहा है और शायद उससे ही प्रभावित हो कर शिवराज सिंह चौहान की मध्य प्रदेश सरकार ने खरगोन में वैसा ही कर दिया। हनुमान जयंती पर शोभा यात्रा मे ‘पथराव’ की एक घटना बाद उन्होंने ‘पत्थरबाजों’ के घर पर ‘बुलडोजर’ चला दिया। ‘पत्थरबाज’ शब्द भी भाजपा ने बहुत प्रचारित कर दिया है और ऐसे लगता है जैसे संघियों ने कभी पत्थर चलाए ही नहीं हों। 

अब दिल्ली मे जब जहांगीरपुरी मे मुसलमानों के घरों को अतिक्रमण हटाने के नाम पर तोड़ा जा रहा था तब दिल्ली की दो प्रमुख पार्टियों मे बहस हो गई। हालांकि भाजपा के पूरे ‘भाषाई’ जुमलेबाजी को सब जानते है, क्योंकि पूरी दिल्ली ही ‘अतिक्रमित’ है और दिल्ली मे सभी पार्टिया ‘अतिक्रमित’ कालोनियों को अब ‘पुनर्वासित बस्तियां’ कहते है। दरअसल यह दिल्ली के अलग-अलग कानूनों की समस्या भी है और यदि ईमानदारी से ‘अतिक्रमण’ हटाने की बात हो तो बड़े-बड़े नेता भी इसकी जद मे आ जाएंगे। सैनिक फार्म जैसे पॉश इलाकों में भी बुलडोजेर चलाना पड़ेगा। दिल्ली की आम आदमी पार्टी ने भी दिल्ली में हिंसा के लिए बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को दोषी ठहराया जबकि पिछले 8 वर्ष से केंद्र मे भाजपा और दिल्ली में केजरिवाल सत्ता मे है। केजरिवाल को दिल्ली की पुनर्वासित कालोनियों के विषय मे पता है और यदि उन्हें भारत में अवैध तरीके से रहे रहे नागरिकों की जानकारी है तो वे केंद्र सरकार को बताएं, लेकिन इस बहस को उन्होंने और जहरीला रूप दे दिया। दुखद यह है के आप के बड़े-बड़े नेता हनुमान जयंती की उस शोभा यात्रा के विषय मे कुछ नहीं बोल रहे थे, जिसमें भीड़ उग्र नारेबाजी कर रही थी और तलवार ओर पिस्टल लहरा रही थी। आज कोई भी यह कहने के लिए तैयार नहीं है कि तथाकथित शोभा यात्रा मे मुस्लिम विरोधी नारेबाजी के लिए जिम्मेवार नेताओ को गिरफ्तार किया जाए। बहरहाल, आरएसएस का एजेंडा केवल भाजपा या हिन्दुत्व का शासन ही नहीं है, अपितु पूरी राजनीति का हिन्दुकरण करना है, ताकि यदि किसी को राजनीति करनी भी है तो उनके हिसाब से करे। 

इसलिए शब्दों की बाजीगरी से हम एक ऐसे संवेदनहीन दौर मे पहुँच गए है जहा गैर संवैधानिक और गैर कानूनी कार्यों को संविधान सम्मत और कानून के शासन के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है। अच्छा होगा कि देश इस आपराधिक मानसिकता को समझे और आपस मे प्रेम भाव से रहे, क्योंकि जो नॅरेटिव आज मुसलमानों के लिए है, वह कल दलित-बहुजनों लिए भी हो सकता है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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