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दलित आलोचकों की नजर में ओमप्रकाश वाल्मीकि

दलित चेतना, सहानुभूति और स्वानुभूति लेखन में अंतर एवं दलित साहित्य की भाषा जैसे विषयों पर ओमप्रकाश वाल्मीकि ने तार्किक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं, जो तर्कपूर्ण होने के साथ-साथ सठीक भी हैं। किंतु कुछ ऐसे संदर्भ हैं, जिनके बारे में उन्होंने अतार्किक सवाल अवैज्ञानिक ढंग से भी उठाये हैं, जो उनकी आलोचना दृष्टि पर सवाल खड़े करती हैं। बता रही हैं ज्योति पासवान

ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून, 1950 – 17 नवंबर, 2013) पर विशेष

‘दलित’, जिसका समान्य अर्थ है जिसका दलन हुआ है, जिन्हें दबाया गया है। शोषक वर्ग के द्वारा जिन्हें सदियों से सामाजिक एवं धार्मिक परंपरा एवं कुटनीतियों का शिकार होना पड़ा। दलित साहित्य में इन्हीं शोषित एवं पीड़ितों की पीड़ाओं एवं यातनाओं का मार्मिक चित्रण मिलता है। हालांकि शोषितों का वर्णन तो हमें आधुनिक हिन्दी दलित साहित्य में पहले से ही मिलता है। पर वे दलित के रुप में चरितार्थ नहीं हुए थे, उन्हें केवल शोषित माना गया। किंतु प्रत्येक शोषित व्यक्ति दलित ही होगा, यह आवश्यक नहीं है। दलित और शोषित में एक ही विभाजन रेखा है। प्रत्येक दलित के साथ अस्पृश्यता के नियम जुड़े होते हैं, लेकिन प्रत्येक शोषित के साथ यह नियम संलग्नित नहीं होता है। आधुनिक दलित साहित्य में इन्हीं दलितों को केंद्रबिंदु बनाकर उनकी पीड़ा को अभिव्यक्त किया गया है। दलितों की पीड़ाओं की अभिव्यक्ति दलित और गैर-दलित दोनों रचनाकारों ने की है।

किंतु अधिकांश दलित आलोचक गैर-दलितों की पीड़ा की अभिव्यक्ति को प्रमाणिक नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि भारतीय समाज व्यवस्था ने दलित एवं गैर दलित समाज में इतने फासले निर्धारितहैं कि दलित का प्रवेश मात्र गैर-दलित के घर के पिछले दरवाजे तक सीमित है। चूंकि उन्होंने दलितों के जीवन को दूर से केवल झांका है। फिर उनकी पीड़ा की अभिव्यंजना कैसे प्रमाणिक हो सकती है। हाँ, सहानुभूति के आधार पर वे दलितों के जीवन की विसंगतियों एवं यातनाओं को तो वर्णित कर सकते हैं, लेकिन इन यातनाओं के विरूद्ध एक दलित के हृदय में किस प्रकार के क्रोध एवं आक्रोश ने जन्म लिया है, यह तो केवल एक दलित ही लिख सकता है, जिसने इन यातनाओं को झेला है और विवशतापूर्वक क्रोध एवं विद्रोह की आग को अपने हृदय की किसी कोने में दबाया होगा। इसलिए दलित आलोचकों का मानना है कि दलित लेखक ही दलितों की पीड़ा एवं वेदना को अभिव्यक्त कर सकता है और उनकी अभिव्यक्ति ही प्रामाणिक है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून, 1950 – 17 नवंबर, 2013)

ओमप्रकाश वाल्मीकि भी दलित आलोचकों के इन्हीं विचारधाराओं का अनुसरण करते हुए दिखाई देते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि के परिचय के बारे में जयप्रकाश कर्दम ने लिखा है– “हिन्दी साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि एक ऐसा नाम है, जिसने अपनी रचनाओं के माध्यम से कुलीनता और अभिजात्य संस्कृति के मूल्यों में रचे-बसे हिंदी साहित्य की सदियों पुरानी जड़ता को तोड़ा और समाज की भांति साहित्य की चौखट से बाहर उपेक्षित पड़े दलितों को साहित्य के केन्द्र में लाकर खड़ा किया।”[1] ओमप्रकाश वाल्मीकि के बारे में यह कथन बिल्कुल सठीक बैठता है कि उन्होंने साहित्य की जड़ता को तोड़ने का कार्य किया था। साहित्य में दलितों के बारे में लिखा तो जा रहा था, किंतु रचनाकार समाज को केवल मार्क्सवादी दृष्टि से दो भागों में विभाजित करते हुए और दलितों को मात्र शोषित वर्ग के रूप में चरितार्थ कर रहे थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आलोचना के माध्यम से ऐसे कई संदर्भों पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित साहित्य की रचना करने के लिए दलित चेतना का होना आवश्यक माना है। वे मानते हैं कि दलित शोषित होने के साथ-साथ जातिगत रुप से वर्जित भी हैं। उन्होंने ‘दलित चेतना’ को परिभाषित किया और लिखा कि उन रचनाओं में, जिनमें दलितों पीड़ा एवं वेदना का भले ही उल्लेख किया गया हो, लेकिन वह दलित चेतना नहीं माना जा सकता। दलित चेतना को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है– “दलित की व्यथा, दुख, पीड़ा, शोषण का विवरण देना या बखान करना ही दलित चेतना नहीं है, या दलित पीड़ा का अश्रुविगलित वर्णन, जो मौलिक चेतना से विहीन हो। चेतना का सीधा संबंध दृष्टि से होता है, जो दलितों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक भूमिका की छवि के तिलिस्म को तोड़ती है। वह है दलित चेतना ।”[2] अत: उनके अनुसार, जिन साहित्यों में ऐसी दलित चेतना हो, जिनमें दलितों के सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक छवि के तिलिस्म को तोड़ने का सामर्थ्य रहे, उसे ही दलित साहित्य माना जाएगा। दलित साहित्य की यह शर्तें उसी साहित्य में हो सकती हैं, जो आंबेडकर के जीवन-दर्शन को स्वीकार करती हो। यही कारण है कि दलित साहित्य को परिभाषित करने के लिये उन्होंने कंवल भारती मान्यता को स्वीकार किया है। वे लिखते हैं– “दलित चिंतक कंवल भारती की यह मान्यता इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि आधुनिक हिंदी दलित साहित्य वह है जो मुक्ति के सवालों पर पूरी तरह आंबेडकरवादी हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में उसके सरोकार वे हैं, जो आंबेडकर के थे।”[3]

ओमप्रकाश वाल्मीकि का मानना है कि जिन रचनाओं में आंबेडकर के जीवन-दर्शन से उर्जा ग्रहण कर करनेवाली ‘दलित चेतना’ का विकास होगा, वही दलित साहित्य है। यही कारण है कि उनका मानना है कि ऐसे दलित साहित्य की रचना केवल दलित ही कर सकता है, गैर-दलित साहित्यकार नहीं। गैर-दलित सहित्यकार सहानुभूति के आधार पर दलितों के दुख-दर्द का बखान तो कर सकता है, लेकिन वर्चस्ववादी परंपरा के प्रति उनका जो मोह है, वह उनकी चेतना के विद्रोह को खत्म कर देती है। परंपरा के प्रति उनका मोह उनकी रचनाओं में दलित पात्रों के विद्रोह की आग को ठंडी कर देती है। जबकि दलित लेखक वर्णव्यवस्था के प्रति कठोर रुख अपनाता है और उस शोषण के विरूद्ध खुला विद्रोह करता है। दलित और गैर-दलित साहित्यकारों के लेखन के बीच एक सीमा-रेखा को उजागर करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं– “दलित साहित्य की आंतरिक चेतना में निराशावाद, भाग्यवाद नहीं है, वर्णव्यवस्था के प्रति उनका कठोर रुख है, जिसका विध्वंस करके समाज में समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता की भावना स्थापित करना दलित चेतना के सरोकारों में शामिल है। यही वह बिंदु है, जो गैर-दलितों द्वारा लिखे गये दलित-लेखन की सीमा-रेखा है।”[4] सहानुभूति और स्वानुभूति के आधार पर लिखे दलित साहित्य के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि के विचारों को मैंनेजर पांडेय के मात्र एक पंक्ति के द्वारा समझा जा सकता है । मैंनेजर पांडेय ने लिखा है– “सचमुच राख ही जानती है जलने का अनुभव, कोई और नहीं। ”[5]

एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य है दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, जिस पर हिंदी समीक्षकों द्वारा आरोप लगाये जाते रहे हैं। सबसे पहले तो ओमप्रकाश वाल्मीकि ने हिंदी समीक्षकों पर निशाना साधते हुए लिखा है– “यह हिंदी समीक्षकों की एक वैचारिक त्रासदी है कि जिस कृति की भाषा गूढ़, आध्यात्मिक एवं तत्वज्ञान से भरी होती है, वह कृति ही उन्हें श्रेष्ठ लगती है। जिस कृति में रोजमर्रा की भाषा अपनी दुख व्यथा है। यानि जिस कृति में साधारण जीवन की साधारण भाषा है, वह उनके लिए श्रेष्ठ नहीं है।”[6]

दलित साहित्य की भाषा गद्यात्मक होने के कारण हिंदी समीक्षकों द्वारा हमेशा कटघरे में खड़ा किया गया है। अत: दलित साहित्य की भाषा के चयन के संदर्भ में वाल्मीकि ने लिखा है– “दलित साहित्य की भाषा गद्यात्मक है, जिसमें नकार और विरोध का स्वर मुख्य रुप से उभरता है। दलितों के जीवन की विसंगतियां, उत्पीड़न, शोषण और दमन की अभिव्यक्ति के लिए यही भाषा ज्यादा सटीक लगती है।”[7] उनके अनुसार दलित साहित्य की भाषा यातना से उपजी है। चूंकि इस भाषा की उपज यातना से हुई है, इसलिए एक तेज औजार की तरह भीतर तक झकझोर देती है।

भाषा के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहना है कि अगर दलितों की भाषा को समझना है तो उसके उद्गम को समझना होगा। वह दलितों के जीवन की भाषा है। दलितों ने अपने जीवन में भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति का माध्यम गद्यभाषा को बनाया है। दलित साहित्यकारों के अभिव्यक्ति के लिए गद्य भाषा का चयन करने के निर्णय को उन्होंने सही माना है। उनका मानना था कि “दलितों की पीड़ा एवं दुखों को अभिव्यक्त करने के लिए गद्यभाषा का प्रयोग करना ही सही है, ताकि वे अच्छी तरह से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर सके। एक दलित साहित्यकार के लिए बिना किसी लाग-लपेट के भावों की अभिव्यक्ति मायने रखती है ना कि कला पक्ष। बिना लाग-लपेट की अभिव्यक्ति को, कलापक्ष के साथ समझौता करते हुए आलोचक नामवर सिंह ने भी स्वीकार किया है। यह स्वीकृति उन्होंने प्रगतिवादी कविता के संदर्भ में दी थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आधुनिक काल की प्रवृत्तियां’ में लिखा है– “सजाव-सिंगार और पेंचीगियां से प्रगतिशील कविता में नहीं मिलते। अपनी बात को सुलझाकर उसे कितने सहज ढंग से कह दिया जाय– “यही प्रगतिशील कवि का प्रयत्न रहता है। उसके भावों की तरह भाषा भी गाठरहित है।”[8]

इस प्रकार देखें तो दलित चेतना, सहानुभूति और स्वानुभूति लेखन में अंतर एवं दलित साहित्य की भाषा जैसे विषयों पर ओमप्रकाश वाल्मीकि ने तार्किक ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं, जो तर्कपूर्ण होने के साथ-साथ सठीक भी हैं। किंतु कुछ ऐसे संदर्भ हैं, जिनके बारे में उन्होंने अतार्किक सवाल अवैज्ञानिक ढंग से भी उठाये हैं, जो उनकी आलोचना दृष्टि पर सवाल खड़े करती हैं।

हालांकि ओमप्रकाश वाल्मीकि में इतिहास-बोध का अभाव था। उदाहरणार्थ, कबीर और रैदास के बारे में उनका कहना था कि कबीर और रैदास अछूत थे, इसलिए उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिल सका था। यही कारण है कि उन्होंने निर्गुणवाद अपनाया। उनके इस तथ्य का खंडन कंवल भारती ने ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि का इतिहास-बोध’ नामक लेख में किया है। वे लिखते हैं– “कबीर-रैदास का ईश्वर गुणविहीन है, जो न किसी को पैदा करता है और न किसी को मृत्यु देता है। इसके लिए भी तत्कालीन राजनीति को समझना जरूरी है । वह समय लोकतंत्र का नहीं, बल्कि मुस्लिम सुल्तान की राजशाही का युग था, जिसकी नजर में ईशनिंदा अपराध था और उसकी सजा मौत से कम नहीं थी। कबीर और रैदास उस समय अनीश्वरवादी बनकर केवल जिंदा नहीं रहे बल्कि अद्वैतवादी ब्राह्मणों और एकेश्वरवादी मुस्लिम धर्मगुरुओं की आंखों में धूल झोंकने के लिए एक क्रांतिकारी आड़ थी ।”[9]

एक खंडन यह भी है कि गुरुनानक तो अछूत नहीं थे, फिर उन्होंने निर्गुणवाद को क्यों अपनाया?

विषय का गंभीर अध्ययन ना करने के बदले उन्होंने तथ्यों को उद्धरण के रुप में गलत प्रयोग किया है । जैसे एक स्थान पर वे स्थापित करना चाहते हैं कि कबीर और रैदास जैसे संतों ने सामाजिक चेतना का कोई ऐसा आयाम स्थापित नहीं किया कि जिससे दलितों में किसी परिवर्तन की सुगबुगाहट उत्पन्न हो सके । अपने इस कथन की पुष्टि के लिए वे डॉ. आंबेडकर की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं–“किसी भी संत ने जातिव्यवस्था पर कभी भी हमला नहीं किया। इसके विपरीत वे इसके विश्वासी बने रहे।”[10]

उपर्युक्त तथ्य को वाल्मीकि जी ने कबीर और रैदास को केंद्र में रखकर उद्धृत किया। कंवल भारती ने आंबेडकर के कथन को प्रस्तुत किया है। यह डॉ. अंबेडकर के सम्पूर्ण वांड्मय, खंड 1, पृष्ठ 113 में संकलित है, जिसे पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि डॉ. आंबेडकर ने इन दलित संतों के संदर्भ में यह बात नहीं कही थी। उन्होंने ज्ञानदेव और एकनाथ जैसे ब्राह्मण संतों के लिए यह बात रखी थी। आलोचक कंवल भारती लिखते हैं– “इस उद्धरण में डॉ. आंबेडकर ने कहीं भी कबीर, रैदास या किसी भी निर्गुण दलित संत का जिक्र नहीं किया है। उन्होंने ज्ञानदेव और एकनाथ जैसे ब्राह्मण संतों के विषय में अपना मत व्यक्त किया है। इससे साफ है कि वाल्मीकि ने दलित संतों के बारे में डॉ. आंबेडकर को गलत ढंग से उद्धरित किया।”[11]

खैर, इस तथ्यात्मक भूल को नजरअंदाज किया जा सकता है। लेकिन जब शोधपूर्ण आलेख लिखने की बारी आती है, तब ऐसी भूलें आलोचक के आलोचकीय गुण पर एक प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। अपने एक लेख में श्योराज सिंह बेचैन ने लिखा भी है– “सच में वे [वाल्मीकि] शोध और आलोचना के व्यक्ति नहीं थे। वे कथाकार थे। उनके पास भोगा हुआ यथार्थ बेजोड़ था। उस योगदान के लिए उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता है।”[12]

वास्तव में अगर आप दलित कविता, कहानी और आत्मकथा की बात करें तो ओमप्रकाश वाल्मीकि का उदाहरण दिये बिना आपकी बातें पूरी नहीं हो सकती हैं। इतना ही नहीं, अगर दलित आत्मकथा की चर्चा करें और आपने ‘जूठन’ का जिक्र ना किया तो वह भी अधूरा होगा। उनके योगदानों पर ही लिखते हुए जयप्रकाश कर्दम ने लिखा है– “अपने साहित्य में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कई पात्र सृजित किये हैं, कई नायक गढ़े, जो दलित समाज की आशा, विश्वास और संघर्ष के प्रतीक हैं। दलित अस्मिता को पहचान दिलाते हुए इन नायकों को गढ़ने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि वास्तव में हिन्दी दलित साहित्य के महानायक हैं और नायक कभी नहीं मरते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि भी अपनी रचनाओं के माध्यम से सदैव हमारे बीच रहेंगे।”[13]

संदर्भ :

(संपादन : नवल/अनिल)

[1] ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्ति, विचारक और सृजक’ , संपादक- जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संपादकीय

[2] वाल्मीकि, ओमप्रकाश, ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’, राधाकृष्णन प्रकाशन’, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2019, पृष्ठ 29

[3] वही, पृष्ठ 30

[4] वही, पृष्ठ 105

[5] पांडेय, मैनेजर, ‘साहित्य और दलित दृष्टि’, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2015, पृष्ठ 50

[6] वही, पृष्ठ 99

[7] वही, पृष्ठ 82

[8] सिंह, नामवर, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, प्रस्तुत संस्करण, 2016, पृष्ठ 81

[9] ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्ति, विचारक और सृजक’, संपादक- जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 97

[10] वाल्मीकि, ओमप्रकाश, ‘दलित साहित्य : अनुभव संघर्ष एवं यथार्थ’, राधाकृष्णन प्रकाशन’ ,नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 2013, पृष्ठ 62

[11] ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्ति, विचारक और सृजक’ , संपादक- जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 105

[12] ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि : व्यक्ति, विचारक और सृजक’ , संपादक- जयप्रकाश कर्दम, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 27

[13] वही, संपादकीय


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लेखक के बारे में

ज्योति पासवान

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. ज्योति पासवान काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल में पीएचडी शोधार्थी हैं

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