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भारत में ‘आहार’ फासीवाद : निशाने पर दलित, आदिवासी, ओबीसी और पसमांदा

हमारे समाज में यह धारणा व्याप्त है कि मांस ‘गंदा’ होता है और इससे गंदगी और बीमारियां फैलती हैं। यह धारणा विशेष रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों और जातियों में गहरे तक पैठी हुई है। ये वर्ग मांस और मांस की दुकानों को प्रदूषण और गंदगी का स्रोत मानते हैं। दूसरे शब्दों में लिंचिंग, भीड़ द्वारा हिंसा, मांस की दुकानों में तोड़-फोड़ व मांस विक्रेताओं के साथ दुर्व्यवहार, सफाई अभियान का हिस्सा माने जाते हैं! पढ़ें कर्नाटक के सामाजिक संगठन आहार नम्मा हक्कू द्वारा जारी यह खुला पत्र

हम सामाजिक कार्यकर्तागण, चिकित्सकगण, आहार विशेषज्ञ, अभिभावक, वकील व शोधार्थी, भारत में मांस की बिक्री व उपभोग पर तरह-तरह से रोक लगाए जाने के प्रयासों से चिंतित हैं। इस उद्देश्य से कई नए नियम बनाए गए हैं, प्रतिबंध लागू किये जा रहे हैं और मांसाहार खाद्य पदार्थों को बेचने व उनका उपभोग करने वालों का बहिष्कार करने के आह्वान किए जा रहे हैं। यह निर्धन वर्ग के भोजन और पोषण के अधिकार पर गैर-वाजिब हमला है। 

यद्यपि वर्तमान में इस तरह के प्रतिबंध और बहिष्कार के आह्वान कुछ क्षेत्रों तक सीमित हैं, लेकिन यदि इस प्रवृत्ति को नहीं रोका गया इसके गंभीर सामाजिक, आर्थिक और पोषण संबंधी दुष्परिणाम होंगे। इसके अलावा, लोगों के अपनी पसंद का भोजन करने और अपनी आजीविका कमाने के अधिकार भी प्रभावित होंगे।

भारत में पोषण की स्थिति 

आंकड़े बताते हैं कि भारत में पोषण की स्थिति बहुत दयनीय है। समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (सीएनएनएस) 2016-18 के अनुसार, 6 से 13 माह के बच्चों में से केवल 42 फीसदी को दिन में उतनी बार भोजन उपलब्ध हो पाता है, जितनी बार उनकी आयु के लिए आवश्यक है; केवल 21 फीसदी को पर्याप्त विविधता वाला भोजन, जिसमें चार या उससे अधिक खाद्य समूह शामिल हों, नसीब होता है और केवल 6.4 फीसदी को न्यूनतम स्वीकार्य आहार मिल पाता है। 

गौरतलब है कि सर्वेक्षण के पिछले दिन दो से चार साल के बच्चों में से 96 फीसदी ने अनाज और कंद-मूल, 62 फीसदी ने डेरी उत्पादों, 5 फीसदी ने विटामिन ‘ए’ से भरपूर सब्ज़ियों और फलों, 16 फीसदी ने अंडे और केवल 1 फीसदी ने मांस से बने खाद्य पदार्थों का सेवन किया था। किशोरों में से केवल 35 फीसदी अंडे खाते हैं और 36 फीसदी मछली, मुर्गा या मटन।

सीएनएनएस के अनुसार, भारत में 0-4 वर्ष आयु वर्ग के 35 फीसदी बच्चो की ऊंचाई और 33 फीसदी का वजन सामान्य से कम है। कुछ राज्यों जैसे बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में यह और अधिक (40 फीसदी के आसपास) है। आर्थिक संपन्नता के आधार पर यदि संपूर्ण आबादी को पांच तबकों में बांट दिया जाए, तो सबसे निचले तबके के 49 फीसदी बच्चों के नाटे होने की संभावना है। इसके मुकाबले, सबसे उच्च तबके में यह संभावना 19 फीसदी है। उच्चतम श्रेणी की तुलना में निम्नतम श्रेणी के बच्चों का वजन सामान्य से कम होने की संभावना दोगुनी है। अनुसूचित जनजातियों के 42 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है। अनुसूचित जातियों में यह 36 फीसदी, ओबीसी में 33 फीसदी व अन्य में 27 फीसदी है। 

पांच से नौ वर्ष के बच्चों के मामले में खून की कमी या अनीमिया, केरल के छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। स्कूल जाने की उम्र से छोटे बच्चों की बात करें तो 28 राज्यों में अनीमिया मध्यम या गंभीर स्तर की सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है। बच्चों में अनीमिया से उनके बौद्धिक और शारीरिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, वे ज्यादा बीमार पड़ते हैं और वयस्क होने पर उनकी कार्यक्षमता कम होती है (एफएओ / डब्ल्यूएचओ, 2005)

बच्चों और किशोरों के समुचित शारीरिक-मानसिक विकास के लिए लौह तत्व, विटामिन ‘ए’, जिंक, फोलेट, विटामिन ‘बी 12’ और विटामिन ‘डी’ आवश्यक माने जाते हैं। परन्तु भारतीय बच्चों में इन पोषक तत्वों की गंभीर कमी है। उदाहरण के लिए, 1-4 वर्ष के स्कूल न जाने वाले बच्चों में से 18 फीसदी में विटामिन ‘ए’ की कमी है। स्कूल जाने वाले 5-9 वर्ष के बच्चों में से 22 फीसदी में विटामिन ‘ए’ की कमी है। 10-19 वर्ष के किशोरों में से 16 फीसदी में विटामिन ‘ए’ का स्तर सामान्य से कम है। इन आयु वर्गों में विटामिन ‘डी’, जो हड्डियों को मजबूती देता है, की कमी का प्रतिशत क्रमशः 14, 1824 है. जिंक, जिसकी कमी से शरीर का विकास प्रभावित होता है, भूख नहीं लगती और रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, की इन आयु वर्गों में कमी का प्रतिशत क्रमशः 19, 17 और 32 है। 

भोजन में विविधता एवं पशु जनित खाद्य पदार्थों की आवश्यकता

भोजन में विविधता और पशुओं से प्राप्त खाद्य पदार्थों के पर्याप्त मात्रा में सेवन से पोषक तत्वों की कमी को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। अध्ययनों से यह सामने आया है कि पोषक तत्वों की कमी की रोकथाम के लिए यह आवश्यक है कि भोजन में विविधता हो। भोजन में अनाज एवं मोटे अनाज के अलावा, अनुशंसित मात्रा में फलियां, दालें, नट्स (मूंगफली, बादाम इत्यादि), अंडे, मांस, दूध / डेयरी उत्पाद, मछली, मुर्गा, सब्जियां, वसा, तेल व हरी पत्तेदार सब्जियां शामिल होनी चाहिए।

यूनिसेफ ने हाल में चाइल्ड न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2021 जारी की है। इसमें 135 देशों के लिए विविधतापूर्ण भोजन / पशुओं से प्राप्त खाद्य पदार्थों / सब्जियों व फलों / मां के दूध के उपयोग की सिफारिश की गई है। अगर किसी देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा अल्पपोषित हो तो हम यह मान सकते हैं कि उनमें कई पोषक तत्वों की कमी होगी। चिकित्सकीय जांच में एक या दो पोषक तत्वों की कमी का पता चलने का अर्थ यह नहीं है कि केवल वही पोषक तत्व उपलब्ध करवाए जाएं। भोजन में विविधता आवश्यक है। भोजन में सभी पांच खाद्य समूहों के भोज्य पदार्थ होने चाहिए, अर्थात सब्जियां और फल, अनाज और मोटा अनाज, फलियां और दालें, मांस, मछली, और मुर्गा, अंडे, दूध, डेयरी उत्पाद व वसा एवं तेल। 

सूक्ष्म पोषक तत्वों (लौह तत्व, जिंक, विटामिन ‘ए’ व ‘बी 12’, फोलेट व कैल्शियम) की कमी को दूर करने के लिए इन तत्वों से भरपूर जो खाद्य पदार्थ भारत में उपलब्ध हैं, उनमें शामिल हैं– मुर्गे की कलेजी, जुगाली करने वाले पशुओं की कलेजी, छोटी मछलियां (जो विटामिन ‘डी’ व लांग चेन ओमेगा-3 फेट्स का स्त्रोत भी हैं), अंडे, जुगाली करने वाले पशुओें का मांस और गहरे हरे रंग वाली पत्तेदार सब्जियां। सीएनएनएस की रिपोर्ट में कहा गया है कि लौह तत्व से समृद्ध खाद्य पदार्थों में शामिल हैं– ‘‘किसी भी पशु की कलेजी, गुर्दा, ह्दय या अन्य आतंरिक अंगों का मांस, मुर्गा, बतख या कोई भी अन्य भोज्य पक्षी, ताजा, सुखाई गई अथवा सीपदार मछली या कोई भी अन्य मांस।” 

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ताजा रपट के अनुसार दक्षिण एशिया में मांस की प्रति व्यक्ति उपलब्धता सबसे कम (19 ग्राम प्रति दिन) है और दक्षिण एशियाई देशों में भी भारत में यह न्यूनतम (10 ग्राम प्रतिदिन) है।  रपट में यह अनुशंसा की गई है कि 6 से 23 माह के बच्चों के भोजन में मुर्गे अथवा जुगाली करने वाले पशुओं की कलेजी और जुगाली करने वाले पशुओं के मांस को शामिल करने के लिए विशेष अभियान चलाया जाना चाहिए। रपट में यह भी कहा गया है कि हरी पत्तेदार सब्जियों की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है और मछली का सेवन केवल कुछ क्षेत्रों में किया जाता है। और इसलिए अंडे के उत्पादन और उपभोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। 

इस सामान्य धारणा के विपरीत कि भारत शाकाहारियों का देश है, यहां मांस के भोजन के रूप में उपयोग और उसे पकाने के तरीकों का लंबा इतिहास है। केवल 20 प्रतिशत भारतीय स्वयं को शाकाहारी बताते हैं और उनमें दूध व डेयरी उत्पादों जैसे पशुओं से प्राप्त खाद्य पदार्थों का उपयोग करने वाले शामिल हैं। बीफ का सेवन भारतीयों की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा रहा है। कम से कम 15 प्रतिशत (लगभग 18 करोड़) भारतीय बीफ खाते हैं। इनमें अधिकांश दलित, आदिवासी, मुसलमान, ईसाई व कुछ अन्य पिछड़ा वर्ग शामिल हैं। बीफ, पोषक तत्वों से भरपूर भोजन के सबसे सस्ते स्त्रोतों में से एक है। सौ ग्राम बिना चर्बी का बीफ, प्रोटीन की दैनिक आवश्यकता के 54% की पूर्ति कर सकता है। इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्व सुपाच्य होते हैं और शरीर उन्हें आसानी से अवशोषित कर लेता है। यह अलग बात है कि मांस व पशुओं से प्राप्त अन्य खाद्य पदार्थ अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर होते हैं। सरकार द्वारा अनाजों के फोर्टिफिकेशन (एक से अधिक अनाजों को मिलाकर पौष्टिकता बढ़ाने का उपक्रम) को कुपोषण से मुकाबला करने का अत्यंत कारगर उपाय बताया जा रहा है, परंतु अब तक किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन से यह साबित नहीं हुआ है कि फोर्टिफाईड अनाज कुपोषण में कमी ला सकते हैं। इसके विपरीत, शोध से यह पता चला है कि कुछ परिस्थितियों में व कतिपय समूहों के लिए इनका उपयोग अहितकर हो सकता है। 

मांसाहारी और मांस विक्रेता निशाने पर

जहां वैज्ञानिक शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि पशुओं से प्राप्त भोज्य पदार्थों का उपयोग भारतीयों में पोषक तत्वों की गंभीर कमी को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। वहीं वर्तमान केन्द्र सरकार, उसके दक्षिणपंथी लड़ाका संगठन, गोदी मीडिया व पुलिस के अलावा, न्यायपालिका भी डेयरी उत्पादों को छोड़कर अन्य सभी पशु जनित भोज्य पदार्थों को एक औसत भारतीय की भोजन की थाली से बाहर करने पर आमादा हैं। इसके दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव होंगे, जिन्हें कुछ मामलों में दुबारा पूर्वावस्था में लाया नहीं जा सकेगा। 

देश के विभिन्न हिस्सों में मांस की दुकानों पर प्रतिबंध लगाने के आह्वान किए जा रहे हैं। गत 1 अप्रैल, 2022 को नवरात्रि के दौरान उत्तर प्रदेश में मांस की सभी दुकानों को 9 दिनों तक बंद रखने की मांग की गई। यह धमकी भी दी गई कि जो मांस विक्रेता ऐसा नहीं करेंगे उनकी दुकानों पर बुलडोजर चलाए जाएंगे! योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनने के बाद से ही राज्य में मांस की दुकानें निशाने पर हैं। ऐसा ही कुछ झारखंड और कर्नाटक में भी हो रहा है। पिछले कुछ हफ़्तों में मांस विक्रेताओं को परेशान और आतंकित करने की घटनाओं में गुणोत्तर बढ़ोत्तरी हुई है। 

हमारे समाज में यह धारणा व्याप्त है कि मांस ‘गंदा’ होता है और इससे गंदगी और बीमारियां फैलती हैं। यह धारणा विशेष रूप से विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों और जातियों में गहरे तक पैठी हुई है। ये वर्ग मांस और मांस की दुकानों को प्रदूषण और गंदगी का स्रोत मानते हैं। दूसरे शब्दों में लिंचिंग, भीड़ द्वारा हिंसा, मांस की दुकानों में तोड़-फोड़ व मांस विक्रेताओं के साथ दुर्व्यवहार, सफाई अभियान का हिस्सा माने जाते हैं!

अक्षय पात्र, जो इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कांशसनेस (इस्कान) से संबद्ध है, जैसे संगठन सार्वजनिक रूप से सात्विक भोजनकी वकालत करते हैं, और इस भोजन में मटन, मुर्गा और यहां तक कि अंडे के लिए भी कोई जगह नहीं होती। अक्षय पात्र द्वारा स्कूलों के लिए जो मध्याह्न भोजन उपलब्ध करवाया जाता है, उसमें प्याज व लहसुन तक का उपयोग नहीं होता, जो कि शासकीय मानकों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन है। इस अवैज्ञानिक और पोषण की दृष्टि से अपर्याप्त भोजन को विद्यार्थियों पर थोपा जाता है और वह भी इस गर्व भाव के साथ कि इस भोजन के सेवन से बच्चे ‘उच्च श्रेणी’ के इंसान बनते हैं। उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य के अनुसार इस तरह के प्रतिबंधों के नतीजे में बच्चे कुपोषण के गर्त में और गहरे गिरते जाएंगे। परंतु इससे क्या फर्क पड़ता है जब तक कि बच्चों की पवित्रताकी रक्षा की जा रही हो!

पिछले कुछ समय से गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और कर्नाटक में मांस पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठ रही है। एक कदम और आगे बढ़कर, हलाल मांस का बहिष्कार करने या उस पर प्रतिबंध लगाने की बात भी कही जा रही है। मांस पर प्रतिबंध का सबसे अधिक कुप्रभाव कमजोर और वंचित समुदायों (विशेषकर दलितों व पसमांदा) पर पड़ेगा, परंतु हमारे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को इसकी कोई चिंता नहीं है। उन्हें यह विश्वास है कि चुनिंदा संकीर्ण धार्मिक या जाति समूहों को खुश रखने से उनका काम चल जाएग। सच तो यह है कि सांप्रदायिक केंद्र और राज्य सरकारों के असली निशाने पर मुसलमान हैं। उन्हें मांस से कोई परहेज नहीं है। 

प्रतिबंध और बहिष्कार के आह्वानोें से वे समुदाय प्रभावित हो रहे हैं, जो पहले से ही आर्थिक दृष्टि से बदहाल हैं। कई राज्यों में पशु वध से संबंधित कानून इतने कड़े बना दिए गए हैं कि एक ऐसा वैध व्यवसाय, जो हजारों लोगों की आजीविका का साधन है, गैर-कानूनी गतिविधि बन गया है। ये लोग पुलिस की मनमानी का शिकार हो रहे हैं, कानूनी झमेलों में फंस रहे हैं और आर्थिक दृष्टि से कंगाल हो रहे हैं। इसके अलावा स्वघोषित व स्वनियोजित ‘गौ-रक्षक’ जो दरअसल हिंसात्मक असामाजिक गतिविधियों में संलग्न विशुद्ध गुंडे हैं, भी उनकी छाती पर सवार रहते हैं। मवेशियों को काटने पर प्रतिबंध से वे सभी लोग प्रभावित हुए हैं, जो अपना पेट भरने के लिए पशुओं के व्यापार पर निर्भर हैं। इनमें किसान, पशु व्यापारी व मांस के विक्रेता और क्रेता सभी शामिल हैं। इन प्रतिबंधों ने मवेशी, चमड़ा व मांस अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। पशुपालन और कृषि का परस्पर गहरा संबंध है और ये कृषि व पशुपालन मूल्य श्रृंखला के ऊपर व नीचे के लोगों की खाद्य / आर्थिक सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। किसान, दूध, खाद, परिवहन और बोझा ढ़ोने के लिए पशु पालते हैं और पशुओं के अनुत्पादक होने के बाद उन्हें बेच देते हैं। इन अनुत्पादक पशुओं’ के उत्पादों, जिनमें मांस, शरीर के आंतरिक अंग, खुर, खाल, हड्डियां, खून व वसा शामिल है, का भी बड़े पैमाने पर व्यापार होता है।

पशुपालन के क्षेत्र में सबसे निम्न दर्जे का काम करने वालों में दलितों की बहुतायत है और मवेशियों के वध पर प्रतिबंध का उनके उपर प्रत्यक्ष प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस व्यवसाय को बेहतर अधिसंरचना उपलब्ध करवाने व उसके यंत्रीकरण से दलित समुदाय की आर्थिक बेहतरी सुनिश्चित की जा सकती है। परंतु ऐसा करने की बजाए उन्हें उनका पेट पालने के न्यूनतम साधनों से भी वंचित किया जा रहा है।

कर्नाटक में भोजन फासीवाद 

कर्नाटक में हाल में इस तरह की घटनाएं तेजी से बढीं हैं। कर्नाटक में बसवराज बोम्मई के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के देख-रेख में दक्षिणपंथी समूह तरह-तरह के प्रतिबंधों की मांग कर रहे हैं, जिससे इस प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और तेज होती जा रही है। मार्च 2022 से राज्य में एक हिन्दू दक्षिणपंथी संगठन हलाल मांस के विरुद्ध अभियान चला रहा है। इसी संगठन ने हाल में कर्नाटक सरकार के धर्मस्व विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक में एक ज्ञापन प्रस्तुत किया, जिसमें यह मांग की गई कि विभाग के अंतर्गत आने वाले मंदिरों के नज़दीक मुसलमानों को अपनी दुकानें खोलने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। दक्षिणपंथी समूहों द्वारा मुसलमान व्यापारियों पर तरह-तरह की रोकें लगाई जा रहीं है, जिससे चिकमंगलूर व दक्षिण कन्नडा जिलों और यहाँ तक कि बेंगलुरु में भी सांप्रदायिक घटनाएं हो रहीं है। इससे राज्य में सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा है। 

राज्य में कर्नाटक प्रिवेंशन ऑफ़ स्लॉटर एंड प्रिजर्वेशन ऑफ़ कैटल अधिनियम-2020 के कारण किसान, मवेशियों के व्यापारी, कसाई और चमड़ा उद्योग के श्रमिक, आर्थिक बदहाली की कगार पर पहुंच गए हैं। कर्नाटक उच्च न्यायालय में दायर अपनी जनहित याचिका में दलित संघर्ष समिति (भीमवाडा) ने कहा है कि कर्नाटक प्रिवेंशन ऑफ़ स्लॉटर एंड प्रिजर्वेशन ऑफ़ कैटल अधिनियम-2020 और उसके अंतर्गत जारी कार्यपालिक आदेश, भारत के नागरिकों, विशेषकर दलितों और अल्पसंख्यक समुदायों, के उन मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 द्वारा देश के सभी नागरिकों को प्रदान किये गए हैं। इन कानूनों के प्रतिकूल परिणामों का विस्तृत विवरण आहार नम्मा हक्कू की हालिया रपट में किया गया है। अधिकांश मवेशियों के मालिक भूमिहीन, सीमांत अथवा लघु किसान होते हैं और वे अपनी आय के लिए काफी हद तक मवेशियों पर निर्भर रहते हैं। दूध के उत्पादन में कमी, न केवल इनकी आमदनी बल्कि राज्य की पोषण सुरक्षा के लिए भी बड़ा खतरा हैं। 

अंडा युद्ध 

मांस और बीफ के आसपास हो रही राजनीति के बारे में तो सभी जानते हैं। परन्तु शायद यह बात बहुत लोगों को पता नहीं है कि भाजपा शासित 19 प्रदेशों में से 14 में आंगनबाड़ियों में बच्चों को अंडा नहीं दिया जाता। ऐसा ही कुछ अन्य राज्यों में भी हो रहा है। इनमें से कई राज्यों (जैसे छत्तीसगढ़, कर्नाटक और मध्य प्रदेश) में मध्याह्न भोजन में अंडे को शामिल करने की मांग का विशेषाधिकार प्राप्त या उच्च जातियों के शाकाहारी अल्पसंख्यकों ने ज़ोरदार विरोध किया। इसी विरोध के चलते, मध्य प्रदेश के तीन आदिवासी बहुल जिलों में बच्चों को अंडे देने की पायलट परियोजना तक शुरू नहीं हो सकी। कर्नाटक सरकार ने इस वर्जना को तोड़ते हुए नवंबर, 2021 में एक स्वागतयोग्य, लेकिन आधा-अधूरा निर्णय लिया। उसने बच्चों, अभिभावकों, आहार विशेषज्ञों, डाक्टरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की लंबे समय से चली आ रही मांग को स्वीकार करते हुए मध्याह्न भोजन में अंडे को शामिल करने का निर्णय लिया। परन्तु यह राज्य के सिर्फ सात जिलों में किया गया। इस निर्णय पर उन्हीं धार्मिक समूहों ने आपत्ति की है, जिन्होंने 2015 में ऐसे ही निर्णय को लागू नहीं होने दिया था। उनके तर्क थे कि “पारंपरिक भोजन पद्धतियों” से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए और यह भी कि शाकाहारी विकल्प उपलब्ध होते हुए भी ‘शाकाहारी’ बच्चों पर अंडे ‘थोपना’ भेदभावपूर्ण है। ये तर्क कई कारणों से मूर्खतापूर्ण हैं। 

कर्नाटक के एक सरकारी स्कूल में मध्याह्न भोजन योजना के तहत छात्रों को परोसे जा रहे अंडे

अंडे के सेवन से बच्चों की पोषण की स्थिति में सुधार आ सकता है और इससे बच्चे वे पोषक तत्त्व प्राप्त कर सकेंगे जो संक्रमणों से लड़ने और बीमारी और कुपोषण के दुष्चक्र से मुक्ति पाने में उनकी मदद करेंगे। यही कारण है कि ऐसे बच्चों, जिनके परिवार में अंडे खाए जाते हैं, को आवश्यक रूप से अंडे खिलाये जाने चाहिए चाहे वे वर्तमान में कुपोषित हों या न हों। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के चलते उनके कभी भी कुपोषित की श्रेणी में आ जाने का खतरा बना रहता है। कुपोषण और उसके नतीजे में होने वाली बीमारियों की रोकथाम करना बेहतर लोक स्वास्थ्य उपक्रम है बजाय इसके कि हम पहले पोषण के स्तर को बहुत नीचे गिर जाने दें और फिर उससे निपटने के प्रयास करें। अंडे बच्चों की कई पोषण आवश्यकताओं को पूरी कर सकते है, जिनमें उच्च गुणवत्ता वाला प्रोटीन, खनिज, विटामिन और वसा शामिल हैं अंडे सस्ते होते हैं, वे स्वादिष्ट और पकाने में आसान होते हैं और उनमें मिलावट करना या उनकी चोरी करना अन्य पोषक पदार्थों की तुलना में अपेक्षाकृत कठिन होता है। मध्याह्न भोजन में अंडे खिलाने से स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बेहतर होती है। कई राज्यों में अंडे को मध्याह्न भोजन से बाहर रखना, भारतीय बच्चों के साथ गंभीर अन्याय है और इससे अन्य किसी चीज़ की अपेक्षा जातीय पूर्वाग्रह ज्यादा जाहिर होता है। 

भारत में भोजन के मामले में बढ़ती असहिष्णुता निंदनीय 

यह त्रासदी है कि भारत में पोषण नीतियां विज्ञान के अलावा अन्य सभी कारकों से प्रभावित रहीं हैं. इसके गंभीर परिणामों को हम देश के स्वास्थ्य और पोषण सूचकांकों में देख सकते हैं। 

कई सालों से ‘शाकाहारियों’ की नाज़ुक संवेदनशीलता नीतिगत फैसलों को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली कारक रही है। चाहे वे छात्रावास हों या सरकारी कार्यालय, स्कूल, कॉलेज, निजी कार्यालय या अन्य सार्वजनिक संस्थान; चाहे वे मीडिया हाउस हों या रेलगाड़ियां और हवाईजहाज़, सभी ‘शाकाहारियों’ की छोटी से आबादी का ख्याल रखने में पूरी ताकत लगाते रहे हैं। ये ‘शाकाहारी’ ज़रा सी बात पर रूठ जाते हैं। 

इसके नतीजे में देश की बहुसंख्यक आबादी की समृद्ध और विविध खानपान परंपरा को आपराधिक घोषित कर दिया गया है और वह धीरे-धीरे गायब होती जा रही हैं। देश में अनीमिया आम है और एक बहुत बड़ी आबादी में विटामिन ‘ए’ / ‘बी 12’ / जिंक / कैल्शियम / विटामिन ‘डी’ / लौह तत्त्व इत्यादि की कमी है। देश एक गंभीर स्वास्थ्य और पोषण संकट की ओर बढ़ रहा है। परन्तु हम फिर भी मांस, भोज्य पक्षियों और मछली के पोषक गुणों को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। 

शेख जाहिद मुख़्तार बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य प्रकरण में 2016 में अपने फैसले में बंबई उच्च न्यायालय ने कहा है कि “यदि राज्य नागरिकों को किसी विशेष प्रकार का भोजन नहीं करने के लिए कहता है या नागरिकों को किसी विशेष प्रकार का भोजन रखने या खाने नहीं देता तो यह निश्चित रूप से निजता के अधिकार का अतिक्रमण है, क्योंकि यह व्यक्ति के अपने हिसाब से अपना जीवन जीने के हक़ का उल्लंघन करता है।” 

केंद्र और राज्यों की वर्तमान भाजपा सरकारें, बीफ के मुद्दे को लेकर जो राजनीति कर रहीं हैं, उसे अल्पसंख्यकों को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से निशाना बनाने की व्यापक परियोजना के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। कोविड महामारी के दौरान लोगों ने बड़े पैमाने पर अपने रोज़गार खोए और उनकी आय में कमी आई। उस समय भी मुसलमानों के छोटे-बड़े व्यवसायों को विशेष रूप से निशाना बनाया गया। मवेशियों के वध पर प्रतिबंध को कई क्षेत्रों में मुस्लिम समुदाय को आर्थिक दृष्टि से बर्बाद करने के लिए दक्षिणपंथी सरकारों के संगठित प्रयास की रूप में देखा जा रहा है। 

पशुओं से प्राप्त खाद्य पदार्थों (एएसएफ) का भारत का लंबे समय से असहज रिश्ता रहा है। भारत में एएसएफ को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खाद्य पदार्थों के पदक्रम में उसी तरह से अलग-अलग दर्जा दे दिया गया है, जिस तरह से मनुष्यों को जाति व्यवस्था में अलग-अलग दर्जे दे दिए गए हैं। एएसएफ में से दूध और डेरी उत्पादों को उच्चतम दर्जा दे दिया गया है तो दूसरी ओर रेड मीट, विशेषकर बीफ, को सबसे निचले पायदान पर रखा गया है, जिसे रखने मात्र पर किसी को लिंच किया जा सकता है। अन्य प्रकार के मांसाहारी भोज्य पदार्थों जैसे मछली, मुर्गे या अंडे इस दोनों छोरों के बीच में हैं।  

यद्यपि दोनों में कोई सीधा संबंध नहीं दिखता, परन्तु दूध और डेरी उत्पादों को छोड़कर अन्य एएसएफ को सुनियोजित ढंग से निशाना बनाया जाना, दरअसल, इन खाद्य पदार्थों का व्यवसाय करने वालों और इनका उपभोग करने वालों को आजीविका और पोषण से वंचित करने से जुड़ा हुआ है। 

कहने की आवश्यकता नहीं कि शाकाहारियों की भोजन संबंधी पसंद का सम्मान किया जाना चाहिए (और वे तो यह सम्मान छीन कर ले रहे हैं)। परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि धनिक तबकों के शाकाहार, जिसमें नट्स, दूध, डेरी उत्पाद, घी, मक्खन, दालें, सब्जियां आदि सम्मलित रहतीं हैं, की तुलना गरीबों पर थोपे जा रहे शाकाहार से नहीं की जा सकते जिसमें मुख्यतः सस्ते और मोटे अनाज शामिल होते हैं। बीस प्रतिशत से भी कम ‘शाकाहारियों’ की संवेदनाएं और कमजोरियां अन्य लोगों के बारे में निर्णय लेने का आधार नहीं बन सकतीं। और ना ही हम विज्ञान और साक्ष्य को धुआंधार प्रचार, विचारधारा और पशुबल से पीछे धकेल सकते हैं। 

आहार नम्मा हक्कू नामक सामाजिक संगठन द्वारा गत 5 मई, 2022 को जारी इस खुले पत्र पर बहुत्व कर्नाटक; कैंपेन अगेंस्ट हेट स्पीचेज (सीएएचएस); मिलन, कनार्टक; राइट टू फूड सेक्रेटेरियट; और नेशनल अलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम)के साथ-साथ सौ की संख्या में गणमान्य लोगों, जिनमें अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और खाद्य अधिकारों को लेकर अभियान चलानेवाले सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने भी हस्ताक्षर किया है।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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आहार नम्मा हक्कू व अन्य गणमान्य

कन्नड़ भाषा में आहार नम्म हक्कू का अर्थ है– हमारा भोजन, हमारा अधिकार। यह चिकित्सकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और उन माता-पिताओं का समूह है जो 2018 में सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं यथा समेकित बाल विकास परियोजना (आईसीडीएस) और मध्याह्न भोजन योजना के कारपोरेटकरण और उनमें अवैज्ञानिक तरीकों के इस्तेमाल में जोर के विरोध में एकजुट हुए थे। इस समूह की अबतक की कुछ सफलताओं में आंगनबाड़ी केंद्रों में नियमित खाद्य आहार के स्थान पर स्पिरूलिना (एक पूरक आहार) के वितरण पर रोक लगाना और मध्याह्न भोजन योजना में जातिगत मूल्य थोपे जाने को चुनौती देना शामिल है।

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