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गर्म होती रेत के मुखर कवि जगदीश पंकज के नवगीत

जगदीश पंकज ऐसे ही नवगीतकार हैं, जिनके नवगीतों में न केवल उनका समय पूरी शिद्दत से रेखांकित हुआ है, बल्कि धर्म, जाति, समाज, राष्ट्र और सत्ता की परख भी उनके मानवीय और लोकतांत्रिक विवेक से हुई है। बता रहे हैं कंवल भारती

जो अंतर कविता और नई कविता में है, वही गीत और नवगीत के बीच है। गीतों में अध्यात्म और क्षितिज के पार की काल्पनिक उड़ानें थीं। शून्य आकाश में उड़कर जाते हुए पंछी को देखकर वह (कवि) भी क्षितिज के पार जाने की इच्छा रखता था–

विहग ओ विहग! ठहर पल एक, जरा सुन ले मेरी भी बात।
चला जाता है तू इस ओर कहॉं? ले ले मुझको भी साथ।

लेकिन जीवन की कठोर वास्तविकताओं से पुराना गीतकार अपनी आंखें मूंदे हुए था। उस पर बेखुदी तारी थी, और उसी में वह मंजिल तक पहुंचने का दावा करता था। यथा

कोई ठोकर लगी अचानक, जब-जब चला सावधानी से।
पर बेहोशी में मंजिल तक, जा पहुंचा हूं आसानी से।।

गीतों के संसार में कवि था, उसकी प्रेयसी थी और थीं मिलन-विछोह के भावनाएं। यथा

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ तुम्हारे दृग में।
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे।
मैं आया तो चारण-जैसा, गाने लगा तुम्हारा आंगन।
हंसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी, तुम चुपचाप खड़े किस कारण?
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे।

आंसू नहीं फला करते हैं, रोने वाला क्यों रोता है?
जीवन से पहले पीड़ा का, शायद अन्त नहीं होता है।
मैं तो किसी सर्द मौसम की, बांहों में मुरझा जाऊंगा ।
तुम केवल मेरे फूलों को, गुमसुम चुनते रह जाओगे।

(रामावतार त्यागी)

इसके बाद नवगीतों का युग आया, जिसमें कवि खुद के और क्षितिज-पार के कल्पना-लोक से बाहर निकला, और जीवन की कठोर वास्तविकताओं से मुठभेड़ करते हुए यथार्थोन्मुख हुआ। इस युग पर मार्क्सवादी और प्रगतिशील विचारों से लैस कवियों ने अमिट हस्ताक्षर किए। उन्होंने शोषितों, गरीबों, मजदूरों और किसानों के दुख-दर्दों को अभिव्यक्ति दी। जैसे–

सूर्य पर बादलों का न पहरा रहे,
रोनी रोनाई में डूबी न हो।
यूं न ईमान फुटपाथ पर हो खड़ा,
हर समय आत्मा सबकी ऊबी न हो।।
आसमां में टंगी हों न खुशहालियॉं,
कैद महलों में सबकी कमान न हो।
इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें।।

(वशिष्ठ अनूप) 

बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये।
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इंकलाब ये।
गिरेंगे जुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर।
अगर कहीं है स्वर्ग तो ला जमीन पर।
तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर।।

(शंकर शैलेन्द्र)

 गांव-गांव और गली-गली में संगीनों के राज हैं।
राजनीति की चादर ओढ़े गुण्डों के सरताज हैं।
भारत माता बिलख उठी, फिर दुखियारी सा वेश है।
भूख और पीड़ा में डूबा सारा भारत देश है।
बलिदानों की मॉंग कर रही मॉं की करुण पुकार है।
उठो जवानों चलो बचाने कौन-कौन तैयार है?

(राम चन्द्र सिंह) 

अपनी सुबह सुर्खरू होगी अँधेरा भागेगा।
हर झुग्गी अंगड़ाई लेगी, हर छप्पर जागेगा।
शोषण के महलों पर मेहनतकश गोली दागेगा।
शैतानों से बदला लेगी, धरती लहूलुहान।
हम मजदूर-किसान रे भैया, हम मजदूर किसान।।

(रामकुमार कृषक)

किंतु इस युग का गीतकार भी समाज के एक वर्ग के यथार्थ से आंखें मूंदे हुए था। उसकी चेतना में ब्राह्मणवाद से तिरस्कृत और प्रताड़ित दलित वर्ग नहीं था। यह गीतकार मजदूरों और किसानों के प्रति तो संवेदनशील था, परन्तु दलितों के प्रति नहीं। इसका मुख्य कारण यह था कि वह जाति-व्यवस्था से पीड़ित वर्ग से नहीं था, बल्कि उससे लाभान्वित वर्ग से था। इसलिए वह जाति-संघर्ष नहीं चाहता था। वह वर्गविहीन समाज की परिकल्पना को लेकर चल रहा था, पर वह इस कटु सत्य से अनजान था कि जाति के विना के बिना वर्गहीन समाज बन ही नहीं सकता।

जाति के विना की अवधारणा दलित कवियों ने प्रस्तुत की। इस अवधारणा में सिर्फ जाति का विरोध ही नहीं है, बल्कि समाज, राष्ट्र और सत्ता को देखने का एक मानवीय और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण भी है। यह जाति-निरपेक्ष और धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण है। अतः सही मायने में कविता और गीतों में नई चेतना दलित कवियों से ही आई। दूसरे शब्दों में, नई कविता और नवगीत की रचना दलित कवियों द्वारा ही की गई। इस दृष्टि से नवगीतों के संसार में दलित गीतकारों की दस्तक न सिर्फ महत्वपूर्ण है, बल्कि क्रांतिकारी भी है।

जगदीश पंकज ऐसे ही नवगीतकार हैं, जिनके नवगीतों में न केवल उनका समय पूरी शिद्दत से रेखांकित हुआ है, बल्कि धर्म, जाति, समाज, राष्ट्र और सत्ता की परख भी उनके मानवीय और लोकतांत्रिक विवेक से हुई है। 1952 में उत्तर प्रदेश के पिलखुआ, गाजियाबाद में एक दलित परिवार में जन्मे जगदीश पंकज गीतों के संसार में किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं। हिंदी जगत में वह सबसे ज्यादा चर्चित और लोकप्रिय नवगीतकार हैं, जिनके नवगीतों में न केवल चेतना की परिपक्वता और विचारों की साफगोई रहती है, बल्कि उनकी भाषा और शिल्प का सौंदर्य भी प्रभावित करता है। उनके नवगीतों का पहला संग्रह सुनो मुझे भीनाम से 2015 में प्रकाश में आया। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, और आज भी उनका सृजन-कर्म पूरी प्रतिबद्धता से जारी है। उसके बाद उनके छह संग्रह और आएनिषिद्धों की गली का नागरिेक(2015), ‘समय है संभावना का(2018), ‘आग में डूबा कथानक(2019), ‘मूक संवाद के स्वर(2019), ‘अवशेषों की विस्मृत गाथा(2020) और प्यास की पगडंडियों पर(2021)।

जगदीश पंकज, प्रसिद्ध नवगीतकार

जगदीश पंकज का पहला नवगीत-संग्रह सुनो मुझे भीइस अपील के साथ आया कि जो अब तक नहीं सुनाया गया, वह सुनो। और निस्सन्देह, इस संग्रह ने न केवल गीत की पुरानी परिपाटी को ध्वस्त किया, बल्कि नए प्रतिमान भी स्थापित किए। संग्रह का पहला गीत ही गीतकार के सामने समय से जूझने की पहली शर्त रखता है

गीत है वह/जो सदा आंखें उठाकर
हो जहां पर भी/समय से जूझता है।

समय से जूझना आसान नहीं है। इसका अर्थ है अर्धसत्यों की परिधि से बाहर निकलना

अर्द्धसत्यों के/निकलकर दायरों से/जिन्दगी की जो
व्यथा को छू रहा है/पद्य की जिस/खुरदरी, झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस/निचुड़कर चू रहा है/गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की/आंच से टेढ़ी पहेली बूझता है।

अर्द्धसत्य शब्द पर गौर किया जाए। यह अर्द्धसत्य संपूर्ण असत्य की अगली सीढ़ी है। यह आज के उदारवादी खेमे का शब्द है। उदारवाद और अनुदारवाद के बीच अर्द्ध का ही मूल अन्तर है। अनुदारवाद में संपूर्ण असत्य है, परंतु उदारवाद आधे सत्य का सहारा लेता है। इसे हम आम मुहावरे में प्यार से मारना, या उदार बनकर मारना कह सकते हैं।

सुनो मुझे भीशीर्षक गीत, संग्रह में अंत में आता है, और यह सबसे विचारोत्तेजक नवगीत है। इसमें गीतकार दलित प्रश्नों की उपेक्षा पर प्रतिरोध व्यक्त करता है। वह कहता है, दलित पक्ष को सुने बगैर कोई भी बहस और विमर्श पूर्ण नहीं है, अधूरा है

सुनो मुझको/इस समय/
मैं भी उपस्थित हूं /सदन में,
बिन सुने ही पक्ष मेरा/
हो रहा निर्णय सदा अनुमान से/
हमदर्द बनकर/
पर निरुत्तर प्रश्न सबके सामने/
अब भी खड़े वाचाल से।

इस गीत में शब्द हमदर्दगौरतलब है। हमदर्द होना अच्छी बात है, पर वह कभी भी दर्दका स्थान नहीं ले सकता। एक हमदर्द किसी के दर्द से सहानुभूति ही रखता है, वह उस दर्द को जीता नहीं है। इसलिए एक हमदर्द उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, जो दर्द से पीड़ित है। अगर पीड़ित को उसका पक्ष नहीं रखने दिया जायगा, तो उन प्रश्नों का हल कभी नहीं निकलेगा, जो उसके दर्द के उदगम से जुड़े हुए हैं। यह साहित्य में सीधे-सीधे सहानुभूति और स्वानुभूति का मामला है। केवल सहानुभूति में अनुमान से पड़ित का पक्ष नहीं रखा जा सकता, क्योंकि अनुमान कभी सही नहीं होते। इसलिए गीतकार कहता है

जो सुनाया या/दिखाया जा रहा है/
वह नहीं सब सत्य/इस मेरे समय का/

वह आक्रोश व्यक्त करता है

कब सुनोगे/क्या मिलाऊं क्रोध को/
अपने रुदन में।

जगदीश पंकज एक अन्य गीत में, बहुत ही मौजूं सवाल करते हैं कि उन सांकलों को तोड़ने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी गई, जो सामाजिक विषमता को अक्षुण्ण रखे हुए हैं और मानवीय गौरव को कुचलती हैं। इस गीत का शीर्षक है नहीं ये सांकलें तोड़ीं’, जिसमें गीतकार कहता है

नहीं अहसास कर पाए/अभी तक/
सांकलों का हम।
कभी निष्ठा/कभी बंधन जनम के/
नाम से जोड़ीं/
जकड़ में भी रहे खुश हम,
नहीं ये सांकलें तोड़ीं।

ये सांकलें इसलिए नहीं तोड़ीं गईं, क्योंकि वे धर्म की सांकलें हैं। ऐसा धर्म, जो मानव-मानव के बीच घृणा के बीज बोए, उस धर्म को डॉ. आंबेडकर ने शैतानियत का नाम दिया है। कोई भी ऐसा समाज उस धर्म को कैसे स्वीकार कर सकता है, जिसके धर्मग्रंथों में उसके लिए गुलामी लिखी है। इन्कार की चुप्पीगीत में जगदीश पंकज इसी के विरुद्ध अपना विद्रोह दर्ज करते हैं

हजारों वर्ष के इतिहास को/
जब पीठ पर लादे/घृणा के बोझ से/
दबती रही है चेतना मेरी/
कहो तब गर्व से/कैसे कहूं यह धर्म है मेरा
लिखी जब धर्मग्रंथों में/नहीं है वेदना मेरी?

और जब दलित वर्ग अपनी वेदना का हिसाब मांगता है, अपने मानवीय अधिकार मांगता है, जिसका धर्म निषेध करता है, तो उस धर्म पर खड़ी सभ्यता की नींव हिलने लगती है। पंकज जी कहते हैं–

जब कभी अधिकार मांगें तो
तुम्हारी सभ्यता के मंदिरों की
नींव हिलती है।

इसी सभ्यता के पैरोकारों से गीतकार पूछता है, ऐसी क्रूर सभ्यता की आग में दलित जन कब तक जिएंगे? द्रष्टव्य है अभावों की तपनगीत का यह ज्वलंत प्रश्न–

हम अभावों की तपन/लेकर चले हैं
रात-दिन जलते हुए/ कब तक जिएंगे?

इसी भावभूमि पर पंकज जी का एक और गीत हम टंगी कंदील के बुझते दीयेहै, कवि कहता है

हम टंगी कंदील के बुझते दीये
जल रहे हैं सिर्फ बुझने के लिए।
आग का केवल क्षणिक अस्तित्व है
आंधियों से भी घिरा व्यक्तित्व है
हम अभावों में सदा पलते रहे
हम तनावों में सदा जलते रहे।
पी रहे संताप होठों को सिये।।

इस गीत में कंदील और दीये का बिंब गौरतलब है। क्या बिना दीये के कंदील की कल्पना की जा सकती है? कंदील की शोभा दीयों के जलने से ही होती है। पर, दीयों की नियति बुझना है। गीतकार बताना चाहता है कि समाज का निर्माण दलितों और मजदूरों के श्रम से हुआ है। पर वे समाज के अन्य वर्गों की तरह खुशहाल जीवन क्यों नहीं जीते हैं? क्यों वे अपनी मूलभूत जरूरतों के अभाव में घुट-घुटकर मरते हैं? गीतकार कहता है

यह अधर की जिन्दगी कितनी विषम।
हर अधर पर जड़ रहे लाखों नियम।
शब्द ही जब चीख में ढल जाएंगे।
हम तभी अपनी व्यथा कह पाएंगे।
और हम कब तक जियें आंसू लिये।।

यह दर्द तब और भी घना हो जाता है, जब दलितों की योग्यता और प्रतिभा की भी उपेक्षा करके उन्हें विकास में पीछे ढकेल दिया जाता है। तब गीतकार चीखकर ऊंचे स्वरों मेंक्यों न शासक वर्ग से पूछे

क्या मेरी आवाज/तुम तक आ रही है?
जीतकर भी/हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का/ कैसा नियम है?
चिर-बहिष्कृत हम रहें
रोकता हमको/तुम्हारा हर कदम है।
क्यों व्यवस्था/अनसुना करते हुए
एकलव्यों को/नहीं अपना रही?

एक तरह से गीतकार ने इस गीत में दलित-प्रतिभाओं के दमन के वे जख्म ताजा कर दिए हैं, जिन्हें इतिहासकारों ने उपेक्षित किया और ब्राह्मण कथाकारों ने विकृत करके तिरस्कृत किया। इतिहास में कुछ जातियों को लड़ाकू (मार्श्यल) नस्ल बनाकर पेश किया गया, उनके शौर्य की गाथाएं लिखी गईं और यह प्रश्न किसी आधुनिक इतिहासकार ने नहीं उठाया कि उन लड़ाकू नस्लों के रहते देश गुलाम क्यों हुआ? इन आधुनिक इतिहासकारों ने गैर-लड़ाकू जातियों के बारे में एक शब्द नहीं लिखा, जिन्होंने लड़ाकू नस्लों को धराशायी करके भारत को अंग्रेजों के लिए जीता, क्योंकि वे अंग्रेजों की सेना में दलित जातियों के सैनिक थे। अगर वर्णव्यवस्था ने इन जातियों पर दासता थोपकर उनकी प्रतिभाओं को कुचला न होता, तो क्या भारत गुलामी के दौर से गुजरता? गीतकार सही कहता है

मानते हैं/हम, नहीं संभ्रांत या संपन्न
साधनहीन हैं/ अस्तित्व तो है/ पर हमारे पास
अपना चमचमाता/निष्कलुष-निष्पाप-सा
व्यक्तित्व तो है।
थपथपाकर पीठ अपनी
मुग्ध हो तुम,
आत्मा स्वीकार से सकुचा रही है।

क्या अब भी कोई नवनिर्माण की संभावना है? जगदीश पंकज का कवि कहता है कि संभा तो गहरी है, पर नवनिर्माण की नहीं, बल्कि उसी अंधेरे की, घृणा की और उस रात की, जिसका सवेरा नहीं होता। गुलामी से गुजरकर भी अगर शासक वर्ग वर्णव्यवस्था को ही इस देश की सर्वश्रेष्ठ शासन-व्यवस्था बनाने पर तुला है, तो इसका अर्थ यह है कि गुलाम भारत में भी वह शासक वर्ग ही था, वह किसी भी स्थिति में गुलाम नहीं था, बल्कि समस्त अधिकार-संपन्न स्वाधीन वर्ग था। उसे शासक वर्ग वर्णव्यवस्था ने बनाया था, इसलिए वह लोकतंत्र में भी उसे मरने न देने के लिए अपने सारे संसाधनों का उपयोग करता है। संभावना गहरा रही हैगीत के केंद्र में कवि की यही चिंता है। वह कहता है

फिर अंधेरे की/प्रबल संभावना
गहरा रही है।

लेकिन यह अंधेरा शासक वर्ग के लिए नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के लिए है, उसमें दलित-पिछड़े शोषित समाज के लिए है। क्योंकि

रात का भय
रात से पहले यहां डटकर खड़ा है।
प्रश्न केवल आस्था का
आदमी से भी बड़ा है।

यह आस्था भी शासक वर्ग की आस्था है, जो अन्य वर्गों के प्रति पूर्वाग्रहों और घृणा से भरी हुई उन पर सीधे कहर बरपाने के लिए है

आग अब पूर्वाग्रहों की/ हर तरफ
हहरा रही है।
घुटघुटाना आग का इतना सघन है
देख लीजे/ बढ़ रहा नभ में धुंए का
प्राक्कथन है, देख लीजे।
अब घृणा सौजन्य पर
सीधे कहर बरपा रही है।

क्या गीतकार चेतावनी दे रहा है? निस्संदेह! जरा संकेत को समझोगीत में चेतावनी मुखर हुई है

मुखर होती हवाओं के
गरम होती दिशाओं के
तुम जरा संकेत को समझो।

मूल्य ये अपनी सदी के
गर्म होती युग-नदी के
इस पसरती रेत को समझो।

इसमें संदेह नहीं कि जगदीश पंकज गर्म होती रेत के मुखर गीतकार हैं। दलित कवियों की भीड़ में वह पहले कवि हैं, जिन्होंने दलित काव्य को नवगीतों के सृजन से समृद्ध किया है, और तू और मैं की तू-तू-मैं-मैंसे हटकर पाठकों की आंखों में सीधे प्रश्नों की बौछार की है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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