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कबीर का निर्गुणवाद एक तरह का अनीश्वरवाद ही है

वास्तव में निर्गुणवाद अनीश्वरवाद का ही एक दार्शनिक रूप है। कह सकते हैं कि निर्गुणवाद के मूल में नैतिक लोकायतिक नास्तिकवाद है। कबीर अनीश्वरवादी ही थे। उन्होंने कभी पूजा नहीं की, कबीर ने कभी नमाज नहीं पढ़ी। वह जहां जाते थे, उसी को ईश्वर की परिक्रमा और जो काम करते थे, उसी को पूजा कहते थे। क्या यह नास्तिक भाव नहीं है? पढ़ें, कबीर जयंती के मौके पर कंवल भारती का यह विश्लेषण

कबीर जयंती पर विशेष

कबीर के निर्गुणवाद को समझने के लिए हमें सबसे पहले यह समझना है कि उनके समय में सत्ता का विचार-दर्शन क्या था? ऐतिहासिक दृष्टि से यह सिकन्दर लोदी (1489-1517) का समय था। वर्ष 1931 में प्रकाशित अपनी शोधपरक किताब “कबीर एंड हिज फॉलोअर्स” में एफ. ई. केइ ने लिखा है कि यही वह सुल्तान था, जो कबीर के संपर्क में आया था और जिसने उन्हें बनारस से निकलवाया था। मुहम्मद तुगलक से लेकर फिरोज शाह तुगलक तक और तैमूर से लेकर बहलूल खान लोदी तक तथा उसके बाद सिकंदर लोदी तक के शासन में, जो 1325 से 1517 तक का लंबा कालखंड है, हिंदूधर्म खतरे में था, ऐसा अनेक इतिहासकारों का मत है। हालांकि यह सच नहीं है। सच यह है कि सूफियों के इस्लाम-प्रचार से और उनके समानतावादी दर्शन से दलित-पिछड़ी जातियों के गरीब और पीड़ित लोग अपनी मुक्ति के लिए इस्लाम में जा रहे थे। दिल्ली में भले ही मुस्लिम सत्ता थी, और जौनपुर और बनारस भी सुल्तान के अधीन था, परंतु हिंदू रजवाड़े खत्म नहीं हुए थे, और ना ही सामंतों, ब्राह्मणों और बनियों के सामाजिक-धार्मिक गठजोड़ का शासन समाप्त हुआ था, बल्कि हिंदू जनता पर, विशेषकर गांवों में इसी तिकड़ी का शासन चलता था। बड़ी संख्या में दलित-पिछड़ी जातियों के लोगों द्वारा धर्मांतरण ने इस तिकड़ी को चिंतित कर दिया था, क्योंकि उन्हीं की नजर में यह हिंदूधर्म पर खतरे था। सामंतों, ब्राह्मणों और बनियों की तिकड़ी किन पर शासन करती, अगर दलित-पिछड़ी जातियां ही हिंदू दायरे से निकल जातीं?

ब्राह्मण संतों की भक्ति-धारा वंचित वर्गों के इसी धर्मांतरण को रोकने का एक धार्मिक अभियान था। यह वैसा ही अभियान था, जैसा आधुनिक काल में दयानंद सरस्वती का आर्यसमाज और गांधी का शुद्धि-आंदोलन था। संतों की भक्ति-धारा विष्णु-भक्ति की धारा थी, जिसमें विष्णु के दो अवतार – राम और कृष्ण – की भक्ति थी। कुछ लोग राम के उपासक थे, तो कुछ कृष्ण के। रामोपासक राम की लीलाओं का वर्णन करते थे, और कृष्णोपासक कृष्ण की लीलाओं का। दोनों धाराओं का दर्शन परलोक, गोलोक, बैकुंठ, मोक्ष, आवागमन, स्वर्ग-नर्क, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म और शास्त्रों में आस्था का दर्शन था, जिसमें वर्णव्यवस्था प्रमुख थी।

कबीर के समय में राम और कृष्ण की भक्ति-धारा पहले से ही अस्तित्व में थी। पर वह सगुण रूप में थी। दूसरी ओर मुस्लिम शासन में मुल्ला और काजी धार्मिक सत्ता के प्रतीक थे। उनके धर्म-दर्शन में एकेश्वरवाद (तौहीद) था, अल्लाह निराकार था, पर वह सृष्टि का रचयिता, पालनहारा और विनाशक की भूमिका में था। वह पांच वक्त की नमाज, रोजा, हज और क़ुरबानी से प्रसन्न होता है, और आखिरत के दिन सभी मृतकों को जीवित करके उनके कर्मों का हिसाब देखता है, जिन्हें वह तदनुसार जन्नत और दोजख अता फरमाता है।

कबीर के समय में तमाम तरह के योगी, सिद्ध, अवधूत, नाथ, जैन, वेद-वेदांती, सन्यासी, काजी-मुल्ला, दरवेश, पीर-औलिया जनता में अपना सिक्का जमाए हुए थे। अकड़कर चलते थे, और भोली-भाली नादान जनता उन पर श्रद्धा रखती थी। वे सामंतों और राजाओं के चाटुकार थे, जो उन्हें ईनाम में एकाध गांव दान कर देते थे। उनके बल पर वे करोड़पति बने हुए थे, सोने के आभूषण पहनते थे, और छोटे लोगों को अपने आगे कुछ नहीं समझते थे। आम जनता में ये सन्यासी, योगी, संत, दरवेश पापों से मुक्ति के लिए तरह-तरह के अनुष्ठान कराते थे, पर स्वयं नित्य पाप-कर्म करते थे। ब्राह्मण और मुल्ला अपने-अपने ईश्वर को सृष्टिकर्ता कहते थे। ऐसे गुरुओं को कबीर ने खूब खरी-खोटी सुनाई है।

इसमें संदेह नहीं कि कबीर आजीवक, लोकायतिक, बुद्ध, सिद्ध और नाथ दर्शन की विकास-परंपरा में आते हैं। ये सभी दर्शन अनीश्वरवादी रहे हैं, लेकिन कबीर ईश्वरवादी भी प्रतीत होते हैं। अत: यह सवाल विचारणीय है कि कबीर अनीश्वरवाद से ईश्वरवाद की ओर क्यों आए? लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कबीर का ईश्वर निर्गुण क्यों है? निर्गुणवाद कबीर की मौलिक खोज है, जिसका अनुसरण उनके हमसहरी सभी संतों ने किया है। यह भारतीय दर्शन की सबसे क्रांतिकारी धारा है, जो ईश्वरवादी होकर भी ईश्वरवादी नहीं है। निर्गुण ईश्वर की परिकल्पना सगुण ईश्वर के अर्थ में नहीं की गई है। अत: निर्गुण और सगुण का अर्थ समझना जरूरी है।

आम तौर पर निर्गुण का अर्थ निराकार और सगुण का अर्थ साकार ईश्वर के रूप में समझा जाता है। यह है भी, लेकिन सिर्फ यही इसका अर्थ नहीं है। इसे हमें आज की भाषा में वामपंथ और दक्षिणपंथ के अर्थ में समझ सकते हैं। निर्गुणवाद और सगुणवाद असल में, भारतीय मध्यकाल का क्रमशः वामपंथ और दक्षिणपंथ ही है। जिस तरह वामपंथ को दलितों, पीडितों, गरीबों, मजदूरों और शोषितों का दर्शन माना जाता है, उसी तरह निर्गुणवाद भी दलितों, पीडितों, गरीबों, मजदूरों और शोषितों का दर्शन था, और जिस तरह दक्षिणपंथ आज ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद का प्रपंची पंथ है, उसी तरह सगुणवाद को भी वर्णव्यवस्था पर आधारित ब्राह्मणों और शोषक सेठों का दर्शन समझना चाहिए।

यह तो हुई निर्गुण और सगुण की बात। अब निर्गुण और निराकार पर आते हैं। कदाचित इन दोनों को एक नहीं समझना चाहिए। इनका भेद बहुत गंभीर है। निराकार ईश्वर की कल्पना सगुणवाद में भी है, वेदांत का ब्रह्म और आर्यसमाज का ईश्वर भी निराकार रूप में है। लेकिन वे वर्णव्यवस्था को भी मानते हैं, और वेद-शास्त्रों में भी विश्वास करते हैं, जो निर्गुणवाद की विचारधारा के विरुद्ध है। वेदांती और आर्यसमाजी दोनों ही अपने निराकार ईश्वर को सृष्टिकर्ता भी मानते हैं। यह उनके ईश्वर का गुण है कि वह कर्ता है, इसलिए वह निर्गुण नहीं हो सकता। इसी तरह इस्लाम का ईश्वर (अल्लाह) भी निराकार है, इस्लाम में उसकी कोई मूर्ति नहीं है। किंतु इसके बावजूद इस्लाम का अल्लाह निर्गुण नहीं है, क्योंकि कुरान के अनुसार वह सृष्टि का रचयिता है। जीवों को पैदा करने और मारने आदि का काम भी उसी के अधीन हैं। यह उसका गुण-कर्म है।

जबकि निर्गुणिया ईश्वर में ऐसा कोई गुण नहीं है, जो कुछ करता हो. वह न जीव को पैदा करता है, और न मारता है, वह न किसी को कष्ट देता है और न किसी को सुख देता है। वह न नियंत्रक है, न सृष्टा है, न पालक है, और ना ही विनाशक है। उसका कोई लोक, ठांव और मुकाम नहीं है। वह कण-कण में व्याप्त है। उसके लिए पूजा-नमाज, रोजा-व्रत, हज, तीर्थ आदि कुछ करने की जरूरत नहीं है।

मगहर, उत्तर प्रदेश में कबीर की समाधि परिसर में स्थापित कबीर की आदमकद प्रतिमा

सवाल उठता है कि जब निर्गुण ईश्वर में कोई गुण ही नहीं है, कोई शक्ति ही नहीं है, तो कोई उसे क्यों मानेगा? ऐसा ईश्वर किसी दुखिया का दुख कैसे दूर कर सकता है? ऐसा ईश्वर जो किसी को कुछ नहीं दे सकता, आदमी के किस काम का है? तभी तो कबीर ने कहा कि उनका ईश्वर उनके हृदय में वास करता है। तभी तो उन्होंने माया के फंदे से बचने, सम्यक जीविका से रोटी खाने और सत्कर्म करने पर जोर दिया। यह बात सच है कि आदमी सगुण ईश्वर के प्रति आकर्षित होता है। परंतु, इसके पीछे ब्राह्मण-प्रचार का योगदान है। जिस तरह आदमी प्रचार से आकर्षित होकर अलग-अलग कंपनी का टूथपेस्ट खरीदता है, उसी तरह आदमी ब्राह्मणों के प्रचार से आकर्षित होकर अलग-अलग नाम के भगवानों के मंदिरों में जाता है, वहां पूजा करता है, दान-दक्षिणा देता है, संकट-मोचन के लिए कथा-कीर्तन करता है, ब्राह्मणों को दान देता है, उन्हें भोजन कराता है, तीर्थों पर जाकर स्नान करता है, पापों से मुक्ति के लिए गंगा नहाता है, लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकलता है। टूथपेस्ट फिर भी दांतों को फायदा पहुंचाता है, पर पत्थर की मूर्ति और गंगा का पानी उसका कोई कष्ट दूर नहीं करता। इसलिए यह जानकर भी कि पत्थर की मूर्ति में कोई गुण नहीं है, और वह किसी को कुछ दे नहीं सकती, किसी की रक्षा नहीं कर सकती, फिर भी लोग उसमें विश्वास अज्ञान की वजह से ही करते हैं। इसी अज्ञान का पर्दा निर्गुणवाद हटाता है। वह यही बताता है कि ईश्वर जैसी कोई सत्ता है ही नहीं, जो संसार पर नियंत्रण करती है। अगर ईश्वर है, तो पाप-पुण्य नहीं हो सकता, और अगर पाप-पुण्य है, तो ईश्वर नहीं हो सकता। अगर ईश्वर नियंत्रक है, तो स्वर्ग-नर्क नहीं हो सकता, और अगर स्वर्ग-नर्क है, तो ईश्वर नहीं हो सकता। वास्तव में सच्चाई यह है कि चाहे ईश्वर की मूर्ति हो, मंदिरों में विराजमान देवता हों, तीर्थों का पानी हो, ये सारी चीजें निर्गुण हैं, किसी में कोई गुण नहीं है, जो किसी को सुख दे दे, या किसी का पाप हर ले। निर्गुणवाद यही तो समझाता है, यही तो उसका दर्शन है। कोई भले ही निर्गुण ईश्वर को इसलिए न माने कि उसमें उसकी मन्नत पूरी करने का कोई गुण नहीं है, पर वह जिस मन्नत के लिए सगुण ईश्वर या देवी-देवताओं के मंदिरों में दान-दक्षिणा लेकर जाता है, वहां भी उसे कुछ हासिल नहीं होता है। वह वहां सिर्फ अज्ञानवश जाता है। निर्गुणवाद ब्राह्मणों द्वारा स्थापित किए गए इसी अज्ञान के परदे को हटाता है। इस दृष्टि से क्या निर्गुणवाद एक क्रांतिकारी दर्शन नहीं है?

वास्तव में निर्गुणवाद अनीश्वरवाद का ही एक दार्शनिक रूप है। कह सकते हैं कि निर्गुणवाद के मूल में नैतिक लोकायतिक नास्तिकवाद है। कबीर अनीश्वरवादी ही थे। उन्होंने कभी पूजा नहीं की, कबीर ने कभी नमाज नहीं पढ़ी। वह जहां जाते थे, उसी को ईश्वर की परिक्रमा और जो काम करते थे, उसी को पूजा कहते थे। क्या यह नास्तिक भाव नहीं है? अब सवाल यह है कि उन्हें फिर ईश्वरवादी क्यों बनना पड़ा? इसके पीछे उनके समय की राजनीतिकी परिस्थितियां हैं। जैसा कि शुरू में बताया जा चुका है कि कबीर के समय में धर्म-सत्ता के दो बड़े केंद्र थे ब्राह्मण और मुल्ला। ये दोनों तत्कालीन राजनीति को भी संचालित करते थे। यही उस समय का शासक वर्ग था, जो हिंदू-मुसलमानों का बौद्धिक नेतृत्व भी करता था। जनता के धर्म, संस्कृति और दिमाग पर इन्हीं दो शासक वर्गों का नियंत्रण था। जनता में गरीबी, भूख, शोषण, दमन, भेदभाव, अत्याचार में पंडित-मुल्ला हमेशा अत्याचारी वर्ग के साथ खड़े होते थे, और जनता को परलोक की कहानियां सुनाकर उनके दिमागों में माया-मोक्ष की बातें भरा करते थे। मुल्ला कहता था कि जो मांगना है, अल्लाह से मांगो, वही है, जो किसी को अमीर बनाता है और किसी को गरीब। पंडित कहता, गरीबी-अमीरी सब पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। अच्छे कर्म करोगे, तो अगले जन्म में अमीर बनोगे। सत्ता के इन दोनों केंद्रों के खिलाफ कबीर में जबर्दस्त गुस्सा था। लेकिन वह उन दोनों के खिलाफ अनीश्वरवादी होकर नहीं लड़ सकते थे, क्योंकि पंडित और मुल्ला के लिए ही नहीं, बल्कि राजनीतिक सत्ता के लिए भी किसी नास्तिक आंदोलन का उभरना उनके अस्तित्व पर खतरा था। स्वयं कबीर भी अपने नास्तिक दर्शन के साथ सुरक्षित नहीं रह सकते थे। इसलिए कबीर को एक ऐसे ईश्वर की परिकल्पना करनी पड़ी, जो मुसलमानों के लिए तौहीद (एकेश्वरवाद) जैसा था, और ब्राह्मणों के लिए ब्रह्म के समान। लेकिन कबीर ने इस्लाम के नैतिक शास्त्र की आलोचना नहीं की, जबकि हिंदूधर्म का नैतिक शास्त्र वर्णव्यवस्था में ही निहित था। कबीर ने वर्णव्यवस्था की तीखी आलोचना की। उन्होंने न ब्राह्मण के नेतृत्व को स्वीकार किया, और न मुल्ला के। उन्होंने दोनों के श्रेष्ठता-बोध का भी खंडन किया। यथा–

हमरा झगरा रहा न कोऊ, पंडित मुल्ला छोड़े दोऊ।
अल्लाह राम का गम नहीं, तहं घर किया कबीर।

(कबीर ग्रंथावली, पृ. 206, 411)

कबीर अपनी अलग राह बनाकर ही भौतिक विचारधारा को कायम कर सकते थे। कबीर पहले कवि हैं, जिनके काव्य में गरीबों, शोषितों, बुनकरों, किसानों, दासों, दलितों और यहां तक कि सती के नाम पर जलाई जाने वाली अबला हिंदू स्त्री की पीड़ा का भी मार्मिक चित्रण हुआ है। गरीब जनता का सबसे ज्यादा शोषण परलोक, स्वर्ग-नर्क और पुनर्जन्म के नाम पर होता था। कबीर ने इन सबके खिलाफ अलख जगाई। परलोक के खंडन में उन्होंने कहा– हे मन, तू पार उतर कर कहां जाएगा? वहां तो कुछ है नहीं, न नाव और न नदी। सिर्फ बातों में बैकुंठ है, जो गया, वह कभी लौटकर नहीं आया, और न उसने कोई संदेश भिजवाया, जिससे पता चले कि परलोक है। यथा–

मन तू पार उतर कहाँ जैहो।
आगे पंथी पन्थ न कोई, कूच मुकाम न पैहो।।
नहिं तहं नीर, नाव न खेवट, न गुन खैंचन हारा।

चलन चलन सब कोई कहत है, ना जाने बैकुंठ कहाँ है।
जोजन एक परमिति नहिं जाने, बातन ही बैकुंठ बखाने।

बहुरि नहिं आवना या देस।
जो जो गए बहुरि नहिं आए, पठवत नहिं संदेस।।

(कबीर संग्रह, पृ. 536, 763)

स्वर्ग-नर्क और पुनर्जन्म का तो इतना बारीक़ और तर्कसंगत खंडन कबीर ने किया है कि बूझने वाले का मस्तिष्क सवालों से भर जाता है। वह कहते हैं कि कौन जन्म लिया है और कौन मरा है? अगर कोई मरकर तुरंत दूसरा जन्म ले लेता है, तो फिर मरा कौन, जब उसका पुनर्जन्म हो गया? और जब मरे हुए व्यक्ति का ही पुनर्जन्म होता है, तो जन्मा कौन? वह तो पहले ही जन्म ले चुका था। फिर दूसरा सवाल, स्वर्ग और नर्क किसको मिला, क्योंकि जो मरा, उसका तो पुनर्जन्म हो गया? अब या तो पुनर्जन्म झूठा है, या स्वर्ग-नर्क झूठा है। दोनों चीजें एक साथ नहीं हो सकतीं, क्योंकि स्वर्ग या नर्क में तो वही जाएगा, जिसका पुनर्जन्म नहीं होगा। यथा–

कौन मरे कौन जन्मे भाई।
सरग नरक कौने गति पाई।।
पंचतत अविगत थें उत्पना, एकै किया निवासा।
बिछुरे तत फिरि सहजि समाना, रेख रही नहीं आसा।।
आदे गगना अन्ते गगना मधे गगना भाई।
कहै कबीर करम किस लागे, झूठी सनक उपाई।।

(कबीर संग्रह, पृ. 543)

कबीर कहते हैं कि पांच भौतिक तत्वों से उत्पन्न शरीर मरने पर उन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाता है, कोई कहीं नहीं जाता है। ऊपर गगन ही है, आदि में भी गगन था, मध्य में भी गगन था, और अंत में भी गगन ही रहेगा। यह सब झूठी शंकाएं हैं कि कर्मफल होता है।

ऐसे प्रखर भौतिकवादी कबीर अपने समय के सचमुच महान दार्शनिक थे, जिनका निर्गुणवाद एक तरह का अनीश्वरवाद ही है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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