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झारखंड के एक डोम टोले की बदहाली

बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र पांच किलोमीटर और चास प्रखंड मख्यालय से मात्र चार किलोमीटर दूर बोकारो-धनबाद फोरलेन राष्ट्रीय राज मार्ग-23 के तेलगरिया से कोयलांचल क्षेत्र झरिया की ओर जाने वाली सड़क के किनारे बसा है निचितपुर पंचायत का बाधाडीह गांव। इस गांव एक टोला है, जिसे डोम टोला के नाम से जाना जाता है। पढ़ें, विशद कुमार की आंखों-देखी रपट

झारखंड के बोकारो जिला मुख्यालय से मात्र पांच किलोमीटर और चास प्रखंड मख्यालय से मात्र चार किलोमीटर दूर बोकारो-धनबाद फोरलेन राष्ट्रीय राज मार्ग-23 के तेलगरिया से कोयलांचल क्षेत्र झरिया की ओर जाने वाली सड़क के किनारे बसा है निचितपुर पंचायत का बाधाडीह गांव। इस गांव एक टोला है, जिसे डोम टोला के नाम से जाना जाता है। टोकरी बनाकर और दैनिक मजदूरी करके अपना जीवन बसर करने वाले लोग यहां बसते हैं। इस टोले में इस जाति के करीब 16 परिवार रहते हैं, जिनके पास कहने को घर है। यह डोम टोला सड़क से एकदम सटा है।

हाल ही में मैं उस सड़क से गुजर रहा था कि इस टोले के बगल में एक पुलनुमा ढांचा दिखा, जो देखने में काफी पुराना लगा। शायद मुगल या ब्रिटिश कालीन। उत्सुकतावश मैं वहां रूका और अपनी मोटरसाइकिल सड़क से दूर कर खड़ी कर दी।

सड़क किनारे ही पंचायत कोटे से निर्मित एक पानी की टंकी थी, जिसका निर्माण शायद हाल ही में हुआ हो। आधारभूत संरचनात्मक विकास के नाम पर यह टंकी सरकार के पक्ष में नारा लगाता प्रतीत हुआ। 

टंकी के पास कुछ लोग बैठे थे। इनमें महिला-पुरुष दोनों थे और छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बगल के कई घर ऐसे थे, जिनकी दीवारें न कच्ची थीं और ना ही पक्की। मतलब यह कि ईंटों का एक ढांचा तैयार कर लिया गया था और छत के नाम पर प्लास्टिक की चादर। इस तरह का ढांचा सरकार की आवासन संबंधी योजनाओं यथा प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना को मुंह चिढ़ाता दिखा।

झारखंड के बोकारो जिले के निचितपुर पंचायत का बाधाडीह गांव के डोम टोले के निवासी 

मुझे लगा ‘बनते घर, पूरे होते सपने’ में शायद ऐसे दलितों का हिस्सा नहीं है। यह केंद्र सरकार द्वारा जारी विज्ञापन का नारा है। हालांकि जब मैंने चास प्रखंड के प्रखंड विकास अधिकारी से दूरभाष पर बातचीत की तो मामला पारदर्शी शीशे की तरह साफ हो गया। उन्होंने बताया कि इस बस्ती के लोगों का नाम बीपीएल सूची में नाम शामिल नहीं है, अत: इसी कारण इन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाया है।

बताते चलें कि सितंबर 2016 में इंदिरा आवास योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री आवास योजना कर दिया गया थ। और बीपीएल परिवारों को मिलने वाली आर्थिक मदद को 45,000 रुपये से बढ़ाकर 70,000 रुपए कर दिया गया। यह एक केंद्र प्रायोजित आवास निर्माण योजना है। योजना का वित्तपोषण केंद्र और राज्यों के बीच 75 और 25 के अनुपात में किया जाता है। वहीं उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए केंद्र-राज्य वित्त अनुपात 90 और 10 है। जबकि संघ शासित प्रदेशों के लिए योजना 100 प्रतिशत व्यय केंद्र द्वारा भारित है। 

उल्लेखनीय है कि 1985-86 से प्रारंभ की गई इंदिरा आवास योजना में संशोधन 1999-2000 में किया गया। इसके अंतर्गत गाँवों में गरीबों के लिए मुफ़्त में मकानों का निर्माण किया जाता था। यह योजना केवल गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले (बीपीएल) परिवारों के लिए थी। धनराशि घर की किसी महिला के नाम पर ही निर्गत की जाती थी। भारत निर्माण के अंतर्गत चल रही इंदिरा आवास योजना के मद में वित्तीय वर्ष 2010-11 में दस हजार करोड़ रुपए की धनराशि आवंटित करायी गयी थी।

अब यदि प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए पात्रता की बात करें तो इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लयूएस) के वे लोग भी शामिल हैं, जिनकी आय सलाना तीन लाख रुपए है या फिर उससे कम है। 

इनके अलावा अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति , और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को इसका लाभ मिलना कागजों में सुनिश्चित है।

ब्रिटिश काल का पुराना कंदरा नुमा ढांचा

लाभार्थी समूहों की पहचान के लिए कुछ मानदंड भी निर्धारित हैं। जैसे कि आवेदक के पास अपना घर नहीं होना चाहिए। साथ ही, आवेदक ने पूर्व में राज्य या केंद्र सरकार की किसी अन्य आवास योजना का लाभ न लिया हो।

अब सवाल यह है कि समाज के अंतिम कतार में जीने वाले इन अति दलितों का नाम बीपीएल में दर्ज नहीं होने के लिए जिम्मेवार कौन हैं? वहीं यह भी सवाल उठता है कि जब डोम टोला के बाशिंदों के पास सरकारी योजना का लाभ मिलने का पूरा अधिकार बनता है तो किस आधार पर उन्हें इस योजना के लाभ से वंचित रखा गया है? 

मुझे देखते ही टोले के लोगों की उत्सुकता मेरी ओर बढ़ गई थी। वे मेरे चारों ओर जमा हो गए। शायद वे लोग मुझे सरकारी मुलाजिम समझ रहे थे। मुझे उन्हें समझाना पड़ा कि मैं एक पत्रकार हूं और मैं केवल आपकी समस्याएं दर्ज कर सकूंगा। 

मैंने उनसे पूछा कि “इंदिरा गांधी आवास या प्रधानमंत्री आवास यहां किस-किसको को मिला है?” जवाब मिला– “नहीं बाबू।” यह समवेत स्वर में कहा गया। मेरा अगला सवाल था– “इसके लिए आवेदन दिया है आप लोगों ने कभी?” इस बार जवाब ना में नहीं था। सबने बताया– “मुखिया को दिया है, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।” मैंने फिर पूछा– “आपलोग यहां कितने दिनों से रह रहे हैं?” जवाब मिला– “कई पीढ़ियों से हैं।” वह देखिए, अंग्रेज लोगों का बनाया हुआ घर, हमारे पूर्वज उसी समय से यहां रह रहे हैं। एक युवक ने उस पुलनुमा ढांचा की ओर इशारा किया, जिसे देखकर मैं यहां रूका था। मैंने देखा उसमें तीन कंदरे थे, जिसके एक कंदरे में किसी ने बिना दरवाजा का अपना घोंसला बना लिया था। हम उसे घोंसला इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि उसमें कहीं से इंसान के रहने का संकेत नहीं हो रहा था। वह सचमुच अंग्रेजों का निर्माण था, मगर मेरे लाख दिमाग खपाने के बाद भी मेरी समझ में नहीं आया कि अंग्रेजों ने उसे किस मकसद से बनाया था। वह पुल की तरह दोनों तरफ से खुला था। 

मैंने पास खड़ी एक विधवा महिला से पूछा– “आपका राशन कार्ड है?” जवाब था– “नहीं बाबू।” मैंने फिर पूछा– “आपको विधवा पेंशन मिलता है?” इस बार भी उसने “ना” में जवाब दिया। “आधार कार्ड और वोटर कार्ड है?” इस बार जवाब मिला– “हां है।” मेरा अगला सवाल था– “इसका मतलब आपलोग वोट देती हैं?” जवाब समूह ने दिया– “हां।” 

क्या आपके पास “आयुष्मान भारत का कार्ड है?” जवाब फिर सामूहिक मिला– “नहीं बाबू, कुछ भी नहीं है।”

बता दें कि आयुष्मान भारत योजना या प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, भारत सरकार की एक स्वास्थ्य योजना है, जिसे 1 अप्रैल, 2018 को पूरे भारत मे लागू किया गया था। 2018 के बजट सत्र में तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इस योजना की घोषणा की थी। इस योजना का उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर लोगों (बीपीएल धारक) को स्वास्थ्य बीमा मुहैया कराना है। इसके अन्तर्गत आने वाले प्रत्येक परिवार को 5 लाख तक का नकदरहित स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जाता है। 

रोजगार के बारे में एक नौजवान से पूछा तो उसने आगे बताया कि “हमारे बाप-दादा टोकरी वगैरह बनाकर, उसे बेचकर रोजी-रोटी चलाते थे। आज भी कुछ लोग बाप-दादा वाला भी काम करते हैं। हमलोग दिहाड़ी का काम करके किसी तरह बाल बच्चा पाल रहे हैं। सरकार की तरफ से कोई सुविधा नहीं है।” वह कातर स्वर व शिकायती लहजे में बोलता चला गया, जैसे उसे पता हो कि सरकारी योजनाएं उनके लिए ही बनी हैं, मगर उसपर किसी दूसरे ने अधिकार जमा लिया है।

इसी क्रम में पास खड़े दूसरे युवक से उसका नाम पूछा और यह कि उसने कहां तक पढ़ाई की है। जवाब मिला कि उसका नाम डब्लू है और पढ़ाई के बारे में उसका कहना था– “स्कूल ही नहीं गया तो कहां से पढ़ेंगे। फिर जब रोजी-रोजगार के बारे में पूछा तो उसने दिहाड़ी मजदूरी करने की बात कही। वहीं बस्ती के लोगों से राशन कार्ड आदि के बारे में पूछा तो एक महिला ने जवाब दिया– “यहां किसी के पास नहीं है।” वहीं यह पूछने पर कि टोले में कितने वृद्ध हैं और क्या उन्हें पेंशन मिलता है तो जवाब मिला कि पांच-छह लोग वृद्ध हैं और किसी को पेंशन नहीं मिलता। फिर पूछने पर कि उनका गुजारा कैसे चलता है तो जवाब मिला कि “कुछ लोग भीख मांगकर खाते हैं तो कुछ लोग कोई हल्का-फुल्का काम वाम कर लेते हैं।”

यह हालात है बोकारो इस्पात नगरी से मात्र 6-7 सात किलोमीटर दूर बसे इस डोम टोले की। इसी जगह से 3-4 किलाेमीटर की दूरी पर वेदांता का स्टील प्लांट भी है, जिसकी उत्पादन क्षमता 45 लाख टन है।

बहरहाल, जब मैंने स्थानीय बीडीओ से राशन कार्ड व अन्य योजनाआं को लेकर सवाल किया तो राशन कार्ड के संबंध में उनका जवाब था कि “इसके बारे मे आपूर्ति पदाधिकारी ही कुछ कह सकते हैं। वहीं स्थानीय आपूर्ति पदाधिकारी का मोबाइल लगातार बंद पाया।” 

(संपादकीय : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विशद कुमार

विशद कुमार साहित्यिक विधाओं सहित चित्रकला और फोटोग्राफी में हस्तक्षेप एवं आवाज, प्रभात खबर, बिहार आब्जर्बर, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, सीनियर इंडिया, इतवार समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की तथा अमर उजाला, दैनिक भास्कर, नवभारत टाईम्स आदि के लिए लेख लिखे। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं

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