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ऊंची जातियों की प्रतिक्रांति को समझें दलित-बहुजन

ऊंची जातियों के लोग इस बात के महत्व को समझते हैं कि प्रचार के बिना उनका सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। पढ़े-लिखे गैर-ब्राह्मणों, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोगों को उनसे सीखना चाहिए। बता रहे हैं सुमित चहल

डॉ. आंबेडकर ने ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ नामक अपनी किताब में बौद्ध धर्म को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक क्रांति कहा है, जो शुरु तो धार्मिक क्रांति के रूप में हुई, लेकिन जल्द ही सामाजिक और राजनीतिक क्रांति बन गई। उन्होंने वैदिक/आर्य समाज की बदहाली का जिक्र किया जो कि व्यभिचार में डूबा हुआ था। उदाहरण के लिए जुआ, पशु बलि, मद्यपान, अनैतिक यौन व्यवहार आदि वैदिक समाज में प्रचलित थे। फलस्वरूप बौद्ध धर्म का विस्तार होता गया और जब सम्राट अशोक ने इसे राज्य धर्म का दर्जा दिया तब यह ब्राह्मणवादियों के लिए बड़ा झटका था और बौद्ध राज्य के खिलाफ विद्रोह ही ब्राह्मणवाद को बचाने का एकमात्र तरीका था, जिसे डॉ. आंबेडकर ने उसे बौद्ध धर्म की प्रतिक्रांति कहा है।

स्वतंत्र भारत द्वारा स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित संविधान को अपनाना भी भारतीय समाज के संदर्भ में एक क्रांति कहा जा सकता है। संविधान में उल्लेखित धारा 17 (छुआछूत निरोधी प्रावधान) और राज्य में प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण के प्रावधानों के कारण, कई पूर्व अछूतों ने अमानवीय जीवन की जंजीरों को तोड़ दिया। पिछड़ी जातियों ने राजनीतिक क्षेत्र में अपने हिस्से का दावा करना शुरू कर दिया और ब्राह्मणवाद की नींव हिला दी। 

अतीत साक्षी है कि अंग्रेजों के शासन के पहले ज्ञान केवल ऊंची जातियों तक ही सीमित था। अंग्रेजों के शासनकाल में एक और शोध इतिहास का रूख मोड़ देनेवाला साबित हुआ। यह हुआ प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता की खोज के कारण। पश्चिमी और कई भारतीय विद्वानों ने भी आर्य प्रवासन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जिसने वैदिक लोगों को मुसलमानों और अंग्रेजों के समान भारतीय धरती पर बाहरी लोगों के रूप में खड़ा कर दिया। अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी विज्ञान के बढ़ते महत्व ने ऊंची जातियों को अपनी मान्यताओं और संस्कृति के बारे में पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया, लेकिन उन्होंने एक बार फिर से प्रतिक्रांति का मार्ग चुना।

वर्चस्ववाद को बरकरार रखने के लिए टेक्नोलॉजी का जमकर उपयोग कर रहे हैं ब्राह्मण वर्ग

जैसा कि डॉ. आंबेडकर भी मानते थे कि धर्म किसी भी अन्य विचारधारा की तरह केवल प्रचार द्वारा ही जीवित रह सकता है, और चूंकि ऊंची जातियां, अपनी विरासत में मिली सामाजिक और आर्थिक पूंजी के कारण, समाज के शीर्ष प्रभावक हैं, इसलिए उन्होंने निम्न वर्गों के बीच अपने धर्म का प्रचार करने के लिए हर संभव साधन का इस्तेमाल किया। धर्म के आधार पर देश का विभाजन और उसके बाद, हिंदू-मुस्लिम मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती राजनीति ने उन्हें अपने धर्म के प्रचार के लिए सबसे अच्छा वातावरण दिया। उस समय के एकमात्र टीवी चैनल पर रामायण और महाभारत धारावाहिक के प्रसारण ने उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने में उनकी बहुत मदद की। टीवी धारावाहिकों ने ब्राह्मण देवताओं, उनके त्योहारों और अनुष्ठानों का अत्यधिक प्रचार किया। करवा चौथ, गणेश चतुर्थी जैसे त्योहारों का प्रसार स्पष्ट रूप से दृश्य मीडिया प्रचार के परिणाम हैं। टीवी पर हर रोज़ कुंडली पर एक घंटे का मॉर्निंग शो और पंडितों द्वारा भाग्य बताने वाला कार्यक्रम आम बात है। ब्राह्मणवादी संस्कृति के अति प्रसार के कारण गैर-सवर्णों के त्योहार, रीति-रिवाज, भाषाएं, संस्कृतियों पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ा। आजादी के बाद कई भाषाएं विलुप्त हो गईं। अनेक भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। इस देश की विविधता पिछ्ले कुछ दशको मे बहुत तेजी से घटी है।

एक हड़प्पा संस्कृति के संबंध में मिले डीएनए नमूने के आनुवंशिक विश्लेषण के संबंध में जारी एक शोध पत्र के लेखकों द्वारा 2019 में की गई प्रेस कांफ्रेस की रिपोर्टिंग, ऊंची जातियों की बेचैनी को दर्शाती है। शोध पत्र का शीर्षक था– ‘एक प्राचीन हड़प्पन जीनोम में स्टेपी (मध्य एशिया) चरवाहों या ईरानी किसानों के वंश की कमी है।’ स्थानीय भाषा के चैनलों या समाचार पत्रों ने इस खबर को भ्रामक सुर्खियां दीं। यहां तक ​​कि लेखकों ने भी प्रेस कांफ्रेंस में भ्रामक बयान दिए जो उनके सह-लिखित शोध पत्रों में रिपोर्ट किए गए निष्कर्षों के विपरीत थे। उक्त शोध पत्र के अनुसार, हड़प्पन नमूने के डीएनए में स्टेपी (मध्य एशिया) चरवाहों या अनातोलियन या ईरानी किसानों से संबंधित कोई पता लगाने योग्य वंश नहीं मिले है। यह निष्कर्ष आर्य प्रवासन की प्रचलित समझ का खंडन नहीं करता है। उन्ही शोधकर्ताओं द्वारा सह-लिखित एक अन्य शोध पत्र के निष्कर्ष के अनुसार, “सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद, इसके लोग स्टेपी (मध्य एशिया) चरवाहों के वंशजों के साथ मिश्रित हुए, जो 4000 साल पहले मध्य एशिया के माध्यम से फैल गए और आज के दक्षिण एशियाई लोगो की एक मुख्य पुश्तैनी आबादी का निर्माण किया। दक्षिण एशिया में स्टेपी वंश का प्रोफ़ाइल वही है जो कांस्य युगी पूर्वी यूरोप में मिलती है, जो दोनों क्षेत्रों को प्रभावित करने वाले लोगों के प्रसार को ट्रैक करता है और संभावित रूप से इंडो-ईरानी और बाल्टो-स्लाविक भाषाओं के बीच साझा की गई अनूठी साझा विशेषताओं को फैलाता है।” 

ब्राह्मण वर्ग की प्रतिक्रांति को समझने में बुद्ध और आंबेडकर के संदेश महत्वपूर्ण

उपरोक्त निष्कर्ष को दोनों लेखकों ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में रिपोर्ट नहीं किया और टीवी चैनलों और अधिकांश समाचार पत्रों द्वारा भी रिपोर्ट नहीं किया गया था। उपरोक्त शोध पत्रों के बारे में आम जनता को गुमराह करने के लिए ब्राह्मणवादियो ने अपनी प्रचार शक्ति का इस्तेमाल किया।

इसी तरह, ‘महाभारत अनरिवेल्ड : लेसर नोन फ़ेसेट्स एंड वेल नोन हिस्ट्री’ नामक पुस्तक की लेखिका एमी गनात्रा ने एक साक्षात्कार में बताया कि वह एक इंजीनियरिंग स्नातक हैं और फिर उन्होंने आईआईएम, अहमदाबाद से एमबीए किया है, लेकिन चूंकि उन्हें संस्कृत और योग में बहुत रुचि है, इसलिए उन्होंने महाभारत का अध्ययन किया और फिर यह पुस्तक लिखी। उन्होने बताया कि “पांडव एक ब्राह्मण के वेश में कुम्हार के घर में रहे थे।” उसके बाद भी कुछ लोग ब्राह्मणों (लेखिका के अपने समुदाय) को जातिवादी कहते हैं। उनके बयान से ऐसा प्रतीत होता है कि सच्चाई को स्वीकार करने और अपने समाज को सुधारने के बजाय, वह उनके तथाकथित “इतिहास” को फिर से लिखने की कोशिश कर रही हैं, ताकि इसके असहज हिस्सों को स्वीकार्य बनाया जा सके।

उपरोक्त चर्चाओं का कारण ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रांति को समझना था। वे अपने खिलाफ किसी भी दृष्टिकोण का मुकाबला करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। चूंकि, उनके पास राज्य सत्ता भी है, तो ऐसा लगता है कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है। यहां तक ​​​​कि आईटी, वित्त, प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले पेशेवर भी अपनी संस्कृति/धर्म के बारे किताबें लिख रहे हैं या पॉड कास्ट या यूट्यूब वीडियो बना रहे हैं। वे इस बात के महत्व को समझते हैं कि प्रचार के बिना उनका सांस्कृतिक और राजनीतिक वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। पढ़े-लिखे गैर-ब्राह्मणों, विशेषकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के लोगों को उनसे सीखना चाहिए कि सब कुछ होने के बाद भी वे अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। एक वैचारिक सर्वोच्चता प्राप्त करने के लिए प्रचार एक कभी न खत्म होने वाली गतिविधि है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुमित चहल

लेखक सामाजिक-आर्थिक विषयों पर लिखनेवाले स्वतंत्र पत्रकार हैं

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