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आंबेडकर की नजर में गांधी और गांधीवाद

गांधी-आंबेडकर के जाति-विषयक विचारों को भी यहां रखा गया है, जो 1936 के ‘जातिवाद का विनाश’ पुस्तिका के प्रकाशन के उपरांत प्रकट हुए थे। आखिर में 1955 में, यानि मृत्यु से साल भर पूर्व बीबीसी द्वारा आंबेडकर से लिए गए साक्षात्कार को भी इसमें संकलित किया गया है। इस तरह यह एक उपयोगी किताब बन गई है। पढ़ें, फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब ‘आंबेडकर की नजर में गांधी और गांधीवाद’ के संबंध में प्रेमकुमार मणि की यह टिप्पणी

उपरोक्त शीर्षक से ही मेरे पास परसों की डाक से एक किताब आई है, जिसके संपादक हैं– सिद्धार्थ और अलख निरंजन। इसे फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। कुल 160 पृष्ठों की इस किताब में ‘गांधी और गांधीवाद’ विषयक आंबेडकर के विचारों को संकलित करने का बेहतर प्रयास हुआ है। आरंभ में अलख निरंजन की विद्वतापूर्ण भूमिका है, जो किताब के औचित्य पर प्रकाश डालती है। 

संकलित पुस्तक में आंबेडकर की पुस्तकों से गांधी विषयक संदर्भों को एकत्रित किया गया है। कम्युनल अवार्ड के खिलाफ गांधी के आमरण अनशन और उससे उपजी राजनीतिक परिस्थितियों और प्रतिक्रियाओं के ब्योरे तो हैं ही; गांधी-आंबेडकर के जाति-विषयक विचारों को भी यहां रखा गया है, जो 1936 के ‘जातिवाद का विनाश’ पुस्तिका के प्रकाशन के उपरांत प्रकट हुए थे। आखिर में 1955 में, यानि मृत्यु से साल भर पूर्व बीबीसी द्वारा आंबेडकर से लिए गए साक्षात्कार को भी इसमें संकलित किया गया है। इस तरह यह एक उपयोगी किताब बन गई है।

भारत के आधुनिक इतिहास के विद्यार्थियों के लिए आंबेडकर को समझना थोड़ा मुश्किल भरा कार्य है। यूं भी हमारे भारतीय इतिहास पर यूरोसेंट्रिक मत प्रभावी रहा है; जिसे सामान्य तौर पर कैंब्रिज स्कूल कहते हैं। बाद में एक राष्ट्रवादी स्कूल उभरा जो प्रवृति से कुलीन और गांधीवादी था। कैंब्रिज स्कूल और राष्ट्रवादी स्कूल में एक संगति दिखती है। इसके अलावा मार्क्सवादी स्कूल है, जो वर्गकेंद्रित नजरिया रखता है। सबसे नया सबाल्टर्न स्कूल है, जो वर्ग से भी नीचे जाति और अन्य समूहों के नजरिये को अधिक महत्व देता है। यूं आप कह सकते हैं कि भारत में हिंदुत्ववादी स्कूल भी लगभग स्थापित हो चुका है।

आंबेडकर ने मनुस्मृति-दहन और महाड़ जल-आंदोलन भले ही 1930 के पूर्व किए, किंतु उनका मुख्य राजनीतिक संघर्ष 1930 के दशक में आरंभ हुआ और उनकी मृत्यु के साथ ख़त्म हुआ। ब्रिटिश भारत में चल रहे उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के बीच वह अछूतोद्धार में लगे थे। यह उनकी ताकत थी कि राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे बड़े नेता को भी इस आंदोलन में शामिल होने के लिए उन्होंने विवश कर दिया। 1933 के बाद गांधी अनुसूचित सामाजिक समूह के हिंदू नामकरण, हरिजन, जिसे बाद में कोर्ट ने उस तबके के लिए इस्तेमाल करने पर पाबंदी लगा दी, के हित में काम करने के लिए समर्पित हो गए। ‘हरिजन’ नाम से ही उन्होंने पत्रिका निकालनी शुरू की। 1930 के पूर्व वर्ण और जाति विषयक टैगोर के विचारों का विरोध करने वाले और वर्ण-जाति के पक्ष में वकीलों की तरह तर्क परोसने वाले गांधी ने आंबेडकर के जातिविषयक सवाल पर मानवीय नजरिए से विचार किया। 

समीक्षित किताब ‘आंबेडकर की नजर में गांधी और गांधीवाद’ का कवर पृष्ठ

कहा जा सकता है कि गांधी को आंतरिक स्तर पर बदलने के लिए आंबेडकर ने परिस्थितियां विकसित की, दबाव बनाया। इन सबका अध्ययन हमारे इतिहासकारों ने नहीं किया है। कैंब्रिज स्कूल गांधी के प्रभाव में रहा। राष्ट्रवादी स्कूल तो पूरी तरह गांधीमय था। भारत मतलब गांधी और गांधी मतलब भारत। मार्क्सवादी स्कूल हर बात में वर्ग प्रभाव सिद्ध करना चाहता है। रजनी पाम दत्त की किताब ‘इंडिया टुडे’ इसका बेहतर उदाहरण है। सबाल्टर्न अध्ययन के लोग तो बहुत बाद में आए। इनकी दिलचस्पी भी आंबेडकर में बहुत नहीं रही है। भारतीय समाजवादियों की कोई मुकम्मल इतिहास-दृष्टि तो नहीं रही, लेकिन उत्पीड़ित सामाजिक समूहों के पक्ष में इनका दृष्टिकोण दिखता है। दुर्भाग्य से लोहियावादियों का भी कोई झुकाव आंबेडकर के प्रति नहीं था। 1980 के दशक में समाजवादी नेता मधु लिमये ने अवश्य आंबेडकर के विचारों के साथ समाजवाद की संगत स्थापित की। 

बीबीसी के साथ साक्षात्कार में आंबेडकर ने कहा है– “हिंदू समाज को एक नैतिक पुनरुत्थान की जरुरत है, जिसे स्थगित करना खतरनाक है। सवाल है कि इस नैतिक पुनरुत्थान को निर्धारित कौन करेगा और इस पर नियंत्रण किसका होगा? स्पष्ट है कि केवल उनके द्वारा, जो बौद्धिक पुनरुत्थान की प्रक्रिया से गुजर चुके हैं और जो इतने ईमानदार हैं कि उनमें बौद्धिक मुक्ति से उत्पन्न होने वाला निष्ठागत साहस मौजूद हो। इस कसौटी पर देखें तो हिंदू नेता इस काम के लिए पूरी तरह अयोग्य हैं।” 

आंबेडकर ने गांधी को भारतीय उपकरणों से देखा-समझा। वह बुद्ध, कबीर और फुले की कसौटी पर गांधी को परख रहे थे। गांधी उन्हें महात्मा की जगह एक कुटिल राजनेता दिख रहे थे। जातिविषयक सवाल पर आंबेडकर ने यह कहकर बवाल मचा दिया कि गांधी जब गुजराती में इस विषय पर लिखते हैं तब वह जाति प्रथा का समर्थन करते हैं, किंतु जब वही यूरोपियों के लिए अंग्रेजी पत्रिका में लिखते हैं, तब वह जातिप्रथा का विरोध करते हैं। इस तरह वह एक साथ पश्चिम और पूरब के कुलीन समाज को अपने विश्वास में लेते हैं।

कुल मिला कर यह दिलचस्प किताब पढ़ने लायक है।

पुस्तक : आंबेडकर की नजर में गांधी और गांधीवाद
संपादक : सिद्धार्थ व अलख निरंजन
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपए (जिल्द), 400 रुपए (सजिल्द)

(प्रेमकुमार मणि के फेसबुक वॉल से साभार)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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