h n

आंखन-देखी : मूल सवालों से टकराता नजर आया पहला झारखंड विज्ञान फिल्म महोत्सव

इस फिल्म फेस्टिवल में तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। अहम फिल्मों में पानी के लिए काम करने वाले पद्मश्री सिमोन उरांव की जिंदगी पर आधारित डॉक्यूमेंट्री ‘झरिया’ रही, जिसके निर्देशक बीजू टोप्पो हैं। उसी तरह आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाली दयामनी बारला और कवि निर्मला पुतुल की जीवनी पर आधारित डॉक्यूमेंट्री ‘बुरु गारा’ का प्रदर्शन हुआ, जिसके निर्देशक श्रीप्रकाश हैं। बता रहे हैं अभय कुमार

गत दिनों मैं झारखंड के लोहरदगा में था। मौका था प्रथम झारखंड विज्ञान फिल्म महोत्सव का। बीते 29 अप्रैल से लेकर 1 मई तक चले इस तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव का आयोजन स्थल लोहरदगा का एक स्कूल था। इस कार्यक्रम में झारखंड के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से फिल्म निर्देशकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों ने भाग लिया। इस फिल्म समारोह में प्रदर्शित कई सिनेमा आदिवासी समाजों और उनकी समस्याओं आधारित रहे। 

इस फिल्म फेस्टिवल में तीन दर्जन से ज्यादा फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। अहम फिल्मों में पानी के लिए काम करने वाले पद्मश्री सिमोन उरांव की जिंदगी पर आधारित डॉक्यूमेंट्री ‘झरिया’ रही, जिसके निर्देशक बीजू टोप्पो हैं। उसी तरह आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाली दयामनी बारला और कवि निर्मला पुतुल की जीवनी पर आधारित डॉक्यूमेंट्री ‘बुरु गारा’ का प्रदर्शन हुआ, जिसके निर्देशक श्रीप्रकाश हैं। आदिवासी इलाकों में छाए खौफ के माहौल को रेखांकित करने वाली डॉक्यूमेंट्री ‘पहाड़ा’ को भी दिखाया गया। इस फिल्म में अहम किरदार निभाने वाली सुमित्रा टोप्पो ने भी फिल्म फेस्टिवल में अपनी बात रखी। स्क्रीन की गई कुछ अन्य फिल्में काबिल जिक्र हैं– ‘मूविंग अपस्ट्रीम : गंगा’, ‘क्रोकिंग फ्रॉग’, ‘माई लाइफ ऐज अ स्नेल’, ‘दी प्रेशर’, ‘अंकुर’, ‘दी लॉस्ट बहरूपिया’, ‘एक खूबसूरत जहाज’।

फिल्म फेस्टिवल के दौरान विचार गोष्ठी का आयोजन भी किया गया, जिसमें प्रोफेसर नीतिशा खलखो ने विज्ञान और शिक्षा के ऊपर अपनी बात रखी। कार्यक्रम को सफल बनाने में प्रोफेसर अली इमाम खान, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता डी.एस.एन. आनंद ने अहम भूमिका निभायी। इनके अलावा श्रीराम डाल्टन, प्रबल महतो, मेघनाथ, सिद्धार्थ, महिमा, अरशी कुरैशी, कबीर नायक ने भी हिस्सा लिया। साथ ही, राकेश कुमार, संजीव आनंद, दीपक ठाकुर, विकास, विनोद बिहारी महतो सहित शोधार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी फिल्म फेस्टिवल को यादगार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 

फिल्म समारोह में अनेक विषयों पर विचार विमर्श हुए। इनमें राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रश्न शामिल रहे।

ध्यातव्य है कि झारखंड राज्य इस सदी की शुरुआत में वजूद में आया था, लेकिन यहां के आदिवासी लंबे समय से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं। ‘आदिवासी महासभा’ 1930 और 1940 के दशक में बहुत सक्रिय था और इसने विभिन्न मंचों से आदिवासी क्षेत्रों से संसाधनों की लूट के खिलाफ आवाज उठाई। विशेष रूप से, जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी महासभा ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया, जिसे कुचलने के लिए सरकार ने बल प्रयोग किया।

प्रथम झारखंड विज्ञान फिल्म महोत्सव के दौरान प्रदर्शित एक फिल्म का दृश्य

इतिहास साक्षी है कि चाहे अंग्रेज हों या राष्ट्रीय आंदोलन के नेता या स्वतंत्र भारत के शासक, वे सभी आदिवासी क्षेत्रों के संसाधनों का दोहन करने में सबसे आगे रहते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी आदिवासी को एक बराबर इंसान नहीं माना। मुख्यधारा के विद्वानों से लेकर राजनेताओं तक, हर कोई आदिवासी को पिछड़ा और असभ्य समझता है। कुछ अपने पूर्वाग्रह को जाहिर कर देते हैं तो कुछ उसे दबी जुबान में सामने लाते हैं।

उदाहरण के लिए जहां महाजनों ने सूदखोरी के जरिए आदिवासियों का शोषण किया, वहीं सरकारी कर्मचारियों और वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें पानी, जंगल और जमीन से लगभग बेदखल कर दिया। आदिवासी क्षेत्रों में बांध बनाए गए और खनन किए गए तथा जो कुछ भी कमाया गया उसका एक छोटा हिस्सा भी आदिवासी समाज के विकास पर खर्च नहीं किया गया। उद्योग और कारखाने स्थापित करने और देश के विकास के नाम पर आदिवासी क्षेत्रों के संसाधनों को लूटा गया और स्थानीय लोगों को कल कारखानों और सरकारी दफ्तरों में नौकरी देने के बजाय गैर-आदिवासी, खासकर ऊंची जाति के लोगों को रोजगार दिया गया। अचानक झारखंड की डेमोग्राफी बदलने लगी और कम से कम शुरुआती दिनों में बाहरी लोग बड़ी संख्या में आदिवासी इलाकों में बस गए तथा व्यवसाय, रोजगार और मीडिया पर उन्होंने कब्जा कर लिया। आज हालात ऐसे बदल गए हैं कि झारखंड के इलाकों में एक सरना झंडे के पीछे तीन भगवा झंडे लहराते नजर आ रहे हैं।

फिल्म समारोह में इस विषय पर भी विस्तार से चर्चा हुई कि तथाकथित सभ्य समाज, जो आदिवासियों को असभ्य कहने से कभी नहीं थकता, वह अपने आप में सबसे असभ्य है। आदिवासी समाज में अधिकांश लोग लाभ, सूदखोरी और प्रतिस्पर्धा के कीटाणुओं से दूर हैं। उनमें दूसरों के प्रति घृणा, शत्रुता, श्रेष्ठता की भावना या घृणा अमूमन नहीं पाई जाती है। उनका जीवन वास्तविकता और प्रकृति के करीब है। वे जंगल और जंगल में रहने वाले सभी जानवरों और पक्षियों के साथ सद्भाव के साथ रहते हैं। वे हजारों वर्षों से जंगल में रह रहे हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी जंगल को काटना और उसे बेच कर मुनाफा कमाने की कभी नहीं सोची। अन्य प्रमुख धर्मों से आदिवासी लोगों का धर्म बहुत अलग है। उनके पास कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है, और ना ही उनके पूजा स्थल पर अमूमन कोई भवन है। उनका पूजा स्थल खुले आसमान में है और वे प्रकृति की पूजा करते हैं और अपने पुरखों से प्रार्थना करते हैं। हालांकि आज कल सरना के कुछ पूजा साथलों पर भी निर्माण कार्य हो रहे हैं।

आदिवासी महिलाएं अपने समाज के केंद्र में हैं और उनको पूर्ण स्वतंत्रता और समान अधिकार प्राप्त हैं। किताबों में ‘तोता हरा होता है’ पढ़ने के बजाय, वे तोता को जंगल और बगीचे में देखना पसंद करते हैं। जब खाने की बात आती है तो वे मुख्यधारा से आगे होते हैं और सब कुछ खाते हैं, चाहे वह मांस हो या फल या सब्जी। समग्र रूप से देखें तो आदिवासी समाज मुख्यधारा के समाज की तुलना में कहीं अधिक बराबरी पर आधारित और वैज्ञानिक पर टिका हुआ है।

फिल्म समारोह के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अली इमाम खान ने लोहरदगा में एक वार्ता के दौरान मुझसे कहा कि हमें आदिवासी समुदाय से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। अली इमाम बिहार के गया जिले के रहने वाले हैं, लेकिन वह पिछले चार दशकों से झारखंड के अलग-अलग हिस्सों में सक्रिय हैं। वह पेशे से गणित के प्रोफेसर रहे हैं और सेवानिवृत्त होने से पहले उन्होंने झारखंड के एक कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में भी काम किया। वह लंबे समय से जन आंदोलन से जुड़े हुए हैं और फिल्म के माध्यम से समाज में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं। 

अली इमाम खान इस बात से दुखी हैं कि देश में हिंदुत्व समर्थक शासक अंधविश्वास और अतार्किकता को बढ़ावा दे रहे हैं, जो एक खतरनाक प्रवृत्ति है। 

यही हिंदुत्ववादी ताकतें झारखंड के क्षेत्रों में भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। राम नवमी के मौके पर झारखंड में भगवा झंडे लहराए गए और रैलियां निकालीं गयीं। जहां जहां भी आदिवासियों के सरना झंडा था, वहां भगवा झंडे लहराए गए और सरना धर्म, को भगवा रंग में रंगने का प्रयास किया गया। 

झारखंड में आदिवासियों के अलावा पिछड़े वर्ग में आने वाले महतो और अल्पसंख्यक मुस्लिम और ईसाई प्रमुख संप्रदाय हैं। भगवा ताकतें आदिवासियों और महतो समाज के लोगों को मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ खड़ा करने की पूरी कोशिश कर रही हैं। अच्छी खबर यह है कि आदिवासियों ने बड़ी दूरदर्शिता के साथ काम किया है और अल्पसंख्यकों के साथ मजबूती से खड़े हैं, जिसने भगवा शक्तियों के जरिए माहौल खराब करने की योजना को विफल कर दिया है। एक बार फिर आदिवासियों ने अपनी वैज्ञानिक सोच का प्रदर्शन किया है और मुख्यधारा को संदेश दिया है कि धर्म से ऊपर इंसानियत है।

(संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...