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मध्य प्रदेश पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट की अनुमति से उभरे सवाल और सबक

बीते 18 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आठ दिन पहले के फैसले को पलट दिया और मध्य प्रदेश सरकार को ओबीसी आरक्षण के साथ सूबे में पंचायत चुनाव कराने की अनुमति दे दी। इस संबंध में बता रहे हैं बी. के. मनीष

जिस तरह की जद्दोजहद के बाद बीते 18 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार को स्थानीय निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण की अनुमति दी है, उससे कई सवाल और सबक उभरे हैं। तकरीबन समांतर सुनवाई के महाराष्ट्र राज्य के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही अनुमति देने से साफ़ इंकार कर दिया था। ऐसी शंकाएं भी जताई गईं कि मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार को सामाजिक न्याय की अपनी छवि बचाने का अवसर दे दिया गया, जबकि महाराष्ट्र में विपक्षी दल की सरकार को यही मौका नहीं मिला। कुछ विश्लेषकों ने एक ओर शिवराज सिंह और दूसरी ओर उद्धव ठाकरे-शरद पवार की सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता और तैयारी की तुलना भी रेखांकित की है। जिस तरह की बहस इस मुद्दे पर हुई है, उसे देखते हुए कानूनी पहलुओं पर विचार किये जाने की आवश्यकता है।

इतिहास पर संक्षिप्त नजर

ध्यातव्य है कि वी.पी. सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफ़ारिशें मान्य करने का नतीजा यह है कि सन् 1971 में एससी-एसटी की तत्कालीन जनसंख्या के आधार पर नियत 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत आरक्षण देने के बाद 50 प्रतिशत की सीमा में बची हुई खुरचन ही ओबीसी को दी जा सकती है। यह सिद्धांत जस्टिस वी. रामास्वामी की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने लोक सेवा में पदोन्नति-आरक्षण संबंधी 77वें संशोधन पर अपरोक्ष टिप्पणी करते हुए चत्तर सिंह बनाम हरियाणा प्रकरण में पहली बार स्थापित किया था। इसे बाद में संविधान पीठ के 2006 के एम. नागराज बनाम भारत संघ फ़ैसले ने और मजबूती दी। ध्यान रहे कि मूल संविधान में लोक सेवा में आरक्षण एससी-एसटी के लिए नहीं, बल्कि ‘नागरिकों के पिछड़े वर्ग’ के लिए था, जिसमें ओबीसी आवश्यक तौर पर शामिल हैं। स्थानीय निकायों के संदर्भ में भेदभाव के इसी विचार को बढाते हुए 2010 में एक संविधान पीठ ने के. कृष्णामूर्ति बनाम भारत संघ फ़ैसले में साफ़ किया कि एससी-एसटी आरक्षण का प्रावधान कर लेने के बाद 50 प्रतिशत की सीमा के भीतर कोई जगह बची हो तो और उतनी ही सीटें ओबीसी को दी जा सकती है। 

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

इसी फ़ैसले की व्याख्या करते हुए तीन जजों की एक खंडपीठ ने विकास किशनराव गवली बनाम महाराष्ट्र फ़ैसले में 4 मार्च, 2021 को ‘ट्रिपल टेस्ट’ को परिभाषित किया। इसमें नगरपालिका के संदर्भ में (राजनैतिक भागीदारी) पिछड़ेपन के प्रकार और प्रभाव की स्वतंत्र जांच, नगरपालिका-वार (न कि राज्य भर में एकसार) आरक्षित पदों का विभाजन और 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा बनाए रखना शामिल है। 

स्थानीय निकाय चुनावों में एससी-एसटी आरक्षण के प्रावधान संविधान के अनुच्छेदों (243 घ) और (243 न) में किए गए हैं, जो कि संविधान 73वें व 74वें संशोधन से लाए गए थे। जबकि ओबीसी के लिए वैसे आरक्षण के प्रावधान राज्यों के अधिनियमों द्वारा किए गए हैं। इन्हीं प्रावधानों की वैधता को चुनौती के मामले में 2010 का कृष्णामूर्ति फ़ैसला आया था। 

ध्यान रहे कि मूल संविधान के अनुच्छेदों 330 एवं 332 में जन-प्रतिनिधित्व में एससी-एसटी आरक्षण के प्रावधान इसलिए किए गए थे क्योंकि एससी-एसटी प्रतिनिधियों को पहले दस सालों में अलगाव का एहसास न हो, जबकि दूरगामी नीतिगत कार्यपालिक और विधायी निर्णय लिए जाने थे। मुसलमानों के लिए जनप्रतिनिधित्व-आरक्षण के ऐसे ही प्रावधान बनने के बाद संविधान निर्माण के आखिरी चरण में हटा लिए गए थे और लोक सेवाओं में आरक्षण के उनके प्रावधान में एससी-एसटी प्रतिस्थापित कर दिया गया था (मसलन अनुच्छेद 335)।

जाहिर है कि अनुच्छेद 334 में दस सालों की आरक्षण अवधि की सीमा को जब विस्तारित किया गया तो उसका तार्किक आधार पिछड़ापन हो गया था, ना कि 1947 की राजनैतिक परिस्थितियां। इस नजरिए से देखा जाए तो जनप्रतिनिधित्व-आरक्षण के लिए एससी-एसटी के लिए पहले दर्जे के संवैधानिक प्रावधान करना जबकि ओबीसी के लिए दूसरे दर्जे के अधिनियमिति प्रावधान करना निस्संदेह अतार्किक और भेदभावपूर्ण है। ध्यान रहे कि कृष्णामूर्ति फ़ैसले में बड़ी चालाकी से यह बात कही गई थी कि उच्च शिक्षा, लोक सेवाओं और राजनैतिक भागीदारी के संदर्भों में पिछड़ेपन के प्रकार और प्रभाव अलग-अलग होते हैं। लेकिन जमीनी हकीकतों की रोशनी में ओबीसी के पिछड़ेपन को पहचानने, मापने और इसे दूर करने के उपायों की जरूरत को ढांक दिया गया। इस परस्पर भेदभाव पर जागरूकता न होने का नतीजा है कि ओबीसी के जनप्रतिनिधि और अधिकार मांगनेवाले कार्यकर्ता आज तक आरक्षण में 27 प्रतिशत हिस्सेदारी का राग अलापने और 50 प्रतिशत की अधिसीमा हटाए जाने की कोशिशों में लगे हुए हैं, लेकिन इसी 50 प्रतिशत की सीमा के भीतर एससी, एसटी और ओबीसी के बीच आनुपातिक विभाजन की मांग कभी नहीं की गई।

और सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?

बीते 10 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में मध्य प्रदेश राज्य के राज्य चुनाव आयोग को ओबीसी आरक्षण के बगैर ही अविलंब स्थानीय निकाय चुनाव कार्यक्रम की अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए थे। मध्य प्रदेश सरकार ने इस आदेश में सुधार किए जाने का आवेदन दाखिल किया, जिसमें बताया गया कि 12 मई, 2022 को विशेष आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के आलोक में पुनरीक्षित की हुई अपनी रिपोर्ट शासन को दे दी है। भारत के सॉलिसिटर जनरल ने मध्य प्रदेश सरकार की ओर से पैरवी करते हुए कोर्ट को सूचित किया कि समय पर यह स्पष्ट नहीं किया जा सका था कि 10 मई, 2022 से पहले ही राज्य चुनाव आयोग द्वारा ओबीसी आरक्षण की नगरपालिका-वार सूचियां तैयार की जा चुकी थीं। जाहिर है कि पक्षकार सुरेश महाजन के वकीलों ने मध्य प्रदेश राज्य की प्रार्थना का तत्काल और पर्याप्त विरोध नहीं किया। विशेष आयोग की पुनरीक्षित रिपोर्ट और चुनाव आयोग के दस्तावेजों पर सरसरी नजर डालने के बाद कोर्ट ने मध्य प्रदेश राज्य चुनाव आयोग को ओबीसी आरक्षण के साथ चुनाव कराने की छूट दे दी। यह भी साफ़ किया गया कि विशेष आयोग की पुनरीक्षित रिपोर्ट और चुनाव आयोग के दस्तावेजों की वैधता पर अंतिम फ़ैसला अभी बाकी है और पक्षकार उचित आधारों पर अभी भी इन्हें चुनौती दे सकते हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

बी. के. मनीष

छत्तीसगढ निवासी लेखक आदिवासियों के अधिकार संबंधी आंदोलनों में सक्रिय कार्यकर्ता हैं। संप्रति दिल्ली में सामाजिक न्याय संबंधी विधिक सलाहकार हैं

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