उदयपुर में कन्हैया लाल साहू की निर्मम हत्या की चौतरफ़ा निन्दा हो रही है। आक्रोशित लोग सड़कों पर उतर आये हैं। स्थितियां बेहद तनावपूर्ण बनी हुई हैं। नफ़रत और अशांति उबाल पर हैं। इस बेहद दर्दनाक हत्याकांड के सभी पहलुओं पर बात हो रही है। एक विचार के लोग इसे धार्मिक आतंकवाद ठहरा रहे हैं तो कुछ ऐसे हैं, जिनका कहना है कि पैगंबर के अपमान के प्रकरण से इस मसले का जुड़ाव है। जांच एजेंसियां और मीडिया के सूत्रों की खबरें इसे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से भी जोड़ कर देख रही हैं, जिसमें दावते इस्लामी और अलसूफ़ा सहित कई अन्य बातें भी सामने आ रही है। जांच की जिम्मेदारी एनआईए ने अपने हाथों में ले ली है। दो आरोपी रियाज़ और ग़ौस, गिरफ़्तार किये जा चुके हैं। राजस्थान सरकार ने भी विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया है। जिन पुलिसकर्मियों ने दोनों हत्यारोपियों को गिरफ़्तार किया है, उनको विशेष पदोन्नति भी दी गई है। मृतक के परिजनों को सरकारी नौकरी और मुआवज़ा भी घोषित हो चुका है। नेता प्रतिपक्ष, प्रभारी मंत्री और मुख्यमंत्री के अलावा बड़े अधिकारी भी पीड़ित पक्ष से मिलने पहुंचे हैं।
राजस्थान में इंटरनेट बंद हैं। उदयपुर में कर्फ़्यू है। पूरे प्रदेश में धारा 144 लगाई जा चुकी है। जगह- जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। भीम क़स्बे में तो प्रदर्शनकारियों और पुलिस के मध्य हुई हिंसक झड़प में एक पुलिसकर्मी पर तलवार से प्रहार भी किया गया है। छिटपुट पथराव की घटनाएं भी हुई हैं। मुख्यमंत्री अशाेक गहलोत ने सर्वदलीय सभा भी बुलाई है। तमाम धर्मगुरु शांति की अपीलें जारी कर रहे हैं। मुस्लिम समाज के लोग निरंतर लिख-बोल रहे हैं और इस जघन्य क़त्ल की कड़ी भर्त्सना करते हुए लिख रहे हैं कि इस्लाम में इस तरह के आपराधिक कृत्यों के लिए कोई जगह नहीं है। न क़ुरान इसकी इजाज़त देता हैं और ना ही पैगंबर का जीवन इस तरह की किसी घटना के बारे में बताता है। यहां तक कि ईशनिंदा जैसी अवधारणा को ही लोग नकार रहे हैं और बता रहे हैं कि मोहम्मद साहब ने अपने जीवनकाल में उनको अपमानित करने वालों को मुआफ़ किया था।
इस पूरे प्रकरण में यह साफ़ दिखता है कि किसी भी तंजीम अथवा व्यक्ति ने कन्हैया लाल साहू हत्याकांड की कड़ी निंदा करने में कोई कोताही नहीं बरती हैं। समर्थन करने का तो सवाल ही नहीं उठता है। हाँ, कुछ आवाज़ें उठी हैं, जो इशारा करती हैं कि इस सारे विवाद की जड़ में कुछ बात है और कुछ लोग हैं अथवा विचार हैं, उनको भी याद रखा जाना चाहिए, जिनकी शायद अभी बात करने का ख़तरा कोई नहीं लेना चाहता। लेकिन यह ज़रूरी है कि समस्या की जड़ पर बात की जानी चाहिए। अगर इसका निदान नहीं किया गया तो धर्म के नाम पर रक्तपात को रोका नहीं जा सकेगा।
हमें यह भी देखना होगा कि आख़िर इसके मूल में क्या चीजें हैं, वे कौन-से विचार हैं, जो निरंतर इस देश के मुसलमानों को अपमानित कर रहे हैं। आख़िर भाजपा नेत्री नुपूर शर्मा को अचानक क्या हो गया कि वे मुस्लिमों की भावनाओं को आहत करने से बच नहीं सकीं, हम देख सकते हैं कि कुछ संगठन और सत्ताएं सुनियोजित तरीक़े से यह कर रही हैं। मुसलमानों के श्रद्धेय महापुरुषों, उनके धर्म्स्थलों और धर्मग्रंथों तथा उनके धार्मिक आचरण एवं खान-पान को निशाना बनाया जा रहा है। उनकी नागरिकता को चुनौती दी जा रही है। उनकी देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगाये जा रहे हैं। उनके धर्मस्थल क़ब्ज़ाए जा रहे हैं अथवा उनके ऊपर दावा ठोंका जा रहा है। बिना किसी बात के क़ुरान और पैगंबर तक पर आपत्तिजनक टिप्पणियां की जा रही हैं। यह उकसाने और अपमानित करने का षड्यंत्र लगातार चल रहा है। उसकी प्रतिक्रिया में जब मुसलमान शाहीनबाग जैसे लोकतांत्रिक आंदोलन करते हैं, तब भी मीडिया और सत्ता उनका मज़ाक़ बनाती है और जब आक्रोशित लोग जुम्मे की नमाज़ के बाद सड़कों पर उतरते हैं तब वे लाठी-गोली के शिकार भी होते हैं। अब स्थिति इससे भी बदतर हो गई है। ख़ासतौर पर जब से नुपूर शर्मा ने पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी की है, इस्लाम धर्मावलंबियों का ग़ुस्सा सतह पर आ चुका है। यह स्थिति नाक़ाबिले बर्दाश्त होने जैसी है।
दूसरी तरफ नुपूर शर्मा ने जिस चैनल की डिबेट में मोहम्मद साहब पर टिप्पणी की, उसके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं की गई। नुपूर शर्मा को अभी तक गिरफ़्तार तक नहीं किया गया। उनके ख़िलाफ़ लिखने वालों को निशाना बनाया जा रहा है और सत्ता का दमनचक्र निरंतर चल रहा है। ऑल्ट न्यूज़ के सह संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर की किसी पुराने ट्वीट पर हुई गिरफ़्तारी इसका ज्वलंत उदाहरण है। गुजरात नरसंहार के पीड़ितों को न्याय दिलाने का निस्वार्थ भाव से काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ गिरफ़्तार कर ली गई हैं। सत्ता का यह दोहरा चरित्र ही है कि एक तरफ नुपूर शर्मा जैसे लोग आपराधिक कृत्यों के बावजूद न केवल गिरफ़्तारी से बचे रहते हैं बल्कि सत्ता का समर्थन उनको मिल जाता है और जो अपमानित और पीड़ित लोग हैं, वे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के कारण पुलिस की गोली के शिकार हो जाते हैं। यह दिखता हुआ अन्याय है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
जिस तरह से आज भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों को दमन का शिकार होना पड़ रहा है, वह उस समुदाय में अलगाव और नैराश्य की भावना को बढ़ाएगा। जब अन्याय बढ़ने लगता है तो वह सबसे पहले देश और उसके निवासियों की सुरक्षा और शांति तथा बंधुत्व को लील जाता है। यह स्थिति किसी भी मुल्क के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती है। देश की बड़ी आबादी लगातार उपेक्षित और अपमानित महसूस कर रही हो तो उसके भीतर से ऐसे धर्मांध हत्यारी मानसिकता के तत्वों को अपना काम करने की सहूलियत मिल जाती है, जो मौक़ा मिलने पर कुछ भी कर सकते हैं। परंतु हमें यह देखना होगा कि इसके मूल में क्या है? समस्या की जड़ में कौन है और यह सब क्यों हो रहा है? क्या यह अचानक है या पूर्वनियोजित है और इसके दुष्परिणाम क्या होंगे? क्या हम एक देश के नाते अन्याय और ग़ैरबराबरी पर आधारित समाज व राष्ट्र संचालित कर सकते हैं?
यह बहुत स्पष्ट है कि आज जो हो रहा है उसके पीछे वो ज़हरीली विचारधाराएं हैं, जिन्होंने सदैव इंसान और इंसान में भेद किया है, जो घृणा का कारोबार करते रहे हैं और लोगों के ज़ेहन को इतना विषाक्त कर चुके हैं कि वे किसी का भी अपमान कर सकते हैं। किसी को भी नीचा दिखाने और मिटाने के लिए कोई भी हद पार कर सकते हैं। उनके लगातार काम का प्रतिफल है कि आज नफ़रत परोसने वालों की लंबी फ़ेहरिस्त बन चुकी है। ये लोग निरंतर आग उगल रहे हैं, आस्थाओं का अपमान कर रहे हैं और उकसावे की कार्यवाही में संलग्न है। झारखंड की राजधानी रांची हो अथवा राजस्थान का उदयपुर, सब तरफ़ जो रक्त बह रहा है, उसके लिए ज़िम्मेदार तत्वों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही ही समाज की शांति वापस लौटा सकती है अन्यथा एक एक घटना को अलग-अलग करके देखना समस्या के मूल कारण से मुंह मोड़ने जैसा काम होगा। कन्हैया लाल के हत्यारों के विरुद्ध क़ानूनसम्मत कड़ी कार्यवाही होनी ही चाहिए, लेकिन नुपूर शर्मा जैसे लोग भी क़ानून से परे नहीं रखे जाने चाहिए और जुबेर व तीस्ता जैसे लोग बेवजह सताये नहीं जाने चाहिए। तभी हम एक न्यायपूर्ण देश और समाज की कल्पना कर सकेंगे।
(संपादन : नवल/अनिल)
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