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ब्राह्मणवादी निर्मितियों के विरुद्ध जोतीराव फुले की ‘गुलामगिरी’

‘गुलामगिरी’ किताब ब्राह्मणवादी निर्मितियों की पूरी श्रृंखला की बड़ी तीखी और बेबाक आलोचना करती है। यह किताब न सिर्फ ब्राह्मणवादी निर्मितियों को चुनौती देती है बल्कि वह ब्राह्मणवादी कारख़ाना के विरुद्ध एक मारक विमर्श की ज़मीन भी तैयार करती है। बता रहे हैं सुरेश कुमार

पुस्तक समीक्षा

उन्नीसवीं सदी का उतरार्द्ध साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की गतिविधियों से भरा रहा है। जहां एक ओर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का पतन हुआ, वहीं भारत का शासन महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया था। महारानी विक्टोरिया के शासन को तत्कालीन बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने उगते हुये सूर्य के समान देखा था। इसका कारण यह था कि महारानी विक्टोरिया ने यहां के बुद्धिजीवियों और सुधारकों को इस बात का वचन दिया था कि विक्टोरिया शासन भारतीय कानून और धर्म में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा, जब तक भारतीयों की ओर से पहल नहीं की जाएगी।  1856 में ‘विधवा विवाह अधिनियम’ पारित हो चुका था। इस अधिनियम ने जहां विधवा का जीवन काट रही स्त्रियों के पुनर्विवाह संबंधी प्रावधान ने वैधव्यता की त्रासदी झेल रही स्त्रियों के जीवन में आशा का संचार किया। 

उन्नीसवीं सदी की इन्ही गतिविधियों के बीच महान विचारक जोतीराव फुले की ‘गुलामगिरी’ किताब का प्रकाशित होना औपनिवेशिक भारत की एक बड़ी परिघटना थी। सन् 1873 में यह किताब पहली बार मराठी भाषा में पूना सिटी प्रेस से छपी थी। अभी हाल में ही इस किताब का हिंदी अनुवाद फारवर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया है। देखा जाय तो ‘गुलामगिरी’ के कई हिंदी अनुवाद आ चुके हैं, परंतु फारवर्ड प्रेस से प्रकाशित गुलामगिरी का हिंदी संस्करण बेहद खास और अलग किस्म का है। इस किताब का मूल मराठी से हिंदी अनुवाद सुपरचित अनुवादक उज्ज्वला म्हात्रे ने किया है। अपने अनुवाद में उन्होंने ‘गुलामगिरी’ की मुखरता और शब्दों की ताप को कम नहीं होने दिया है। ‘गुलामगिरी’ के इस हिंदी संस्करण में फुले के विचार उतने ही तीव्र और मुखर दीखते है, जितने कि मूल मराठी वाली ‘गुलामगिरी’ में है। इस किताब का प्राक्कथन फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक आयवन कोस्का ने लिखा है। उनका यह प्राक्कथन लेख औपनिवेशिक भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और बौद्धिक आंदोलनों की अनुसंधानपरक पड़ताल करते हुए फुले की वैचारिक और बौद्धिक निर्मितियों की एक सटीक व्याख्या प्रस्तुत करता हैं। उनका यह प्राक्कथन फुले के अध्यताओं के लिए चिंतन के विविध आयाम और सूत्र भी छोड़ता है। मसलन, फुले ने ‘गुलामगिरी’ भले मराठी भाषा में लिखी थी, परंतु बड़ी दिलचस्प बात यह कि इसकी भूमिका उन्होंने अंग्रेजी में लिखी थी। आयवन कोस्का अपने प्राक्कथन लेख में अंग्रेजी में भूमिका लिखने के पीछे कारणों की गंभीर पड़ताल करते हैं। वह अपने निष्कर्ष में बताते हैं कि फुले औपनिवेशिक शासन और भारत के शिक्षित तबके को शूद्रों, अतिशूद्रों और आम जनता की दुश्वारियों की तरफ ध्यान खींचना चाहते थे। आयवन कोस्का लिखते हैं कि “जिस तरह कि शब्दावलियों और उदाहरणों का इसमें प्रयोग किया गया है और जिस तरह से पश्चिमी इतिहास और संस्कृति की घटनाओं और व्यक्तियों का हवाला दिया गया है, उससे ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य अंग्रेजों और शिक्षित भारतियों को यह बताना था कि आखिरकार आमजनों से जुड़ा एक शिक्षित शूद्र उनके सामने है, जो जनता की बात दुनिया के सामने रख सकता है।” गुलामगिरी के इस हिंदी संस्करण की एक विशेष ख़ूबी यह भी कि डॉ. राम सूरत और आयवन कोस्का ने बड़ी गंभीरता से संदर्भ-टिप्पणियां लिखी हैं। उनकी संदर्भ-टिप्पणियां गुलामगिरी के पाठ को आसान तो बनाती ही हैं और साथ में औपनिवेशिक भारत को समझने में हमारे दायरे का विस्तार भी करती हैं। 

जोतीराव फुले ने यह किताब संवाद शैली में लिखी थी। इसमें जोतीराव और घोंडिबा के बीच संवाद है। इस किताब की आलोचना के केंद्र में ब्राह्मणवादी निर्मितियों की वह पूरी बौद्धिक सत्ता थी, जिसने शूद्रों और दलितों को सार्वजनिक संपत्ति और मानवीय गरिमा की दावेदारियों से बेदख़ल करने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी का यह वही दौर था। जब उच्च श्रेणी के हिंदू वेद-पुराणों और स्मृतियों को अपने सिरहाने रखकर सोते और झोले में डालकर चलते थे। ऐसे माहौल में फुले ने इस किताब में सबसे पहले ब्राह्मणवादी बौद्धिकता के उस फार्मूले पर सवाल उठाया, जिसमें मनुष्यों की उत्पत्ति का उद्गम ब्रम्हा के शरीर को बताया गया था। फुले का कहना था कि यदि ब्राह्मणों का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ होगा, तो वह एक प्रकार का गर्भाशय ही हुआ न। यदि गर्भाशय होगा तो मासिक धर्म भी होगा। तो क्या मनु का कोई लेख है, जो बताता हो कि मासिक धर्म के उन चार दिनों में ब्रह्मा अलग-थलग एकांतवास बैठता था। यह एक ऐसा मारक सवाल था, जिसका जवाब शायद ही ब्राह्मणवादी बौद्धिकता के पास था। फुले का दावा था कि मनु ने ब्रह्मा के नियमों को क़ानूनी जामा पहनाने में अहम भूमिका निभायी है। कोई व्यक्ति ब्रह्म की बातों को कोई झुठला न सके, इसलिए मनु ने ब्रह्मा की बातों को ईश्वरवाणी के समतुल्य बताकर शूद्रों को गुलामी की जंजीरों में अजगर की तरह जकड़ लिया।

समीक्षित पुस्तक ‘गुलामगिरी’ का आवरण पृष्ठ

फुले ने इस किताब में शूद्रों और अछूतों की गुलामी का बुनियादी कारख़ाना ब्राह्मणवादी बौद्धिकता को माना है। गुलामगिरी की भूमिका में फुले ने दावे का साथ लिखा कि ब्राह्मणों की सत्ता क़ायम होने से शूद्रों और अतिशूद्रों को बड़ी यातनाओं में जीवन गुज़ारना पड़ा है। वे बताते हैं कि ब्राह्मणवादी बौद्धिकता ने शूद्रों और दलितों को न सिर्फ शिक्षा से वंचित किया, बल्कि उनकी गरिमा और अस्मिता को भी कुचल डाला। यह शूद्र समाज शिक्षा के अभाव में ब्राह्मणों के दांव-पेंच समझने में अक्षम रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि उन पर असामाजिक सहिंताएं लाद कर उन्हें पंगु बना डाला गया। 

औपनिवेशिक भारत में फुले शूद्रों की शिक्षा का सवाल बड़ी शिद्द्त के साथ उठाते हैं। वह बड़ी निर्भीकता से विक्टोरिया सत्ता की शूद्र शिक्षा के मसले पर आलोचना करते हैं। फुले की दलील थी कि शिक्षा विभाग पर लाखों का ख़र्च होने के बाद भी शूद्रों और अछूतों को शिक्षा के लाभ से वंचित रखा जा रहा है। वह विक्टोरिया सरकार को बताते हैं कि शूद्र और दलित शिक्षा के लाभ से इसलिए वंचित हैं, क्योंकि अंग्रेज़ अफसरों ने शिक्षा विभाग उच्च श्रेणी के हिंदुओं के हाथों में सौंप दिया है। यह उच्च श्रेणी के हिंदू अपनी मनोवृति में शूद्रों और दलितों की शिक्षा के प्रबल विरोधी होते हैं। फुले विक्टोरिया सरकार से मांग करते हैं कि शूद्र शिक्षा के विरोधियों की पाठय-पुस्तकों को इनाम देने के बजाय प्रतिबंधित किया जाए। 

बताते चलें कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की ओर से हिंदी पाठयक्रम की अनेक पुस्तकों को इनाम दिया गया। जैसे पंडित रामप्रकाश तिवारी को ‘सुता प्रबोध’(1871) नामक पाठ्यक्रम की पुस्तक को सरकार की ओर से सौ रूपए का पुरस्कार दिया गया था। इसी तरह से पंडित गौरी दत्त को ‘देवरानी जिठानी’ (1870) किताब के लिए सरकार की ओर से सौ रुपए का इनाम दिया गया था।

औपनिवेशिक शासन द्वारा शूद्रों की उपेक्षा से फुले काफ़ी चिंतित थे। उन्होंने बड़ी तल्ख भाषा में सरकार से कहा कि यदि सरकार शूद्र विरोधी पुस्तकों पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती है तो उसे शिक्षा विभाग पर ताला लगा देना चाहिए। इससे शूद्र कम से कम कर के बोझ से मुक्त हो जाएंगे। फुले का तर्क था कि शिक्षा विभाग में उच्च श्रेणी के नौकरों को सरकार प्रति माह वेतन के तौर पर छह सौ रुपए देती है। यह रकम शूद्रों से कर के रूप में वसूली जाती है। यह बात एकदम सही है कि शिक्षा विभाग में उच्च श्रेणी के जो हिंदू अधिकारी थे, उन्हें तनख़ाह के रूप में मोटी रकम मिलती थी। प्रमाण के तौर पर औपनिवेशिक भारत के प्रसिद्ध लेखक शिव प्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ को सन् 1856 में शिक्षा विभाग में बनारस डिवीजन के जाइंट इस्पेक्टर पद पर पांच सौ रुपए मासिक तनख़ाह पर नियुक्त किया गया था। जब इन्हें शिक्षा विभाग में प्रधान इस्पेक्टर बनाया गया तो इनकी तनख़ाह एक हजार रुपया मासिक कर दी गयी थी। फुले विक्टोरिया शासन की कार्यपद्धति पर भी सवाल उठाते हैं। वह इस बात से भलीभांति परचित थे कि सन् 1872 के दिल्ली दरबार में विक्टोरिया शासन ने उच्च श्रेणी के बुद्धिजीवियों और सुधारकों को जिस तरह से हाथों-हाथ लिया और उन्हें ‘राय बहादुर’ और खानबहादुर की उपाधियां तक दे डाली। फुले ने विक्टोरिया सत्ता को आगाह करते हुए लिखा कि सरकार को उच्च श्रेणी के लेखकों और सुधारकों पर अधिक न भरोसा करे। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि उन्नीसवीं सदी में उत्तरार्द्ध में प्रकाशित गुलामगिरी किताब ब्राह्मणवादी निर्मितियों की सिर्फ तीखी आलोचना ही नहीं करती है, बल्कि ब्राह्मणवादी कारख़ाने के विरुद्ध एक मारक विमर्श की ज़मीन भी तैयार करती है। फुले की यह किताब ब्राह्मणवादी निर्मितियों का खुंखार चेहरा उघाड़कर रख देती है। फुले जहां एक ओर अपनी बौद्धिकता से शूद्रों और दलितों की मुक्ति का घोषणा पत्र तैयार कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर शूद्रों और दलितों की सार्वजनिक संपत्ति और शैक्षिक परिसर में दावेदारी का सवाल भी पेश कर रहे थे। उन्नीसवीं सदी में फुले शूद्र और दलित बौद्धिकता की नुमाइंदगी करते नज़र आते हैं, यह नुमाइंदगी उस दौर में होती है, जब ब्राह्मणवादी शक्तियों ने शूद्रों के पढ़ने लिखने पर पहरा लगा रखा था।

 किताब : गुलामगिरी
 लेखक : जोतीराव फुले
अनुवादक : उज्ज्वला म्हात्रे
संदर्भ टिप्पणियां : रामसूरत व आयवन कोस्का
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपए (अजिल्द), 400 रुपए (सजिल्द)  

(संपादन : नवल/अनिल)

(यह समीक्षा पूर्व में वेब पोर्टल ‘मूकनायक’ द्वारा प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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