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जगदीश गुप्त का ‘शंबूक’ : एक आलोचना (पहली कड़ी)

जगदीश गुप्त ने शबरी के जूठे बेरों का प्रसंग शायद इस सोच के साथ लिखा कि इससे राम को दलित चेतना से जोड़कर दलित वर्ग का मित्र बनाया जा सकता है। पर, यह किसी भी द्विज को दलित चेतना से जोड़कर दलित मित्र बनाने का बहुत ही भद्दा तरीका है। चुनावों के दौरान सवर्ण नेता दलितों के घर खाना खाने के नाटक अक्सर करते हैं, पर जूठन उनमें भी कोई नहीं खाता। जगदीश गुप्त के खंड काव्य ‘शंबूक’ का पुनर्पाठ कर रहे हैं कंवल भारती

[जगदीश गुप्त (1924 – 2001) हिंदी साहित्य में नयी कविता के सुपरिचित कवि रहे। इनकी प्रकाशित काव्य कृतियों मेंनाव के पांव’, ‘शंबूक’, ‘आदित्य एकान्त’, ‘हिमविद्ध’, ‘शब्ददंश’, ‘युग्म’, ‘गोपा गौतम’, ‘बोधिवृक्षशामिल हैं। इसके अलावा उन्होंनेनयी कविता’, ‘स्वरूप और समस्याएं’, औरप्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला भारतीय कला के पदचिह्न’ (सभी आलोचना संग्रह) की रचना की। प्रस्तुत आलेख में कंवल भारती उनके खंड काव्यशंबूकका पुनर्पाठ कर रहे हैं, जिसमें जगदीश गुप्त ने राम द्वारा शंबूक की हत्या को काव्यबद्ध किया है।]

सबसे अधिक काम दलित-बहुजन चिंतन में मिथकों पर ही हुआ है। संभवत: मिथकों के पुनर्पाठ का पहला काम मराठी में जोतिबा फुले ने अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में किया। उसके बाद डॉ. आंबेडकर ने इस कार्य को विस्तार दिया, और मिथकों के पुनर्पाठ के रूप में ‘रिडिल्स इन हिंदुज्म’ (हिंदू धर्म की पहेलियां) जैसा महत्वपूर्ण ग्रंथ अंग्रेजी साहित्य को दिया। फिर तो, भारत की लगभग सभी भाषाओं में यह काम हुआ। हिंदी में अकादमिक स्तर पर यह कार्य स्वामी अछूतानंद और चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने किया। उन्होंने आर्य-अनार्य संघर्ष का पुनर्पाठ किया, और भारत के आदिनिवासियों की सभ्यता और संस्कृति का वह मूल इतिहास खोज निकाला, जो ब्राह्मण-ग्रंथों और उनकी कहानियों में छिपा और दबा हुआ था। इस आधार पर वे अनेक ऐसे नायकों का चरित्र प्रकाश में लाने में सफल रहे, जिन्होंने ब्राह्मणों के वर्चस्ववाद के खिलाफ घनघोर संघर्ष किया था। इनमें मायानंद संत, शंबूक और एकलव्य प्रमुख हैं। इन नायकों पर अनेक काव्य और नाटक लिखे गए, जो अभी भी दलित-बहुजन साहित्य में अपना क्रांतिकारी स्थान रखते हैं।

‘शंबूक’ रामायण का एक ऐसा चरित्र है, जो बहुजन नायक के रूप में तब तक जिंदा रहेगा, जब तक हिंदू समाज में रामायण के राम का अस्तित्व बना रहेगा। दलित-बहुजन चिंतन में शंबूक की छवि बहुजन नायक की और राम की शूद्रहंता की छवि बनी हुई है। इस पर काव्य और नाटक लिखने वाले दलित-बहुजन लेखकों में, स्वामी अछूतानंद, ललई सिंह, मंगलदेव विशारद और बुद्धसंघ प्रेमी के अतिरिक्त भी एक लंबी सूची है। शंबूक की कथा वाल्मीकीय रामायण और भवभूति के काव्य ‘उत्तर रामचरित’ के अतिरिक्त, जैसा कि चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के एक विवरण से पता चलता है, बंगाल और द्रविड़ रामायण में भी मिलती है; और एक बार कलकत्ते के एक पत्र ने भी अपने ‘रामांक’ में इस कथा को छापा था।[1]

शंबूक की कथा ने सिर्फ दलितों को ही नहीं, बल्कि गैर-दलित वर्ग के संवेदनशील लेखकों को भी मर्माहत किया है। संतराम बी.ए. ने अपनी पुस्तक “हमारा समाज” में सातवें परिच्छेद में इस कथा को ‘निरपराध की हत्या’ शीर्षक से दिया है। उन्होंने लिखा है कि यह कथा श्री योगेश चन्द्र चौधुरी के ‘सीता’ नामक बंगाली नाटक पर आधारित है, जिसका हिंदी अनुवाद राधामोहन काव्यतीर्थ ने किया था।[2] इस नाटक में शंबूक की पत्नी तुंगभद्रा की कल्पना की गई है, जो अपने पति के हत्यारे राम को शाप देती है। यह एक नई कल्पना है, जो रामायण में नहीं है। इसी तरह हिंदी के प्रसिद्ध कवि उदभ्रांत ने अपने ‘त्रेता’ महाकाव्य में ‘मैं जननी शंबूक की’ सर्ग में शंबूक की माता का चरित्र गढ़ा है।[3]

कन्नड़ के कवि और नाटककार कु. वें. पुटप्पा ने, जो ‘कुर्वेशु’ नाम से विख्यात हैं, शंबूक-कथा पर “शूद्र तपस्वी” नाम से लघु नाटिका लिखी थी। हिंदी में इस नाटिका का अनुवाद बी. आर. नारायण ने किया है, जो 1994 में भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इस नाटक में कुर्वेशु ने राम के हाथों शंबूक का वध नहीं कराया है, बल्कि उस ब्राह्मण से, जिसने अपने पुत्र की अकाल मृत्यु के लिए शूद्र तपस्वी शंबूक पर दोष लगाया था, शंबूक को ही नमस्कार कराया है। राम के आदेश पर ब्राह्मण जिस क्षण तपस्वी शूद्र को साष्टांग नमस्कार करता है, उसी क्षण ब्राह्मण-पुत्र जीवित हो जाता है, और फिर ब्राह्मण के कहने पर उसका पुत्र भी शंबूक को नमस्कार करता है।[4]

हिंदी में शंबूक पर अगर कोई पहली काव्य-रचना द्विज श्रेणी के किसी प्रतिष्ठित कवि की लिखी मिलती है, तो वह जगदीश गुप्त (1924-2001) का खंड-काव्य ‘शंबूक’ है, जिसे उन्होंने ‘लघु-काव्य’ कहा है। यह संभवत: यह 1970 या उसके आसपास की रचना है।

मेरी दृष्टि में जगदीश गुप्त उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने एक ऐसे विषय पर लिखने का काम किया, जिसकी तरफ अधिकांश सवर्ण लेखक देखना भी पसंद नहीं करते। जगदीश गुप्त की गिनती नई कविता के सशक्त हस्ताक्षरों में की जाती है। नई कविता का अर्थ है नए मनुष्य की चेतना की अभिव्यक्ति। और इस नई चेतना के मनुष्य को जिस तरह जगदीश गुप्त ने ‘शंबूक’ में पहचाना है, वह शंबूक के पुनर्पाठ में बहुत महत्व रखता है। इस नई विचारधारा को देख लिया जाए, जिसे उन्होंने शंबूक के विद्रोही स्वभाव में देखा है। वह अपने ‘कवि-कथन’ में लिखते हैं–

“शंबूक का विद्रोही स्वभाव उन गहरे मानव-मूल्यों की उपज है, जिनके आधार पर नई कविता के आंदोलन काल में नए मनुष्य की परिभाषा निर्मित हुई थी; यथा– नया मनुष्य रूढ़िग्रस्त चेतना से मुक्त, मानव-मूल्य के रूप में स्वातंत्र्य के प्रति सजग, अपने भीतर आरोपित सामाजिक दायित्व का स्वत: अनुभव करने वाला, समाज को समस्त मानवता के हित में परिवर्तित करके नया रूप देने के लिए कृतसंकल्प, कुटिल स्वार्थ भावना से विरत, मानव-मात्र के प्रति स्वाभाविक सह-अनुभूति से युक्त संकीर्णताओं एवं विभाजनों के प्रति क्षोभ का अनुभव करने वाला, हर मनुष्य को जन्मत: समान मानने वाला, मानव-व्यक्तित्व को उपेक्षित, निरर्थक और नगण्य सिद्ध करने वाली किसी भी दैविक शक्ति या राजनैतिक सत्ता के आगे अनवनत, मनुष्य की अंतरंग सद्वृत्ति के प्रति आस्थावान, प्रत्येक के स्वाभिमान के प्रति सजग, दृढ़ एवं सगठित अन्त:करण संयुक्त, सक्रिय किन्तु अपीड़क, सत्यनिष्ठ तथा विवेक संपन्न होगा।

“इनमें से बहुत सी बातें शंबूक के व्यक्तित्व में प्रतिमूर्त हैं, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है, क्योंकि दोनों ही मेरे अंतर्मन की सृष्टि हैं, सजीव व्यक्तित्व की कलात्मक रचना विचारों को भी जीवंत बना देती है।”

जगदीश गुप्त का यह विचार, निस्संदेह, शंबूक को रामराज्य की एक महान प्रतिभा के रूप में चित्रित करता है, जो वर्णव्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह करता है और मानवीय स्वतंत्रता तथा सामाजिक न्याय की भावनाओं से परिपूर्ण है। उन्होंने ‘कवि-कथन’ में ही आगे लिखा है– “शंबूक की प्रखर तेजस्विता राम की महान गौरवमयी राजसी चेतना को आर-पार वेध जाती है। वह उनकी नीति-मर्यादा ही नहीं, चारित्रिक महिमा को भी आच्छादित कर देती है। राम का प्रशासकीय दृष्टिकोण कम सबल नहीं है, पर शंबूक की तर्कशीलता जीवन के उस पहलू को उदघाटित करती है, जिसकी उपेक्षा करने से राम का ब्रह्मत्व एवं उनकी विराटता अपनी अर्थवत्ता खो देती है।”[5]

जगदीश गुप्त व उनके द्वारा रचित खंड काव्य ‘शंबूक’ का आवरण पृष्ठ

जगदीश गुप्त ने अपने खंड-काव्य में शंबूक को ‘हरिजन’ की अपेक्षा ‘भूमि-पुत्र’ के रूप में प्रस्तुत किया है। इसका कारण वह ठीक ही बताते हैं कि ‘हरिजन’ शब्द अच्छे अर्थ का द्योतक होते हुए भी मूलत: मध्यकालीन मनोवृत्ति का ही परिचय देता है।[6]

जगदीश गुप्त के ‘शंबूक’ लघुकाव्य में आठ सर्ग हैं, जिन्हें वह ‘अंश’ कहते हैं, उनके नाम हैं– राजद्वार, पुष्पक यान, वनदेवता, दण्डकारण्य, प्रतिपक्ष, छिन्न शीश, आत्मकथा और रक्त-तिलक।

‘राजद्वार’ अंश का आरंभ इन पंक्तियों से होता है–

हे राम!
तुम्हारी रचि रक्त की भाषा में,
हर बार तुम्हीं से कहता है शंबूक मूक,
तज कर्म-वेद-पथ, वर्ण-भेद-पथ,
अपनाकर मानव समाज को
ऊर्ध्वमुखी मर्यादा में
तुम गए चूक।

राजद्वार अंश में राम के दरबार का चित्रण है। राम को गुप्तचर से पता चलता है कि बाहर एक ब्राह्मण-पुत्र सर्पदंश से मर गया है, जिसके शोक में ब्राह्मण विलाप कर रहा है और राम को शाप दे रहा है– “शिखा खोले/ क्षुब्ध ब्राह्मण एक/ दे रहा अभिशाप/ बाहें फेंक।” मृतक भूमि पर लेटा हुआ है। ब्राह्मण विलाप करता हुआ बोलता जा रहा है– “लगी पड़ने स्याह गोरी देह/ हो रहा विष दंश का संदेह/ कौन जाने कहां कैसा नाग/ दे गया मेरे तनी को दाग/ बुझा मेरा वंश-दीपक आज/ राम यह कैसा तुम्हारा राज।”

मूल कथा में (अर्थात वाल्मीकीय रामायण में) सर्पदंश का उल्लेख नहीं है। जगदीश गुप्त का कहना है कि सर्पदंश की कल्पना उनकी अपनी है। पर वह यह भी बताते हैं कि कामिल बुल्के की सूचना के अनुसार, “यह कल्पना कुर्वेशु के ‘शूद्र तपस्वी’ में मिलती है, पर उन्होंने ‘उस काव्य को देखा नहीं है और न लिखने से पूर्व जाना ही।”[7] किंतु कुर्वेशु के ‘शूद्र तपस्वी’ में सर्पदंश की कल्पना नहीं है। वहां ब्राह्मण और उसका पुत्र दोनों शंबूक आश्रम में फूल तोड़ने जाते हैं। आश्रम में तपस्वी को देखकर ब्राह्मण-पुत्र हाथ जोड़ने को होता है कि तभी उसका पिता उसे समझाता है कि शूद्र को हाथ नहीं जोड़ने चाहिए। तपस्वी का यह तिरस्कार ही बालक की मृत्यु का कारण बनता है।[8] जगदीश गुप्त ने और भी कई नई कल्पनाएं की हैं, जो मूल कथा में नहीं हैं। इनमें एक कल्पना मार्ग में बसिष्ठ को नारद का मिलना भी शामिल है।

राम की मंत्रिपरिषद जब तक इस समस्या पर विचार करती, तब तक वैद्यों को उपचार करने को कहा जाता है। पर वैद्यों के उपचार-उपरांत भी मृतक बालक में जीवन नहीं आता है। यथा– “किन्तु कोई भी/ समझ पाया न उसका अर्थ/ वैद्य के उपचार का/ श्रम हुआ सारा व्यर्थ।”[9]

मंत्रिपरिषद में कई तरह के विचार आते हैं। कोई विप्र-पुत्र की अकाल मृत्यु को विपत्ति बताता है, कोई महा आपत्ति, तो कोई कहता है कि मरना और जीना भाग्य के अधीन है। इसी बीच कर्तव्य निश्चित करने के लिए राजगुरु बुलाए जाते हैं। बसिष्ठ अपनी कुटी से जाने के लिए निकलते हैं। तभी मार्ग में उन्हें नारद मिल जाते हैं, जो उनसे कहते हैं–

राम का होगा नहीं कल्याण
नहीं जीवित हो सकेगा
विप्र-सुत म्रियमाण।

बसिष्ठ पूछते हैं–

क्यों नहीं कल्याण होगा?
क्यों नहीं मृत विप्र-सुत का त्राण होगा?

नारद बताते हैं–

कर रहा तप शूद्र कोई
अधोमुख दंडक गहन में
स्वर्ग का सुख लूटने की
लालसा को लिए मन में
चाहता है एक दिव्य कृपाण
किंतु जायेंगे उसी के प्राण

बसिष्ठ के यह पूछने पर कि इसका विप्र-सुत की मृत्यु से क्या सबंध है, नारद उत्तर देते हैं—

विपिन जाकर शूद्र-मुनि-वध जब करेंगे राम,
विप्र-सुत होगा तभी जीवित सहज परिणाम।

यह जानने के बाद बसिष्ठ नारद का आभार व्यक्त करते हैं और मार्ग में उनका सत्कार न करने के लिए खेद भी। यहां कवि ऐसी कोई कल्पना नहीं कर पाता, जो नारद की अमानवीय सोच का खंडन करती। कवि से यहां इस विमर्श की अपेक्षा थी कि शंबूक मुनि का वध करने का सहज परिणाम ब्राह्मण-सुत का जीवित होना कैसे हो सकता है? इसके बाद नारद अन्तर्धान हो जाते हैं, जो किसी विज्ञान से भी संभव नहीं है। जिस तरह कवि ने अन्य कई प्रसंग छोड़े, उसी तरह नारद के अन्तर्धान प्रसंग को भी या तो छोड़ने की जररूत थी, या खंडन करके यह बताने की कि नारद से विदा लेकर बसिष्ठ राम के दरबार चले गए। जहां राम को– “मिली गुरू की मंत्रणा / या मिला नारद-मंत्र/ हो उठा गतिशील तत्क्षण/ राज्य का संयंत्र।”

राम गुरू की मंत्रणा और नारद के मंत्र को विवेक और तर्क की कसौटी पर कसे बिना ही स्वीकार कर लेते हैं। इसका कारण है कि ब्राह्मणों की रक्षा ही उनके जीवन का कार्यभार है। वह अकेले ही शूद्र मुनि की खोज में जाने का निश्चय करते हैं। यथा–

राम ने ही निश्चय किया यह/ वे अकेले ही करेंगे
शूद्र मुनि की खोज
सचिव, सेवक साथ में कोई न होंगे
भले ही लग जाएं कितने रोज।

यहां पहला ‘राजद्वार’ अंश समाप्त होता है।

दूसरा अंश ‘पुष्पक यान’ है। कवि पुष्पक यान के परिचय में बताता है कि वह रत्न मणियों से जडित है, चमचमाती झालरें सब ओर खिंची हुई हैं और उसके कंगूरों से ध्वज बंधे हुए हैं। यान राम को लेकर उड़ता है, जिसे कवि ने सभी दिशाओं में उड़ाया है– पूरब में, पच्छिम में, उत्तर में और अंत में दक्षिण में। ऐसा क्यों? हर राज्य के शासक को हर दिशा के बारे में संपूर्ण जानकारी रहती है। फिर राम को क्यों जानकारी नहीं थी? जब नारद ने बसिष्ठ को बता दिया था– “कर रहा तप शूद्र कोई/ अधोमुख दंडक गहन में”, तो राम के द्वारा हर दिशा में शंबूक को खोजने का क्या औचित्य था? उनका यान सीधे दंडक की ओर क्यों नहीं उड़ा? इस ‘अंश’ को पढ़ने से मालूम होता है कि कवि का ध्येय राम को कुछ पूर्व स्मृतियों का ज्ञान कराना था। एक स्मृति उन्हें सुरसरि-धार यमुना को देखकर होती है, जहां उन्होंने मैथिली की बांह थामे हुए विचरण किया था। फिर वह पत्नी का स्मरण कर उसके निर्वासन के दुख से म्लान होते हैं। उत्तर की दिशा में उन्हें फैला हुआ समुद्र और अनगिनत नदियां मिलती हैं, जहां के रास्ते भी उनके आने की अनुभूति से भर जाते हैं। पूरब की दिशा में जाकर वह पहचान लेते हैं– “साथ लक्ष्मण के/ पिता का मानकर आदेश/ गए विश्वामित्र के संग/ है यही वह देश।” उन्हें स्मरण होता है कि यहीं उन्हें सिला रूप में अहिल्या मिली थी, जिसे उन्होंने छूकर शापमुक्त किया था। यहां कवि ने राम से पश्चाताप कराया है–

एक नारी को सुगति दी, एक को परिताप,
छोड़ जाऊंगा जगत पर कौन सी मैं छाप?

इसी दिशा में आगे चलकर मिथिलापुरी दिखती है, जहां राम को जनक का गृह, स्वयंवर भूमि, वाटिका में सीता का प्रथम दर्शन और सीताहरण की स्मृति होती है। इसके बाद यान दक्षिण दिशा में उड़कर भूमि पर उतर जाता है, और दूसरा अंश समाप्त हो जाता है।

तीसरा अंश ‘वनदेवता’ है, जिसे कवि ने अपनी कल्पना से महत्वपूर्ण सर्ग बना दिया है। दक्षिण दिशा में राक्षसों, दानवों, वनवासियों का वास माना जाता है। शायद इसीलिए अभिजात्य जनों ने दक्षिण दिशा को अशुभ समझे जाने का मिथक गढ़ा। परिणामत: आज भी लोककथाओं में, खासतौर से हिंदू समाज में, दक्षिण दिशा को अशुभ और निषिद्ध माना जाता है। ऐसी अनगिनत लोककथाएं प्रचलित हैं, जिनमें घर से धन कमाने के लिए परदेस जाने वाले व्यक्ति को कहा गया है कि पूरब, पच्छिम, उत्तर किसी भी दिशा में जाना, लेकिन दक्षिण दिशा में मत जाना, क्योंकि वहां राक्षस यानी बुरे लोग रहते हैं। आज भी हिंदू समाज में नीच व अछूत समझी जाने वाली जातियां गांवों और शहरों में दक्षिण दिशा में ही वास करती हैं, जिनकी बस्तियों को ‘दक्खिन टोला’ कहा जाता है। डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि भारतीय गांवों में अछूतों को हिंदुओं के कड़े नियमों के तहत रहना पड़ता था, जिनमें एक नियम यह था कि अछूतों के घर दक्षिण दिशा में होंगे, क्योंकि दक्षिण दिशा चारों दिशाओं में सबसे अशुभ मानी जाती है। अछूतों के लिए इस नियम का उल्लंघन अपराध माना जाता था।[10] भारत में अनगिनत साम्राज्य आए और गए, अनेक क्रांतियां हुईं, हिंदू, पठान, मुग़ल, मराठा, सिख, अंग्रेज सभी बारी-बारी से इस देश के मालिक हुए, परंतु हिंदू गांवों की स्थिति वही रही[11], न दक्षिण टोला बदला, और न उसका विकास हुआ।

जगदीश गुप्त ने इस सर्ग (अंश) में राम को दक्षिण टोले की वस्तुस्थिति का अनुभव कराया है। कवि ने वनदेवता के मुख से कहलवाया है–

यहां चौदह वर्ष तक
तुमने किया वनवास
तुम नहीं वन से अपरिचित
उस समय तुम थे बटोही
राज-सत्ताहीन
किन्तु अब तुम राजपद पर
हो चुके आसीन
तुम अयोध्यापति बने
रघुवंश के सिरमौर
स्वत: सब कुछ जानते हो
हम कहें क्या और।

आगे वनदेवता राम को बताते हैं कि उनके राज्य की योजनाएं यहां के भूखे जनों तक नहीं पहुंचीं। वे निरक्षर पिछड़े लोग अभी भी पशुओं की भांति यातनाएं सह रहे हैं। यथा–

सुना, फैली हैं तुम्हारी
योजनों तक योजनाएं
पर अगर सीमित रहीं
आयोजनों तक योजनाएं
यदि पहुंच पाई नहीं
भूखे जनों तक योजनाएं
पर्वतों, नदियों, पठारों,
निर्जनों तक योजनाएं।
ये निरक्षर वन्य पिछड़े लोग
सहते रहे कब रक यातनाएं
अधमरे ये कहां तक
संतोष को खाएं-चबाएं?
क्यों करें वन पाल
पशु की भांति अत्याचार
क्यों न मानव-सा
इन्हें मिलता रहे व्यवहार।

दक्षिण टोले की यही नियति है कि राज्य उसके हितों की ज्यादा चिंता नहीं करता, क्योंकि उन्हें मनुष्य समझा ही नहीं जाता। राम ने भी उन्हें बंदर, भालू आदि पशु ही समझा था। वे उनके लिए सिर्फ उपयोग और उपभोग की वस्तु थे। आज भी सरकारों में वे मनुष्य से ज्यादा लाभार्थी माने जाते हैं, बस कुछ ऐसे लोग, जिन्हें कुछ विशेष लाभ और खैरात की आवश्यकता है, उनके विकास और उत्थान की नहीं। इन सरकारों में विकास सिर्फ उच्च जातियों का होता है, जो छोटी जातियों के उत्पीड़क होती हैं। अत: कवि की चिंता वाजिब है कि राज्य नहीं सोचता कि–

क्यों सताने इन्हें आते हैं तुम्हारे भृत्य
क्यों न करते तुम इन्हें सदभाव से कृतकृत्य
इन्हें भी अपनत्व का साधन मिले,
धन मिले या नहीं, पर ईंधन मिले।

लेकिन कवि ने निम्न वर्गों के प्रति उच्च जातियों की गंदी मानसिकता का भी परिचय दिया है, जो उनमें एक रूढ़ि की तरह होती है। उनकी दृष्टि में दलित वर्गों की छवि बुरी प्रवृत्ति वाले, शराब पीकर भंवरे की तरह मंडराने वाले और दूसरों के कहने पर कुछ भी करने वाले कुबुद्ध लोगों के रूप में होती है। कवि ने दर्शाया है–

काम करने में इन्हें लज्जा नहीं लगती
क्या भली इनकी तुम्हें सज्जा नहीं लगती!
ये बुरी करतूत में भी कम नहीं
है जहां झख मारते, मरते नहीं,
मद पिए, भंवरे बने गुंजारते
भूल जाते, जीतते कब हारते
यदि इन्हें कोई चढ़ा दे सान पर
खेल जाएं तुरत अपनी जान पर.
भूमि पर इनके कलोरे कूजते
चांद-सूरज-आग सबको पूजते।

यह वनदेवता शब्द भी विचारणीय है। यह उसी तरह का शब्द है, जैसे वनवासी, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने आदिवासियों को दिया है। कवि ने वनदेवता की कल्पना आदिवासियों के मुखिया के रूप में की है– “पवन से नभ यान का पाकर पता/ चले स्वागत के लिए/ वनदेवता।” वनदेवता को वह गौरव प्राप्त नहीं है, जो एक देवता को मिलना चाहिए। उदाहरण के लिए आरएसएस के लेखक आदिवासियों का चित्रण जिस दीनता से करते हैं, जगदीश गुप्त ने भी कुछ वैसा ही चित्रण किया है। दूसरे शब्दों में वे उन्हें रामभक्त बनाकर प्रस्तुत करते हैं, जैसे उनकी अपनी धर्म-संस्कृति कुछ है ही नहीं। यथा–

जागते-सोते तुम्हारा नाम
जपा करते हैं निपट निष्काम
याद शबरी की इन्हें सब बात
जोहते हैं बाट ही दिन-रात
झोंपडों के बीच जूठे बेर
शबरियों ने कर लिए हैं ढेर
यदि तुम्हारा आगमन लें जान
नाच उटठेंगी, गुंजाकर गान
लीप गोबर से धुमैला धाम
साग-पात परोस देंगी राम!
पर इन्हें, संवेदना से हीन
नगरवासी समझते मृग-मीन।

पता नहीं, राम द्वारा शबरी के जूठे बेर खाने की कथा कहां से चली? यह कथा न तो वाल्मीकि की रामायण में मिलती है और न तुलसीदास के रामचरितमानस में। मालूम नहीं, यह लोकोक्ति कैसे बनी? किंतु जगदीश गुप्त ने इस पर विश्वास कर लिया, और बगैर यह सोचे कि जो द्विज अछूत का छुआ पानी नहीं पीता, वह जूठे बेर कैसे खा लेगा? यह कथा एकदम अकल्पनीय है और किसी भी तरह से विश्वसनीय नहीं है कि शबरी के चखे हुए जूठे बेर राम ने खाए होंगे! और यह कितना हास्यास्पद है कि शबरियों ने झोंपडों के पीछे जूठे बेरों के ढेर लगा दिए, यह सोचकर कि एक दिन राम आकर उनकी जूठन खाएंगे! शबरियों को कोई और काम नहीं था। यही एक काम रह गया था कि बेर तोडों, उन्हें चखो, और जो बेर मीठे निकलें, उन्हें राम के खाने के लिए ढेर लगाकर रख दो! क्या मूर्खतापूर्ण सोच है!

जगदीश गुप्त ने शबरी के जूठे बेरों का प्रसंग शायद इस सोच के साथ लिखा कि इससे राम को दलित चेतना से जोड़कर दलित वर्ग का मित्र बनाया जा सकता है। पर, यह किसी भी द्विज को दलित चेतना से जोड़कर दलित मित्र बनाने का बहुत ही भद्दा तरीका है। चुनावों के दौरान सवर्ण नेता दलितों के घर खाना खाने के नाटक अक्सर करते हैं, पर जूठन उनमें भी कोई नहीं खाता। यह जानते हुए भी कि राम शूद्र मुनि का वध करने के लिए वन में आए हैं, जगदीश गुप्त को इस असंगत प्रसंग को देने से बचना चाहिए था। इस प्रसंग के बिना भी यह ‘अंश’ अपने आप में पूर्ण रहता। वनदेवता का यह कहना ज्यादा प्रासंगिक है–

दंड देने हेतु दंडक में यहां तुम आ गए
एक क्षण सोचो
कहां पर थे, कहां तुम आ गए?
यह विनय, नंगे बदन
बनवासियों का देस
यह विजन मन में मगन
बनवासियों का देस।
तुम यहां उतरे
गगन से लिए पुष्पक यान,
यह अभावों भरा
सुप्त उदासियों का देस।

यहाँ ‘विजन’ शब्द वनवासियों के लिए सम्मानजनक अर्थ में प्रयुक्त नहीं किया गया है। साधारण भाषा में इसका अर्थ है, जो जन नहीं है, अर्थात अमनुष्य। अगर वन में रहने वाले प्राणी जन नहीं हैं, तो क्या हैं? आगे राम को विजन को स्वजन मानने को कहा गया है–

राम! अब तुम नगरवासी हो
चक्रवर्ती हो, सुपासी हो
विजन की करना नहीं अवमानना
विजन को अपना स्वजन ही मानना।

लेकिन राम यह सुनकर क्रोधित हो जाते हैं, और इस क्रोध की अग्नि इतनी प्रचंड है कि पूरा वन जल उठता है। यथा–

लगा जैसे–

राम के भीतर छिपी क्रोधाग्नि
हुई बाहर क्षुब्ध मन के,
बन गई दावाग्नि।

भयानक दावानल, आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, हर दिशा में आग ही आग– “खौलने को आ गया/ सर-निर्झरों का नीर।” और ऐसा उग्र क्रोध कि “खुल गए ज्यों रूद्र के/ हर ओर शत-शत नेत्र।” सम्पूर्ण वन में राम के क्रोध का आतंक फ़ैल गया। कवि के शब्दों में–

गजों की चिंघाड़ भीषण नाद असह अतीव
फड़फड़ाते पर पखेरू तड़फड़ाते जीव।
भूमि से आकाश तक छाया धुआं घनघोर
बिजलियों सी लपकती लपटें, कराल-कठोर।
सब तरफ फैली चिरायंध रुंध रही थी सांस
जलन से कुछ और ऊपर लगी उठने धांस।
हो गया ज्वालामुखी-सा विन्ध्यगिरी का रूप
क्यों यहां पर लौट आए राम बनकर भूप?

और तो और! इस आग में वनदेवता की आंखें भी चली गईं–

दृष्टि अपनी खो चुकी, वनदेवता की आंख
पलक यों झुलसे कि जैसे पंखियों की पांख।

इसके बाद कवि एक फंतासी रचता है, जिसमें चारों ओर उस आग में राम को सीता नजर आ रही हैं। राम व्याकुल हो जाते हैं, सब दिशाओं में उनका नाम मुखरित होने लगता है। उन्हें लगता है, “जैसे मैथिली ने ही पुकारा राम।” अचानक फिर राम होश में आते हैं और मन में क्रोध भरकर वन में अपनी खोज पर चल पड़ते हैं। यथा–

तभी सहसा चेत उनको हुआ
खड्ग का फल तप्त, तन से छुआ
इंद्रजाल कटा मिटा दावाग्नि का दुर्बोध
सिमटकर मन में समाया पुन: मन का क्रोध।
चले वन की ओर होकर शांत
खोज में सन्मार्ग ज्यों पथ-भ्रांत।

यहां ‘वनदेवता’ अंश समाप्त होता है।

[1] स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ संचयिता, संपादक : कँवल भारती, देखिए, रामराज्य न्याय नाटक में सूत्रधार का कथन, पृष्ठ 82

[2] हमारा समाज, संत राम, बी.ए., संस्करण, 1957, पृष्ठ 71-80

[3] त्रेता, उद्भ्रांत, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, संस्करण, 2009, पृष्ठ 395

[4] शूद्र तपस्वी एवं अन्य दो नाटक, कु. वें. पुटप्पा, रूपांतर : बी. आर. नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2005, पृष्ठ 28-29

[5] शंबूक, जगदीश गुप्त, पृष्ठ 13

[6] वही.

[7] वही, पृष्ठ 12

[8] शूद्र तपस्वी एवं अन्य दो नाटक, कुर्वेशु, अनुवाद : बी. आर. नारायण, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2005, पृष्ठ 22

[9] शंबूक, जगदीश गुप्त, पृष्ठ 6-8

[10] डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस, वाल्यूम 5, 1989, पृष्ठ 21

[11] वही, पृष्ठ 20

क्रमश: जारी

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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