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बहस-तलब : सियासी लाभ के लिए सवर्णों की पालकी ढोनेवाले दलितों का हश्र

जातिवाद के विरुद्ध लड़ाई मात्र दूसरों को गालियां देने से आगे नहीं बढ़ेगी, अपितु उनलोगों से भी सवाल पूछने होंगे जो सत्ता के लिए कुछ भी समझौता कर लेते है तथा अपने समाज का बड़ा नुकसान करते है। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

कुछ दिनों पूर्व उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की एक ग्राम पंचायत में एक पूर्व प्रधान द्वारा करवाई गई मुनादी ने हमारे समाज की विकृत जातिवादी मानसिकता का और अधिक खुलासा कर दिया। देश भर में लोग अचरज कर रहे थे कि क्या ऐसा अभी भी होता है? लेकिन हकीकत यह है कि ऐसा हो रहा है और कुछ खबरें थोड़ी सी चर्चा में आ जाती हैं तो अधिकांश दबा दी जाती हैं। 

दरअसल, मुजफ्फरनगर जिला पिछले कई वर्षों से सुर्खियों में रहा है। भारतीय किसान आंदोलन महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में यहीं से उभरा। आज उनके बेटे राकेश टिकैत और नरेश टिकैत किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। जिले में 2013 के दंगों में बड़ी संख्या मे मुसलमान बेघर हो गए थे। ऐसा माना जाता है कि यह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की सियासत के कारण हुआ। लेकिन हकीकत यह है कि ताकतवर जातियां अपने व्यक्तिगत हितों के अनुसार ही अपनी राजनीति तय करती हैं। अभी किसान आंदोलन के तौर पर हमने ‘हिन्दू-मुस्लिम’ एकता की कसमें खाते नेताओं को देखा, वे सभी दलितों के सवालों पर उनके साथ बैठकर बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं हैं। अधिकांश दलित तो भूमिहीन हैं और जिनके पास थोड़ी सी जमीन है या जो थोड़ा अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं, वे जातिवादी लोगों के अहंकार का निशाना बन जाते हैं। 

दरअसल, मुजफ्फरनगर शहर से करीब 22 किलोमीटर दूर पावटी खुर्द नामक एक गांव मे मुनादी की गई, जिसमे कहा गया कि “कोई भी चमार या उसकी कोई वस्तु समाधि ट्यूब वेल पर दिख गई तो जुर्माना लगाया जाएगा जो कि 5 हजार रुपए तथा 50 जूते होंगे।” मुनादी करवाने वाला पूर्व प्रधान राजवीर त्यागी था और ऐसे लग रहा था कि जैसे वह मौजूदा प्रधान हो। 

हाथरस के सांसद राजवीर सिंह दिलेर की तस्वीर

अखबारों में प्रकाशित खबर के अनुसार, त्यागी के परिवार का आपराधिक रिकार्ड रहा है। उसका बेटा विक्रांत त्यागी उर्फ विक्की त्यागी 2015 में एक स्थानीय न्यायालय परिसर मे मारा गया और परिवार के अन्य लोगों पर गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज हैं। 

सवाल यह उठता है कि राजवीर त्यागी ने उपरोक्त मुनादी क्यों करवाई होगी? क्या यह सब अचानक हुआ? 

बताते चलें कि पावटी खुर्द गांव में त्यागी जाति के लोगों की बहुलता है जो कि उत्तर प्रदेश में ऊंची जातियों में ब्राह्मण के समकक्ष शुमार है। गांव में कुछ मुस्लिम त्यागी भी हैं। गांव में दलित भी रहते हैं, जो अधिकांश भूमिहीन हैं तथा बड़े किसानों के खेत मे काम करते हैं। 

यह भी एक हकीकत है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों की स्थिति बहुत गंभीर थी और जो बदलाव आये हैं, वे 1980 के बाद से ज्यादा परिलक्षित हुए। इसके पीछे बहुजन समाज पार्टी का उदय भी एक अहम कारण है। एक समय था दलितों का वोट मतदान केंद्र पर जाने से पहले ही दे दिया जाता था। लेकिन चुनाव प्रणाली में मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन की सख्ती और बसपा के स्वाभिमान आंदोलन के चलते दलितों में जो जोश आया, उसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे बड़े बदलाव किये। दलितों का राजनीति में नई आक्रामकता के चलते खड़ा होना यहां की ताकतवर जातियों के लिए ‘असहनीय’ था और वे कहीं न कहीं हिंसक रूप भी ले लेता था। 

दलितों में बढ़ते स्वाभिमान के नतीजे रहे कि भूमिहीन होने के बावजूद वे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार थे। गांव की जातिवादी स्थितियों का ध्यान रख दलित बच्चे शहरों में गये और कृषि के बजाय तकनीकी कामों मे ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे। आज आंबेडकरी आंदोलन ने गांव-गांव में दलितों को जागरूक बनाया है, जो बड़ी जातियों के रोष का कारण है। 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे बड़ी जाति का मतलब वह जाति जिसके पास खेती की ज्यादा जमीन है। जाट और गुज्जर बहुल इन इलाकों मे दलितों पर अत्याचार की घटनाएं घटित हुई हैं। लेकिन अधिकांश थाने तक भी नहीं पहुंच पाती हैं। 

सामंती सोच अभी भी ताकतवर जातियों के उपर हावी है और उसका खेती और जोत से सीधा संबंध है। बड़े किसानों के इस क्षेत्र में दलितों का तभी तक स्वागत है जब तक वे अपने पारंपरिक कार्यों को ‘निष्ठा’ और ‘ईमानदारी’ से करते रहें। जब भी दलितों ने इसके विरुद्ध विद्रोह किया तो उनके उपर हमले किये गये। लेकिन सामंती चाल दलितों के ही विभिन्न जातियों में मतभेद पैदा करने की होती है। वे उन्हीं के बीच से एक व्यक्ति का चुनाव करते हैं, जिसके जरिए वह अपने जातिवादी कारगुजारियों को अंजाम देते हैं। पावटी खुर्द में जिस व्यक्ति ने राजवीर त्यागी की डुगडुगी बजाकर मुनादी की, जिसने देश भर के लोगों का ध्यान खींचा, वह पचास वर्षीय कुंवर पाल है, जो वाल्मीकि समाज से आता है। 

यह हकीकत है कि जातिवादी शक्तियों का मुकाबला केवल राजनीतिक तौर पर ही नहीं, सांस्कृतिक तौर पर भी होना चाहिए। इस इलाके मे आर्य समाज का बहुत प्रभाव देखा गया है। लेकिन वह जाटों में अधिक पाया गया और उसके कारण जाति वैमनस्य कम हुआ हो या दलितों पर अत्याचार कम हुए हो, ऐसा कुछ सामने नहीं आता। 

दरअसल किसान जातियों का नेतृत्व अधिकतर सामंती जातियों के हाथ में होता है और वे खेती के प्रश्न पर दलितों या कृषि मजदूरों को हमेशा हिकारत की नजर से देखते हैं। खेती केवल किसानी नहीं है अपितु ‘जमीन’ है और वह सीधे आत्मसम्मान से जुड़ा होता है। इसीलिए जब भी दलितों को खेती देने की बात हुई तो इन जातियों में उसके विरुद्ध भयंकर प्रतिक्रिया हुई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में जहां जाटों का प्रभुत्व है, वहां कभी भूमि सुधार नहीं हुए, जो सामाजिक बदलाव और सामाजिक न्याय के लिए अत्यंत आवश्यक है। अधिकांश दलित बड़े किसानों के खेतों मे काम करने वाले कृषि श्रमिक थे और उनसे हर तरह का काम कराया जाता था। जब भी उन्होंने न्यूनतम मजदूरी या अपने हक की बात की तो उन्हें हिंसा से दबा दिया गया। राजवीर त्यागी ने अपने नलकूप पर चमारों के आने पर जो दंड की घोषणा की, वह दरअसल उसी संस्कृति का प्रतीक है कि यदि आपने मेरे खेत मे मेरी मर्जी के अनुसार काम नहीं किया तो हुक्का-पानी बंद कर दिया जाएगा। 

इस मामले में अच्छी बात यह है कि पुलिस ने समय पर कार्यवाही करते हुए राजवीर त्यागी को जेल भेज दिया। 

जब हम बदलाव की बात करते हैं तो इसके लिए यह आवशयक है कि हर पुरानी बात को संस्कृति के नाम पर न बचाएं और संविधान विरोधी बातों को खारिज करें। राजनीतिक हस्तक्षेप से कुछ बदलाव होते हैं, लेकिन वह काफी नहीं होता। मसलन, लोग कहते हैं कि यदि हमारे नेता मंत्री, सांसद, विधायक आदि बन गए तो बदलाव आ जाएगा। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। रैदास, कबीर, नानक, जो बदलाव ला सके, उसमें राजनीति नहीं थी। पेरियार और फुले भी परिवर्तन के वाहक बने लेकिन उन्होंने सत्ता की राजनीति नहीं की। डॉ. आंबेडकर ने भी सांस्कृतिक परिवर्तन को महत्वपूर्ण बताया। 

एक उदाहरण देखिए कि वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में जब विधानसभा चुनाव हो रहे थे तब हाथरस की इगलास (सुरक्षित) विधान सभा सीट से राजवीर सिंह दिलेर चुनाव लड़ रहे थे। वे चुनाव के दौरान अपने साथ एक गिलास रखते थे और जब भी वे बड़े लोगों के घर पर जाते, बाहर जमीन पर बैठ जाते और घर के अंदर नहीं जाते। वह अपने गिलास में चाय या पानी मांगते। बड़े लोगों के घर के छोटे बच्चे भी उनका नाम लेते। राजवीर जी वाल्मीकि समाज से आते हैं और वे कहते हैं कि हमें अपनी परंपराओं का सम्मान करना चाहिए। आज राजवीर दिलेर हाथरस से सांसद हैं और उन्होंने हाथरस में दलित महिला पर हुए अत्याचार के मामले में कुछ नहीं बोल सके। और तो और वे आरोपियों से जाकर मिले। 

अक्सर हम सोचते है कि गरीब आदमी सब काम मजबूरी मे करता है। जैसे मुनादी करने वाले कुंवर पाल की मजबूरी हम समझ सकते हैं कि वह भूमिहीन होगा। एक बात और। गांवों मे दलितों की भी बड़ी जातियां वाल्मीकियों के साथ वैसा ही बर्ताव करती हैं, जैसे सवर्ण व अन्य ताकतवर जातियां। 

खैर, उनके अपने आर्थिक व सामाजिक प्रश्न भी हैं। लेकिन राजवीर सिंह दिलेर, जो आज सांसद हैं, वे ऐसी परंपराएं क्यों निभा रहे हैं, जिनसे दलितों का अपमान होता है। उन्हें मनुवाद की सीमा रेखा में रहने की क्या जरूरत है? इगलास और हाथरस मे जाटों का वर्चस्व है। राजवीर दिलेर के पिता भी चार बार सांसद और एक बार विधायक रहे चुके हैं।राजवीर जी भी विधायकी के बाद अब सांसद हैं, लेकिन क्या मजाल कि उन्होंने कोई प्रश्न उठाया हो, जिससे उनके समाज को लाभ हो सके। 

बहरहाल, जातिवाद के विरुद्ध लड़ाई मात्र दूसरों को गालियां देने से आगे नहीं बढ़ेगी, अपितु उनलोगों से भी सवाल पूछने होंगे जो सत्ता के लिए कुछ भी समझौता कर लेते है तथा अपने समाज का बड़ा नुकसान करते है। मुजफ्फरनगर में राजवीर त्यागी ने अपनी दलित विरोधी मानसिकता की घोषणा के लिए एक दलित का इस्तेमाल किया, वह दिखाता है कि दलितों में भी जो सबसे निचले पायदान पर हैं, उनके बीच आंबेडकरी चेतना का प्रसार नहीं हो सका है। इस कारण वे साजिशों का शिकार होते हैं। जिस इलाके से राजवीर दिलेर चुनाव जीतते हैं, वहां दलितों की आबादी करीब 24 प्रतिशत है। लेकिन वहां भी दलितों के वोट जाति आधारित होते होंगे। इसलिए नेता जी को उनलोगों की शरण मे जाना पड़ता है जो उन्हे सांसद होने के बावजूद बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं है। दुखद यह कि बदलाव की चाबी कही जाने वाली राजनीति बदलाव की राह का सबसे बड़ा रोड़ा नजर आने लगी है, जो बेहद निराशाजनक और खतरनाक है। इस स्थिति को बदलने के लिए राजवीर सिंह दिलेर जैसे लोगों को भी अपनी सोच बदलनी होगी और केवल अपनी सियासत के लिए हर समय अपने समाज की विषम और अमानवीय सामाजिक स्थितियों को परंपरा की दुहाई देकर नहीं ढो सकते। समाज मे बदलाव होने चाहिए और वे केवल संवैधानिक मूल्यों से ही हो सकते हैं। इसलिए अपनी जाति के खांचे में रहकर आप परिवर्तन नहीं ला सकते। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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