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अब्राहम से लेकर ब्राह्मण तक : मुद्राराक्षस का धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ

मुद्राराक्षस लिखते हैं कि अब्राहम का ब्रह्म या ब्राह्मण से अद्भुत साम्य है। वे इतिहासकारों से भी शिकायत करते हैं कि उन्होंने चार हजार साल पहले के इस महापुरुष के नाम पर इस दृष्टि से विचार क्यों नहीं किया? बता रहे हैं कंवल भारती

सुभाषचंद्र आर्य उर्फ मुद्राराक्षस (21 जून, 1933 – 13 जून, 2016) पर विशेष

डॉ. आंबेडकर की पुस्तक ‘रिडिल्स इन हिंदूइज्म’ (‘हिंदू धर्म की पहेलियां’) जोतीराव फुले की ‘गुलामगिरी’ के बाद यह दूसरा मौलिक चिंतन है, जिसमें हिंदू धर्म के नायकों तथा वेदों, उपनिषदों, देवियों, ब्रह्म, अहिंसा, वर्ण, आश्रम, मन्वंतर, संकर जाति और कलियुग जैसे विषयों पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। लगभग उसी कड़ी में मुद्राराक्षस की पुस्तक ‘धर्म ग्रंथों का पुनर्पाठ’ भी समकालीन हिंदी साहित्य में पहला मौलिक चिंतन है, जो वेद और अन्य धर्मशास्त्रों का पुनर्पाठ एक नए दृष्टिकोण से करता है। और यह नया दृष्टिकोण धर्मग्रंथों में ब्राह्मण-समुदाय की उस जमीन की खोज करता है, जिसका संबंध उस समुदाय के उद्गम और पूर्व पुरुष से है। 

मुद्राराक्षस का मत अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों से सिर्फ भिन्न ही नहीं है, बल्कि उनके विपरीत भी है। वे आरंभ में सवाल करते हैं कि “आधुनिक इतिहासकार आर्यों को बाहर से आए आक्रमणकारी तो मानते हैं, पर इस बात की पड़ताल नहीं करते कि क्या वे आर्य ही थे?” इस संबंध में उनकी आर्य शब्द की पड़ताल बेहद दिलचस्प है। वे बाहर से आने वाले आक्रमणकारियों को आर्य नहीं मानते हैं। वे ऋग्वेद के छठे मंडल के मंत्र (33-3) का उल्लेख करते हैं, जिसमें कहा गया है– “इंद्र, तुम अमित्रों और दासों, वृत्रों, आर्यों और दस्युओं को कुल्हाड़ी से जंगलों की तरह काट डालो।” वे कहते हैं कि “यहां बुरे या खराब आर्य को नहीं, बल्कि आर्यों को ही मार डालने का सुझाव दिया गया है।” अगर आक्रमणकारी लोग आर्य होते, तो वे आर्यों को ही मारने का सुझाव क्यों देते? फिर आर्य कौन हैं? मुद्राजी ने इस गुत्थी को सुलझाने में कमाल की खोज की है। उन्होंने यजुर्वेद के मंत्र (26-2) को उद्धरित किया है, जिसमें कहा गया है– “जो कल्याणकारी भाषा बोली जाती है, वह ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और आर्यों को भी दे दीजिए।” इस पर उनका सवाल है, “अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आर्य थे, तो उन्हें शूद्र और आर्यों से अलग क्यों गिना गया?” इसके बाद वे अथर्ववेद के मंत्र (19-62-1) का हवाला देते हैं, जो कहता है– “हमें देवताओं में, क्षत्रियों में, सबका प्रिय बनाओ, यहां तक कि शूद्रों और आर्यों का भी प्रिय बनाओ।” वे कहते हैं कि विचित्र बात है कि यहां भी ब्राह्मण आर्यों से अलग जनसमुदाय है। उनके अनुसार, “ऋग्वेद में जगह-जगह ब्राह्मण और क्षत्रिय का जिक्र है, पर यह कहीं नहीं कहा गया है कि वे आर्य हैं।” उसके दसवें मंडल के ‘पुरुष सूक्त’ में भी, जो काफी बाद का माना जाता है, आर्य शब्द या आर्य समुदाय का उल्लेख नहीं है। वे ऋग्वेद के एक और मंत्र (21-156-5) को उद्धरित करते हुए कहते हैं, जिसमें “आर्य (शब्द) जातीय अर्थ में न होकर, केवल प्राप्ति या पाने के अर्थ में आया है।” इस गुत्थी को सुलझाने में वे अन्य संस्कृत विचारकों से भी सहायता लेते हैं। उनके अनुसार, पतंजलि ने अनिरवसित शूद्रों का जिक्र किया है, जो वे लोग थे, जो आर्य-इलाके के भीतर रहते थे। उन आर्य इलाकों में चांडाल आदि जातियां भी बाकायदा घर बनाकर रहती थीं, जो वैदिक ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाले इलाकों में संभव नहीं था। उसके अनुसार, कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है कि “जो दास को दासता-मुक्ति का धन देकर भी आर्य में परिवर्तित न करे, उस पर बारह मुद्राओं का दंड लगाना चाहिए।” इस पर मुद्राजी का कहना है– “यह ऐसे समाज की व्यवस्था है, जहां जातिवाद नहीं है, समाज में सिर्फ कुलीन आर्य हैं या दास। इसके अलावा जो हैं, वे आर्यों की बस्तियों में रहने वाले कामगार हैं। इस तरह के इलाकों की आलोचना मनुस्मृति से लेकर महाभारत तक में बहुत बल देकर की गई है।” 

आगे मुद्राजी हैरान कर देने वाला तथ्य रखते हैं कि जिन ब्राह्मण-ग्रंथों को आर्य-सभ्यता से जोड़ा जाता है, उनमें जाति या समुदाय सूचक आर्य शब्द या तो गायब है या निंदनीय है, जबकि ब्राह्मणविरोधी बौद्ध-साहित्य में आर्य, आर्यों और आर्यजनों के विस्तृत ब्यौरे मिलते हैं। उनका मत है कि ब्राह्मणों के अधिकांश महत्वपूर्ण ग्रंथ आर्य शब्द स्वीकार नहीं करते हैं, बल्कि वहां यज्ञ का नाम ही अनार्य है। इससे उनका निष्कर्ष है, “इस तरह भारत में बाहर से जो आए, उन्हें आर्य कहना सही नहीं है। आने वाले समाज ने खुद भी अपने को आर्य नहीं कहा और अक्सर आर्यों की निंदा की।”

सुभाषचंद्र आर्य उर्फ मुद्राराक्षस (21 जून, 1933 – 13 जून, 2016)

अब, सवाल यह पैदा होता है कि जब आर्य बाहर से नहीं आए, तो फिर बाहर से कौन आया? इसका जवाब उन्हें ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति और ‘श्रेष्ठता’ के रहस्य में मिलता है। वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण का गुणकर्म पढ़ना-पढ़ाना बताया गया है, पर मुद्राजी कहते हैं कि “ब्राह्मणों ने सबसे ज्यादा अहम भूमिका युद्ध-विद्या में निभाई है। खुद परशुराम का संबंध किसी ज्ञान-मार्ग से नहीं था, बल्कि वह शस्त्रशिक्षा देते थे। कर्ण ने अपनी जाति छिपाकर उनसे शस्त्रविद्या ही सीखी थी। द्रोण भी ज्ञान-दर्शन की नहीं, शस्त्र (विद्या) की ही शिक्षा देते थे। इतिहास में यज्ञ से सिर्फ ब्राह्मणों का संबंध है।” वे ब्राह्मण-श्रेष्ठता के प्रश्न पर इतिहासकारों से पूछते हैं, “अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य एक संप्रदाय थे, तो ब्राह्मणों के अतिरिक्त शेष ने अपमानजनक हैसियत बरदाश्त कैसे की?” मुद्राजी इस बात पर हैरान हैं कि समूची मानव-सभ्यता के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जिसमें स्वजातियों ने ही अपने कुछ या ज्यादातर साथियों की अस्मिता को इस तरह निचली श्रेणी में धकेला हो और धकेले जाने वालों ने इस स्थिति को स्वीकार भी कर लिया हो।

इस संबंध में मुद्राराक्षस का चिंतन और तथ्यों का विश्लेषण ध्यान योग्य है। वे लिखते हैं कि कोई भी समुदाय अपनी निचली श्रेणी में धकेले जाने को उसी स्थिति में स्वीकार कर सकता है, “जब अपने को श्रेष्ठ जातीय समझने वाला (ब्राह्मण) उन पर बलात् विजय भी प्राप्त कर ले, जिन्हें वह दास तो भले नहीं बनाए, पर निचली स्थिति में रहने को मजबूर कर दे। क्योंकि, जो विजेता होता है, वही किसी मनुष्य-समुदाय को उसके हार जाने के बाद अपनी अधीनता में रखता है। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों और वैश्यों को अपने से नीचे और अपनी अधीनता में रखा। यह तभी संभव था, जब ब्राह्मण विजेता होते, और क्षत्रिय-वैश्य हारे हुए लोग।” 

अगर ब्राह्मण विजेता थे, तो अवश्य ही ब्राह्मण को बाहरी और आक्रमणकारी होना चाहिए, और क्षत्रिय-वैश्य को मूलनिवासी। अगर ब्राह्मण आक्रमणकारी थे, तो सवाल है कि वे कहां से आए थे? मुद्राराक्षस लिखते हैं कि ब्राह्मणों के पूर्वज अब्राहम हैं। वे कहते हैं कि अक्सर ग्रंथों में ब्राह्मण को ब्रह्म भी कहा गया है। वे ऋग्वेद के एक मंत्र (8/19/1) का जिक्र करते हैं, जिसमें कहा गया है– “ब्रह्मा द्वारा संस्थापित अग्नि को पूजता हूं। वह आहुति का वहन करते हैं और उन्हें फरिश्तों ने प्रतिनिधि बनाकर भेजा है।” मुद्रा जी कहते हैं कि इसकी तुलना बाइबिल की ईसापूर्व कथा के नायक से करनी चाहिए, जो फारस की खाड़ी के उत्तर-पश्चिम में स्थित अत्यंत प्राचीन नगर ‘उफर’ में हुए अब्राहम या इब्राहीम थे। वे लिखते हैं कि इस अब्राहम का ब्रह्म या ब्राह्मण से अद्भुत साम्य है। वे इतिहासकारों से भी शिकायत करते हैं कि उन्होंने चार हजार साल पहले के इस महापुरुष के नाम पर इस दृष्टि से विचार क्यों नहीं किया? मुद्राजी इसमें भी साम्य देखते हैं कि अब्राहम की पत्नी का नाम ‘साराई’ और ब्रह्मा की पत्नी का नाम ‘सावित्री’ था, और जिस तरह अब्राहम ईश्वर की अराधना के लिए वेदी-स्थल बनाते थे, उसी तरह ब्राह्मण भी हवन-कुंड व वेदी-स्थल बनाते हैंहैं। आगे, मुद्राराक्षस लिखते हैं कि ऋग्वेद (1/164/33 एवं 10/61/7)में बताया गया है कि पिता से पुत्री गर्भवती हुई, और यह पिता ब्रह्मा थे। 

आगे मुद्राराक्षस अपनी बात को और भी स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “जेन्दावेस्त उन लोगों की कृति है, जो ईरानियों से भिन्न थे और कहीं दूसरी जगह से विस्थापित होकर आए थे। उनके अनुसार, “ईरान के पश्चिमी-उत्तर में वह जातीय समुदाय आ बसा था, जिसमें कोई आधी सहस्राब्दि के बाद जरथुस्ट हुए थे। यह जातीय समुदाय मीडी या मीडियाई या मीड या मीडियन था। बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेंट) में मीडियन जातीय समुदाय का काफी जिक्र हैं, जो गिडियन से लड़े थे। इस लड़ाई में स्वर्णकुंडल कान में पहनने वाले डेढ़ लाख मीडियन मारे गए थे, और बाकी भागकर उत्तर-पश्चिमी ईरान चले गए थे। इन्हीं की दो शाखाएं हुईं– इंडोयोरोपीय और इंडोआर्यन। और इंडोआर्यन हिस्सा भारत आया।”

आगे, मुद्राजी बताते हैं कि जिस विशाल भूभाग से उजड़कर मीडियन जनसमुदाय दो हिस्सों में बंटकर उत्तरी-पश्चिमी ईरान और उत्तरी भारत आया था, वह प्राचीनतम और समृद्ध संस्कृतियों का क्षेत्र रहा है। वे कहते हैं कि भारत पहुंचा जनसमुदाय अपने साथ अब्राहम को ही नहीं, उस क्षेत्र की अनेक संस्कृतियों के तत्व भी अपने साथ लाया। वे कहते हैं कि वे तत्व आज भी मौजूद मिलते हैं, जिनका विस्तृत विवरण उन्होंने ‘क्षत्रिय-ब्राह्मण : परस्पर भिन्न संस्कृतियां’ परिच्छेद में विस्तार से दिया है। 

ब्राह्मणों के साहित्य में पृथ्वी का एक नाम ‘उर्वी’ है। मुद्राराक्षस कहते हैं, “यह ब्राह्मणों की जातीय स्मृति में अपने आदिपुरुष अब्राहम की जन्मभूमि ‘उफर’ है।” उनका मत है कि वैदिक ब्राह्मण ने अपने आदिपुरुष अब्राहम से अपने को जोड़े रखने के लिए ही यहां अपने को ब्राह्मण कहना शुरू किया और अपने आदिपुरुष को सर्वोच्चता देने के लिए ही उसे ब्रह्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने और भी कई रोचक समानताओं का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, “मूसा द्वारा यहोवा को देखे जाने का वर्णन बहुत विस्तृत है और इसमें यहोवा इतनी तेज आग और चमक की तरह होता है कि उसे देख पाना कठिन है। ईशोपनिषद में इसी की स्मृति में याजक प्रार्थना करता है कि तू अपनी चमक समेट ले, ताकि तुझे देख सकूॅं।” इसी तरह वे छांदोग्य उपनिषद (8/8/5) के उस अंश को याद दिलाते हैं, जिसमें मुर्दों को मसालों, कपड़ों, जेवरों में लपेटकर रखने का जिक्र है। वे कहते हैं, “मिस्र के उत्खनन में पुरातत्ववेत्ताओं ने हजारों साल पुरानी ममियां ठीक उसी तरह खोजीं, जैसी छान्दोग्य में वर्णित हैं।” बाइबिल के अनुसार भी अब्राहम के पहले बेटे का जन्म मिस्र की उनकी सेविका हाजरा की कोख से हुआ था। 

मुद्राराक्षस लिखते हैं कि उपनिषद उस काल की रचनाएं हैं, जब भारत के बड़े भूभाग में ब्राह्मण-वर्चस्व स्थापित हो चुका था, और स्थानीय आर्य, यानी गैर-ब्राह्मण वर्ग के लोग (क्षत्रिय, वैश्य और समृद्ध शिल्पी) ब्राह्मणों की जीवन-पद्धति स्वीकार कर चुके थे। उनका एक महत्वपूर्ण कथन ब्रह्म को लेकर भी है। उन्होंने लिखा है कि ब्राह्मणों ने उपनिषदों में ब्राह्मण को ब्रह्म माना है और ब्रह्म को ही ब्राह्मण कहा है। वह तैत्तिरीय उपनिषद का हवाला देते हैं, जिसमें ब्रह्म पर विस्तार से बताया गया है। वे उसके आठवें अनुवाक का उल्लेख करते हैं, जिसमें कहा गया है, ओम ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही ब्राह्मण है। उसके अगले अनुवाक में ब्राह्मण की स्तुति में मंत्र है– “नमो ब्रह्मणे, नमस्ते वायो, त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। यानी, ब्राह्मण को नमन, देवता तुमको नमस्कार, ब्राह्मण तुम्हीं साकार ब्रह्म हो, तुम्हीं साक्षात ब्रह्म कहे जाते हो।” इस पर मुद्राराक्षस की टिप्पणी है कि ब्राह्मण ने ब्रह्म के रूप में अब्राहम को ही सुरक्षित रखा था। वह लिखते हैं, “अब्राहम से सीधे सिर्फ ब्राह्मण ही जुड़ा हुआ था, वही उसके पूर्वपुरुष या आदिपुरुष थे, भारत के किसी दूसरे समुदाय के नहीं। इसलिए यह जरूरी था कि ब्रह्म का ही प्रतिरूप वह अपने को सिद्ध करे।” जिन विद्वानों ने ब्रह्म की व्याख्या निर्गुण ईश्वर के रूप में की है, इस पर मुद्राराक्षस का कहना है, “ब्रह्म को निराकार, निर्विकार और निर्गुण इसलिए सिद्ध नहीं किया जा सकता था, क्योंकि बीच-बीच में ब्राह्मण याद दिला देता है कि ब्रह्म वह खुद है। जब ब्राह्मण ही ब्रह्म है, तो वह अपने को निराकार कैसे सिद्ध करे? अद्वैत वेदांत भी ब्राह्मण की इसी बात की रक्षा करता है।”  

मुद्राराक्षस ने आगे लिखा है कि बाइबिल के अनुसार अब्राहम ने अपने उपास्य के लिए एक ऊंची वेदी बनाई थी। वे कहते हैं, “यास्क (3/3) में ‘यह्नः’ ही ‘महः’ कहा गया है, यानी ब्राह्मण जिस ब्रह्म को वैदिक ब्राह्मण से हटकर ईश्वर बना देता है, वह ‘महः’ ही यास्क के अनुसार ‘यह्नः’ है। अब्राहम के आराध्य का नाम भी ठीक यही है– ‘यवेह’। यास्क के ‘यह्नः’ और प्राचीन बाइबिल के ‘यवेह’ में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही परम शक्तियां है।” 

मुद्राराक्षस एक और बात कहते हैं कि ‘यवेह’ को सर्वोच्च सत्ता के रूप में पहली बार सिनाई में रहने वाले मीडियाई पुरोहित-शासक जेथ्रो ने पहचाना था। और, उनके अनुसार, “यास्क यहां देवसत्ता या परमसत्ता के रूप में ‘यह्नः’ का जिक्र करते हैं, वहीं वे एक प्रतिष्ठित अस्तित्व को ‘जरूथ’ भी कहते हैं। जरूथ और जेथ्रो में ज्यादा फासला नहीं है।” हालांकि बाइबिल में यहोवा/याहवे शब्द का उपयोग हुआ है और उनको जेथ्रो के दामाद मूसा ने पहचाना था, जेथ्रो ने नहीं। मुद्राराक्षस कहते हैं, ऋग्वेद (3/28/1-5) में आए ‘माध्यन्दिन’ शब्द का अर्थ सायण आदि द्वारा मध्य या दोपहर किया जाता है, पर यह अर्थ गलत है। “दरअसल यह एक जाति-सूचक शब्द है, जिसमें अब्राहम के मीडियाई (मध्यान्दिन) वंश की पहचान छुपी हुई है।” 

उपनिषदों के बाद, मुद्राराक्षस ने ‘मनुस्मृति और समाज’ अध्याय में भी अब्राहम संस्कृति के अवशेषों का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं, मनुस्मृति भी इस्लाम की तरह ही ब्राह्मणों के लिए चार शादियों का विधान करती है (9/149)। इस्लाम की तरह उसमें भी लघुशंका के बाद मिट्टी से हाथ साफ करने का विधान है (5/134)। पांच वक्त की नमाज की तरह ही दिन में पांच यज्ञों की व्यवस्था मनुस्मृति में ही नहीं, सभी धर्मग्रंथों में है। (मुसलमान भी अब्राहम (इब्राहिम) को अपना पूर्वज मानते हैं।) 

इसी अध्याय में उन्होंने लिखा है कि ब्राह्मण समुदाय ने घोषणा की थी कि ब्राह्मणों का काम पढ़ने-पढ़ाने का है, पर सच यह है कि यही काम ब्राह्मणों ने कभी नहीं किया, बल्कि सारे देश के सारे साहित्य को जमीन में दफन करके रखा। इस पर प्रकाश डालते हुए मुद्राराक्षस ने बुद्ध के पूर्व के भारतीय समाज का अध्ययन किया है। वे लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने विरोध की लहर को कभी उभरने ही नहीं दिया, जैसे ही विरोध की कोई लहर उठी, उन्होंने उसे कुचलकर ही दम लिया। ब्राह्मणों ने शिल्पियों को शूद्र बनाकर उनकी कलाओं का दमन किया, उसका विकास नहीं होने दिया। वे लिखते हैं, “योरोप में जहां माइकेलेन्जेलो जैसे मूर्तिकार विख्यात हुए, भारत के अद्वितीय मूर्तिकारों में से किसी का भी नाम इतिहास में दर्ज नहीं हुआ। ब्राह्मण-व्यवस्था ने भारत के कलाकारों के साथ कितना बुरा सुलूक किया, यह इसका बेहतरीन नमूना है। मूर्तियां बनवाने में पैसा खर्च करने वाले धनभूति नामक व्यापारी का जिक्र जगह-जगह हुआ है, पर उसने किन कलाकारों से मूर्तियां बनवाईं, उनका जिक्र कहीं नहीं है। हम अजंता पर मुग्ध रहते हैं। पर कभी कोशिश नहीं की गई कि उसके चित्रकारों के नाम भी हम जीवित रखें, जबकि बौधयन, गोतम, हारीत, कमलाकर जैसे टुच्चे काम करने वालों के नामों का जाप करते रहते हैं, क्योंकि वे ब्राह्मण-व्यवस्थाकार हैं।”

इसी अध्याय में एक महत्वपूर्ण प्रश्न मुद्राजी ने यह उठाया है कि ब्राह्मणों ने स्त्रियों को शूद्र के बराबर क्यों रखा? यही नहीं, उन्होंने स्त्रियों को परतंत्र बनाकर भी रखा। इस पर मुद्राराक्षस कहते हैं कि ब्राह्मण जब मध्यएशिया से भारत आए थे, तो वे अपनी स्त्रियों को लेकर नहीं आए थे, कुछ गिनी-चुनी स्त्रियां ही साथ उनके साथ थीं। उन्होंने मूलवासी स्त्रियों को ही युद्ध में जीता और लूटा था। लूटी हुईं स्त्रियां भाग न जाएं, इसीलिए उन जीती हुई स्त्रियों को उन्होंने स्वतंत्रता नहीं दी। वे कहते हैं कि यह बात ऋग्वेद के ही अनेक मंत्रों से साबित होती है। वे आगे लिखते हैं, “ब्राह्मण भारत आने के बाद अपने देवता से तीन चीजें मॉंगते हैं– बहुत सा धन, बहुत सी गाएं और स्त्रियॉं।” वे ब्राह्मण-समाज द्वारा स्त्रियों को सम्मान न देने का कारण उनके पूर्व इतिहास में देखते हैं। वे लिखते हैं, “ब्राह्मण के पूर्वपुरुष अब्राहम ने सारा से पुत्र न पैदा होने पर अपनी सेविका हाजरा से पुत्र उत्पन्न किया था, और बाद में सारा से पुत्र हो जाने के बाद हाजरा को बेटे सहित निष्कासित कर दिया था। इसी बेटे से बाद में मीडियन या माध्यन्दिनी ब्राह्मण जाति पैदा हुई थी। उसकी मॉं हाजरा सारा की शिकायत पर निकाली गई थी। मीडियन संतति इसीलिए स्त्री से घृणा करता है और अब्राहम को पूज्य मानता है। अब्राहम की संतति भारत में सिर्फ ब्राह्मण ही है, इसलिए वह अपनी जातीय सर्वश्रेष्ठता को ही हर जगह, हर मौके पर सिद्ध करता है।” लेकिन बाइबिल के अध्ययन से पता चलता है कि मीडियन जाति की उत्पत्ति हाजरा के बेटे से नहीं, बल्कि अब्राहम की तीसरी पत्नी केतुरा के बेटे मीडियन से हुई। 

निस्संदेह, मुद्राराक्षस पहले लेखक हैं, जिन्होंने ब्राह्मण-ग्रंथों और ब्राह्मण-व्यवस्था का अध्ययन, मूल्यांकन और पुनर्पाठ नए आर्य-सिद्धांत से और अब्राहम-परंपरा के आधार पर किया है। उनका यह पुनर्पाठ धर्म, संस्कृति और दर्शन के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी इतिहासकारों के लिए पुनर्विचार की चुनौती खड़ी करता है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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