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संविधान के नागरिक राष्ट्र से दिक्कत क्या है?

यह सच है कि नरसंहार करके राज्य स्थापित करना उस राज्य की सभ्यता पर भी सवालिया निशान लगाता है। लेकिन क्या देशी राजे बिना नरसंहार के साम्राज्य कायम करते थे? क्या कलिंग का युद्ध नरसंहार नहीं था? क्या पुष्यमित्र ने बौद्धों का नरसंहार नहीं किया था? हिंदू सभ्यता में ब्राह्मण-क्षत्रिय नरसंहार की लोमहर्षक घटना क्या है? जेएनयू की कुलपति धूलिपुड़ी पंडित के हालिया बयान पर सवाल उठा रहे हैं कंवल भारती

इसी 19 मई, 2022 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (जेएनयू) की कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘स्वराज से नए भारत के विचारों पर पुनर्विचार’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय सेमिनार के दूसरे दिन अपने भाषण में कहा कि “भारत को संविधान से बंधा हुआ एक नागरिक राष्ट्र बना देना उसके इतिहास, प्राचीन घरोहर, संस्कृति और सभ्यता की उपेक्षा करने के समान है।”

एक नागरिक राष्ट्र से धूलिपुड़ी पंडित को क्या आपत्ति है? भारतवासी के लिए स्वयं को एक नागरिक राष्ट्र मानना क्यों सही नहीं है? क्या एक नागरिक के रूप में वह अपने धर्म, अपनी संस्कृति और सभ्यता से नहीं जुड़ा रहता है? क्या वह अपनी सभ्यता-संस्कृति से कट जाता है? शायद ही कोई व्यक्ति, जो भारत का नागरिक है, इससे सहमति व्यक्त करेगा? ऐसा कौन सा भारत का नागरिक है, जिसने अपनी धार्मिक पहचान खो दी है? भारत का हर नागरिक अपनी हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध की पहचान के साथ रहता है। वह संविधान से बंधकर अपनी पहचान कहां खो रहा है?

अगर धूलिपुड़ी पंडित के कहने का तात्पर्य यह है कि संविधान ने भारत की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की उपेक्षा की है, तो वह वही बात दुहरा रही हैं, जो आरएसएस और भाजपा के नेता अक्सर कहते रहते हैं। आरएसएस जैसे हिंदू संगठन भारतीय संविधान के निर्माण और उसके पारित होने के समय से ही उसके विरोधी रहे हैं। आरएसएस का कोई भी नेता और कोई भी संत ऐसा नहीं है, जो संविधान की प्रशंसा करता हो। किसी भी संघी से पूछिए, वह यही कहेगा कि संविधान हिंदुओं के खिलाफ है। इस संबंध में रामचंद्र गुहा का 21 अप्रैल, 2016 के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख ‘व्हिच आंबेडकर’ को पढ़ा जाना चाहिए। वह इस लेख में लिखते हैं कि जब डॉ. आंबेडकर संविधान का निर्माण कर रहे थे, और हिंदू स्त्रियों को अधिकार देने के लिए हिंदू कोड बिल बना रहे थे, तो आरएसएस ने उनके इन दोनों ही कार्यों का विरोध किया था। उस समय आरएसएस के मुखपत्र ‘दी ऑर्गेनाइजर’ के 30 नवम्बर, 1949 के अंक में, संविधान के ड्राफ्ट पर, जिसे डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा को सौंपा था, जो संपादकीय लिखा गया था, उसमें कहा गया था– “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली है। इसमें प्राचीन भारत के अद्वितीय कानूनों के विकास का भी उल्लेख नहीं है। जैसे मनु के कानूनों का, जो स्पार्टा के लाइकुर्गुस या पर्शिया के सोलोन से भी बहुत पहले लिखे गए थे। आज मनुस्मृति के कानून दुनिया को प्रेरित करते हैं। किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है।”

जेएनयू की कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित व दलित साहित्यकार व समालोचक कंवल भारती

अगर मनुस्मृति के कानूनों का कोई अर्थ होता, तो आंबेडकर उसकी होली क्यों जलाते? क्या सामाजिक भेदभाव को कायम करने वाले मनु के कानून दुनिया के सबसे श्रेष्ठ कानून हैं या सबसे बदतरीन और सबसे गंदे? क्या मनु के इस कानून को सामाजिक मान्यता दी जा सकती है कि शूद्रों से दासकर्म कराया जाएं, उन्हें मजदूरी में जूठन दी जाए और उनका सारा धन छीन लिया जाए? क्या इस प्रकार का मनु का कानून भारत के नागरिक को सभ्य नागरिक बना सकता है? यह मनु का कानून है, जो हिंदू महिलाओं को अंतरधर्मी और अंतरजातीय विवाह नहीं करने देता? यह मनु का ही कानून है, जो विवाह को अटूट बंधन मानता है, और पति कितना ही क्रूर और अयोग्य हो, पत्नी उसे छोड़ नहीं सकती। संविधान ने ही इन बंधनों से हिंदू स्त्री को मुक्त किया है।

जेएनयू की कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित की चिंता शायद यह है कि संविधान से बंधकर भारत नागरिक राष्ट्र तो बन सकता है, पर एक धार्मिक राष्ट्र, और भी एक हिंदू राष्ट्र नहीं बन सकता। बात सही है, चूंकि संविधान में भारत को एक राष्ट्र माना ही नहीं गया है, इसलिए, भारत को किसी भी धर्म का राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता है। संविधान में भारत एक कौम (राष्ट्र) नहीं है, बल्कि राज्यों का एक संघ है। हर राज्य की अपनी भाषाई और सांस्कृतिक राष्ट्रीयता है। इतनी सारी राष्ट्रीयताओं वाला भारत एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में भी अभी नहीं है।

लेकिन, यह सच है कि भारत की शासन-सत्ता हिंदुत्ववादियों के हाथ में है। वे संविधान के अंतर्गत नहीं, बल्कि संविधान से परे जाकर भारत में हिंदू राष्ट्र कायम करने की पूरी कवायद कर रहे हैं। भारत के अधिकांश सरकारी प्रतिष्ठानों और संस्थानों में निदेशक, अध्यक्ष और संचालक-नियंत्रक के पदों पर आरएसएस की हिंदू विचारधारा वाले लोग बैठा दिए गए हैं। शासन-प्रशासन में भी वही लोग बहुमत में हैं। न्यायपालिका में भी उन्हीं की संख्या बहुमत में है। दलित और ओबीसी के संवैधानिक आरक्षण को धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है। विशेष अभियान चलाकर ब्राह्मणों की नियुक्तियां की जा रही है, आर्थिक आधार के बहाने भी दस प्रतिशत अतिरिक्त नियुक्तियां ब्राह्मणों को दी जा रही हैं। मुसलमानों के खिलाफ एक आक्रामक घृणा और हिंसा हिंदुओं में भर दी गई है। उनकी इबादतगाहों को तोड़कर मंदिर बनाने के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। आरएसएस के हिंदुत्व का विरोध करने वालों की मॉबलिंचिंग हो रही है, उन्हें जेल भेजा जा रहा है। दलित-पिछड़ी जातियों को शिक्षा और रोजगार से काटकर उन्हें आक्रामक हिंदुत्व से जोड़ने की योजनाएं अमल में लाई जा रही हैं। संविधान से परे जाकर धीरे-धीरे हिंदू वर्णव्यवस्था का शासन लाने के लिए हिंदू राज्य कायम किया जा रहा है।

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार धूलिपुड़ी पंडित ने कहा कि देश केवल भौगोलिक अवधारणा नहीं है, बल्कि सभ्यताओं की अवधारणा है। उनका कहना है कि भारत सभ्यताओं वाला देश है। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे सिर्फ दो देश हैं भारत और चीन, जिनमें आधुनिकता के साथ परंपरा है, राज्य के साथ एक क्षेत्र है, और सतत होने वाला परिवर्तन है।

इसमें संदेह नहीं कि भारत सभ्यता वाला देश है, पर कौन सी सभ्यता वाला? क्या इस सभ्यता ने आधुनिकता के साथ अपने को बदला? आरएसएस के विचारक कहते हैं कि दुनिया की बहुत सी सभ्यताएं जहां नष्ट हो गईं, वहां भारत की सभ्यता का अस्तित्व आज भी जीवित है। इस संबंध में डॉ. आंबेडकर का विचार उल्लेख करने योग्य है। उन्होंने लिखा है, “सभ्यता सभी के पास नहीं है, लेकिन जिनके पास है, उनकी सभ्यता भी दूसरों की सहायता करने की अपेक्षा उनके विकास में बाधा ही पैदा करती है। ऐसी सभ्यता झूठे मूल्यों और झूठे आधारों पर टिकी होती है, जो समुदाय तक ही सीमित रहती है, और अन्य समुदायों के व्यक्तियों को उसका कोई लाभ नहीं मिलता।” आंबेडकर कहते हैं कि “ऐसी सभ्यता के बोझ तले दबे रहने से सभ्यता विहीन होना बेहतर होगा।” उन्होंने प्रश्न किया कि ऐसी सभ्यता किस काम की, जिसका प्रकाश आदिम जनजातियों, जरायमपेशा जातियों और अछूत जातियों तक नहीं पहुंचा? आंबेडकर ने इस प्रचार का भी खंडन किया कि हिंदू सभ्यता बहुत प्राचीन है। वह कहते हैं कि हिंदू बुद्धिजीवी यह प्रचार करते हुए नहीं थकते कि उनकी सभ्यता अभी तक जीवित है, जबकि मिस्र, बेबीलोन, यहूदी, रोम और ग्रीस की सभ्यताएं समाप्त हो गईं। ऐसा प्रचार करने वाले लोग मूल बात भूल जाते हैं और मूल बात सभ्यता का प्राचीन और जीवित रहना नहीं है, बल्कि यह है कि उस सभ्यता का गुण क्या है? उसका मूल्य क्या है, और वह अगर जीवित है, तो किस कीमत पर? दूसरे शब्दों में, मुख्य सवाल यह है कि क्या हिंदू सभ्यता की यह सामाजिक विरासत एक लाभ है या बोझ? इसके विकास और विस्तार ने वर्गों और व्यक्तियों को क्या दिया है?’ आंबेडकर ने आगे पूछा है कि कुछ राष्ट्रवादी हिंदू यह मानते हैं कि मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान की शुरुआत हिंदुओं से हुई है – अगर ऐसा है तो वे बताएं कि हिंदू सभ्यता ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान में क्या योगदान दिया है?

कुलपति शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने अपने संबोधन में चोल साम्राज्य का भी उल्लेख किया है। उनका कहना है कि “चोलों ने 2,000 वर्षों तक शासन किया, लेकिन क्या चोलों के महान राजाओं के नाम पर कोई उल्लेख या कोई सड़क है? दिल्ली में एक नहीं… एक बड़ा पूर्वाग्रह, एजेंडा-सेटिंग है, जिसे फिर से देखने की जरूरत है।” उन्होंने कहा कि “चोलों ने संस्कृति, व्यापार और वाणिज्य के माध्यम से विजय प्राप्त की, न कि नरसंहार, हत्या और बलात्कार के माध्यम से, बहुसंस्कृतिवाद के प्रति भारत के योगदान पर जोर दिया।”

चोलों के माध्यम से शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने मुगलों पर निशाना साधा है। यह उनका ही नहीं, बल्कि आरएसएस-फोल्ड के सभी राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों का एक बहुत ही घातक दुराग्रह है कि भारत में मुस्लिम साम्राज्य नरसंहार, हत्या और बलात्कार के माध्यम से’ स्थापित हुआ था। ऐसे दुराग्रही लोग इस बात पर विचार नहीं करते, कि क्या तब भारत एक संपूर्ण राज्य था, या सैकड़ों छोटे-बड़े स्वतंत्र राज्यों में विभाजित था? अगर मुगलों ने भारी नरसंहार करके अपना साम्राज्य कायम किया था, तो इतनी बड़ी संख्या में हिंदू यहां कैसे बचे रह गए? यहां दो और सवालों को छोड़ दिया जाता है। 

पहला सवाल यह कि जब भारत में हमलावर आए, चाहे वे तुर्क या हूण ही क्यों न हों, तो वे सीमित संख्या में ही आए होंगे, फिर उन्हें यहां के देशी राजाओं ने रोका क्यों नही? जिन-जिन गांवों से वे गुजरे, वहां के लोगों ने उन्हें सुरक्षित रास्ता क्यों दिया? इतिहास में ऐसी एक भी घटना क्यों दर्ज नहीं है, जो बाहरी हमलावरों और स्थानीय लोगों के बीच युद्ध का विवरण देती हो? दूसरा सवाल यह कि मुट्ठी-भर हमलावरों के सामने हिंदू राज्यों की विशाल सेनाएं क्यों हार गईं? वे उनका मुकाबला क्यों नहीं कर सके?

यह सच है कि नरसंहार करके राज्य स्थापित करना उस राज्य की सभ्यता पर भी सवालिया निशान लगाता है। लेकिन क्या देशी राजे-महाराजे बिना नरसंहार के साम्राज्य कायम करते थे? क्या कलिंग का युद्ध नरसंहार नहीं था? क्या पुष्यमित्र ने बौद्धों का नरसंहार नहीं किया था? हिंदू सभ्यता में ब्राह्मण-क्षत्रिय नरसंहार की लोमहर्षक घटना क्या है? अगर भारत सभ्यताओं का राज्य है, तो इसी इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में गुजरात में हुए दो हजार अल्पसंख्यकों के नरसंहार को किस सभ्यता में रखा जाएंगा? सवाल फिर वही है कि शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित जिन सभ्यताओं के राज्य पर जोर देती हैं, वह भारत को एक अच्छा नागरिक राष्ट्र क्यों नहीं बना सका? अगर इन सभ्यताओं ने भारत को एक सभ्य नागरिक राष्ट्र बनाया होता, तो क्या यहां दलितों, ईसाईयों और मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में नफ़रत दिखाई देती? यह कौन सी सभ्यता है, जो घोड़े पर चढ़ने और मूंछें रखने पर दलितों की हत्याएं करती है? यह कौन सी सभ्यता है, जो मुसलमानों के नरसंहार की खुले आम घोषणा करती है? इस नफ़रत से लबालब भरी सभ्यता के खिलाफ संविधान के तहत न्यायपालिका ने कार्यवाही इसीलिए की, क्योंकि संविधान भारत को नागरिक राष्ट्र बनाता है। एक अच्छा नागरिक राष्ट्र तभी तो बनेगा, जब नागरिकों के बीच एक राष्ट्रीयता पैदा होगी। जब नागरिकों को परस्पर जोड़ने वाली राष्ट्रीयता विकसित ही नहीं होगी, तो भारत एक राष्ट्र भी कैसे बन सकता है?

शांतिश्री धूलिपुड़ी पंडित ने चोलों का जिक्र इसलिए किया है, क्योंकि वह दक्षिण से आती हैं। चोलों का साम्राज्य भी तमिलनाडु और आसपास के दक्षिण राज्यों तक ही सीमित था। इसी आधार पर वह चीन को सभ्यताओं वाला राज्य कहती हैं। चोलों का चीन से व्यापारिक संबंध था। इसका प्रमाण है कि तमिल के कुछ मंदिरों में चीन के प्राचीन सिक्के मिले हैं। लेकिन जब वह सभ्यताओं के राज्य की बात करती हैं और जोर देकर कहती हैं कि उनके नाम का कोई भी स्मारक या सड़क दिल्ली में नहीं है, तो उन्हें यह भी बताना चाहिए था कि चोल राजाओं ने दिल्ली के विकास में क्या योगदान दिया था, और उन्होंने कौन सी इमारतें दिल्ली में बनवाई थीं, जो आज भी मौजूद हैं? चोलों की क्या सभ्यता थी? यह भी उन्हें बताना चाहिए था। चोलों ने शैव और वैष्णव धर्मों के पुनरुत्थान और दक्षिण में हिंदू मंदिरों का जाल फैलाने के सिवाय क्या काम किया था? आखिर शासन तो उनका भी वर्णव्यवस्था का ही था। उन्होंने कौन से शूद्रों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोल दिए थे? उन्होंने कौन सी अस्पृश्यता खत्म कर दी थी? उन्हें किस महान सभ्यता के लिए याद किया जाए? 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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