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आजादी के 75 साल और दलितों का संघर्ष

अब सवाल दलित या बहुजन राजनीति की चिंता का उतना नहीं है, जितना चिंतनीय प्रश्न यह है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव कौन मना रहा है– दलित समाज या द्विज समाज? क्या आज़ादी के इन 75 वर्षों में अपनी अस्मिता, अपने अधिकार और अपनी भागीदारी के लिए दलितों का संघर्ष खत्म हो गया? बता रहे हैं कंवल भारती

दो सवाल जहन में उभरते हैं। पहला, इन 75 सालों में भारत की दलित जातियों के लोगों को कितनी आजादी मिली? और दूसरा, इन 75 सालों में दलित जातियों के लोगों ने कितनी तरक्की की? ये दोनों सवाल इतने अहम हैं कि इनमें से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता। हालांकि इन दोनों सवालों पर दो बड़े ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। पर मैं यहां बहुत ही संक्षेप में बात करूंगा।

पहले सवाल को लेते हैं। आजादी के बाद से ही दलित जातियों लोगों के लिए अनेक योजनाएं बनाई गईं और आज भी बनाई जाती हैं। इन योजनाओं के पीछे यह भाव रहता है कि “हमें दलितों के लिए कुछ करना है।” मुझे इस संबंध में डॉ. आंबेडकर का एक कथन आज भी प्रासंगिक लगता है। उन्होंने एक बार कहा था कि अक्सर हिंदू नेताओं को यह कहते सुना जाता है कि “हमें दलितों के लिए कुछ करना है।” पर किसी भी नेता को, जो दलितों की समस्या में रुचि रखता है, यह कहते हुए नहीं सुना जाता कि “हमें सवर्ण हिंदुओं को बदलने के लिए कुछ करना है।” वे कभी नहीं कहते कि हिंदुओं को कैसे सुधारें? या उनके रूढ़िवादी विचारों में कैसे परिवर्तन लाएं? 

डॉ. आंबेडकर बिल्कुल ठीक कहते थे कि दलित समस्या अस्पृश्यता की समस्या है। हिंदू इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि दलित उनके अपने समाज के नहीं हैं। वे हिंदुओं के लिए पराए हैं और यह परायापन उन दोनों के बीच हमेशा बना रहता है। इसी कारण से दलितों और सवर्णों के बीच आज भी स्वाभाविक मित्रता नहीं होती। वे दलितों के साथ राजनीतिक मित्रता तो कर सकते हैं, क्योंकि इस मित्रता से उन्हें सत्ता में आने का अवसर मिल सकता है, पर वे उनसे सामाजिक मित्रता नहीं करना चाहते, क्योंकि ऐसी मित्रता उनके धर्म के विरुद्ध जाती है। दिलचस्प है कि हिंदू इसे गलत भी नहीं मानते, क्योंकि यह उनके धर्म का मामला है, और शायद इसीलिए वे दलितों की दयनीय स्थिति के लिए स्वयं को जिम्मेदार भी नहीं मानते हैं। इसी संदर्भ में एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल यहां जहन में आता है, जिसे डॉ.आंबेडकर ने भी अपने समय में उठाया था कि भारत में दलित संतों और नायकों के सामाजिक समानता के आंदोलन क्यों सफल नहीं हो सके? क्या उनके मित्र या समर्थक नहीं थे? यदि वे थे, तो उन्होंने दलितों का समर्थन और सहयोग क्यों नहीं किया? उन्होंने इस आंदोलन का इसलिए समर्थन नहीं किया, क्योंकि वह आंदोलन उनकी नजर में हिंदू धर्म के विरुद्ध विद्रोह था। यह तो आरक्षण का कानून है, जो दलितो को पढ़ने-लिखने और नौकरियों के अवसर देता है, वरना, हिंदू बहुमत आज भी उन्हें अनपढ़ रखकर उनसे गुलामी के काम ही कराना चाहता है। इसलिए आज यही हिंदू बहुमत उनके आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाता है। यही हिंदू बहुमत संसद में दलितों के मुद्दे पर चर्चा से गायब रहता है और यही हिंदू बहुमत आज भी अस्पृश्यता का पूरी दृढ़ता से पालन करता है। यही हिंदू बहुमत और उनके शंकराचार्य और धर्मगुरु मंदिरों में दलितों के प्रतिबंध को जायज ठहराते हैं। कौन इंकार करेगा कि यह साढ़े सात दशकों की आजादी की कहानी नहीं है? हालांकि राजनीतिक आजादी सभी को मिली है, पर सामाजिक और आर्थिक आजादी अभी भी सबके हिस्से में नहीं आई है, और दलित जातियां इसमें सबसे ज्यादा हाशिए पर हैं।

दलितों की राजनीतिक आजादी और प्रगति पर चर्चा ज़रूरी है। यह इसलिए भी कि 1932 के पूना पैक्ट से शुरु हुआ दलित राजनीति का सफर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन से भारतीय रिपब्लिकन पार्टी (आरपीआई) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) तक, भारत की 75 वर्ष की आजादी में मायने रखता है। निश्चित रूप से इसे लोकतंत्र की एक बड़ी विजय के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन इस पर धैर्य के साथ विचार करना होगा, क्योंकि मेरी दृष्टि में यह राजनीतिक स्वतंत्रता का उपभोग तो है, पर यह एक बड़ा सवाल भी खड़ा करता है कि स्वतंत्र भारत में दलित जातियों के लोगों को अपनी पृथक राजनीति स्थापित करने की परिस्थितियां क्यों पैदा हुईं? दूसरे शब्दों में पृथक दलित राजनीति की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह उन शासकों की असफलता नहीं है, जिनके हाथों में स्वतंत्र भारत की बागडोर आई? जिस कांग्रेस ने भारत पर चार दशकों तक निष्कंटक राज किया, उसने पूना पैक्ट के अनुपालन में राजनीतिक आरक्षण की खानापूरी के लिए दो तरह के दलितों को सांसद और विधायक बनवाया– (1) जो अशिक्षित थे और जिनमें कांग्रेस आलाकमान की ‘जी-हजूरी’ करने के सिवा कोई योग्यता नहीं थी, और (2) जिनकी योग्यता डॉ. आंबेडकर के परिवर्तनवादी मिशन से दलितों को दूर रखने की थी। परिणामतः, कांग्रेस के अशिक्षित दलित प्रतिनिधि सवर्णों के चमचा बने रहे और कांग्रेस के आंबेडकर विरोधी दलित प्रतिनिधियों ने अस्सी के दशक तक हिंदी पट्टी के शहर-कस्बों में डॉ. आंबेडकर को दलितों के बीच पहुंचने ही नहीं दिया। हालांकि यह स्थिति महाराष्ट्र में नहीं थी, पर वहां उसने आंबेडकर के आंदेलन को तोड़ने के लिए दूसरे तरीके अपनाए। कांग्रेस सरकारों की नीतियां सभी राज्यों में दलितों को कुछ योजनाओं तक सीमित रखकर, लाभार्थी बनाकर रखने की ही थीं, जिसका मकसद समाज में यथास्थिति बनाए रखने का था। कारण, अंग्रेजों के जाने के बाद ब्राह्मण शासकों ने पूरे देश में लोकशाही की आड़ में ब्राह्मणशाही कायम करने का काम बहुत तेजी से किया। भारत गणराज्य का पहला राष्ट्रपति ही 101 ब्राह्मणों के, न केवल पैर धोकर अपनी कुर्सी पर बैठा था, बल्कि उसने विशाल ब्रह्मभोज का अनुष्ठान भी किया था। और यह कहना गलत न होगा कि इसी ब्राह्मणभक्ति से कांग्रेस ब्राह्मणों की संरक्षक बन गई थी।

डॉ. बी. आर. आंबेडकर की पेंटिंग

एक बार डॉ. मुल्कराज आनंद ने सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के प्रश्न पर डॉ. आंबेडकर से पूछा था, तो उसके जवाब में उन्होंने कहा था, “नेहरू की सरकार में केवल गैर-ब्राह्मणों ने मौलिक अधिकार के रूप में निजी सम्पत्ति के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। किंतु बाबू राजेंद्र प्रसाद को इसी से लग गया कि नेहरू भारत को रूस बनाना चाहते हैं, और सवर्ण हिंदुओं ने व्यक्ति के अन्य अधिकारों को केवल निर्देशक सिद्धांतों के रूप में संसद में लड़ने के लिए माना।” इसी से समझा जा सकता है कि सवर्ण हिंदू अपने विशेषाधिकारों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अगर भारत के सारे दलित आज गंदा काम करना बंद कर दें, तो देश का कोई गांव-शहर ऐसा नहीं होगा, जहां उनके ऊपर हिंसा न शुरु हो जाए। गुजरात इसका ताजा उदाहरण है।

डॉ. आंबेडकर दलितों को भी एक वर्ग मानते थे, जो भारत का सबसे कमजोर वर्ग है। उनका अपने समय के कम्युनिस्टों से असल विरोध इसी बात पर था कि वे भारत में वर्णव्यवस्था को नहीं देख रहे थे, जो सुस्पष्ट वर्ग-विभाजन है, और जिसने दलित को सबसे कमजोर वर्ग बनाकर रखा है। उनका कहना था कि इस सबसे कमजोर वर्ग को दबाकर समाजवाद नहीं लाया जा सकता। उन्होंने बहुत सही सवाल उठाया था कि जो समाजवादी यह सोचते हैं कि साम्राज्यवाद के खत्म होने के बाद भारत में पूंजीवाद के अवशेष भी खत्म हो जाएंगे, तो वे दिग्भ्रमित हैं। अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी भारत में जमींदार, मिल मालिक, साहूकार और ब्राह्मणवाद रहेगा, जो गरीब जनता का खून चूसता रहेगा। इसलिए उन्होंने राजनीति में वर्गीय चेतना पर जोर दिया था। आंबेडकर की बात गलत नहीं थी। आजादी के बाद राजे-रजवाड़े, नवाबी और जमींदारी तो खत्म हुई, पर वे ही कांग्रेस में शामिल होकर देश के शासक भी बने और उन सबने मिलकर पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद को इतना मजबूत किया कि उसके भार तले दलित जातियां कुचली जाकर कराहने लगी थीं। तमाम कागजी सरकारी योजनाओं के बावजूद, उनका दमन और शोषण जारी रहा। शहरों में थोड़ी बहुत तरक्की जरूर हुई, पर गांवों में वे गाजर-मूली की तरह काटे जाते रहे। दलितों की सामूहिक हत्याओं के इतने कांड देश के गांवों में हुए कि उनका लोमहर्षक वर्णन करने के लिए हजारों पृष्ठ चाहिए। गांवों में ही नहीं, कस्बों में भी, वे दलित, जिन्होंने सवर्ण हिंदुओं के अत्याचारों से बचने के लिए अपनी पशु से भी बदतर जिंदगी को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया था, पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलाम बने रहे और अपनी स्थिति से कभी ऊपर नहीं उठ सके। वे शिकायत करते भी, तो किससे करते? थानेदार से लेकर विधायक-सांसद तक उनके प्रति हमदर्दी नहीं रखते थे। आवाज उठाने वाले तमाम दलितों को या तो मार दिया जाता था, या झूठे मुकदमों में जेल भिजवा दिया जाता था। और, उनकी औरतों के साथ बदसलूकी करना तो जैसे सवर्णों का जन्मजात अधिकार ही था। यही वह दौर था, जब पूरे भारत में गांवों से पीड़ित दलित जातियों का शहरों में पलायन हो रहा था। इस पलायन ने ही उनको संघर्ष करना सिखाया, हालांकि वहां भी वे आर्थिक रूप से कमजोर ही रहे, पर कुछ गांवों के रोज-रोज के जुल्म से बच गए थे।

स्थिति यह थी कि चुनावों में दलितों को वोट तक नहीं डालने दिया जाता था। उनके नामों के वोट सवर्ण खुद ही डाल देते थे। जो दलित वोट डालने का साहस करते थे, उन्हें लाठी-डंडों के सहारे खदेड़ दिया जाता था। शहरों में स्थिति कुछ भिन्न थी। चुनावों से पहले कांग्रेस के नेता दलित बस्तियों में जाते, एकाध हैंडपंप् लगवा देते, कुछ बच्चों का वजीफा बनवा देते, और उनकी पंचायत को बर्तन आदि खरीदने के लिए सौ-दो-सौ रुपए दे देते, बस बस्ती के सारे दलित वोट कांग्रेस को चले जाते थे। यही कांग्रेस का दलित उद्धार था। यह मैं कोई काल्पनिक बात नहीं कह रहा हूं, बल्कि मैं अपनी बस्ती में इसका साक्षी हूं। कांग्रेस ने अपने चालीस वर्षीय साम्राज्य में दलितों के केवल वोट लिये। दलितों के लिए यदि कोई ढंग की लड़ाई लड़ सकता था, तो वह कम्युनिस्ट वर्ग था। भारत के कम्युनिस्ट नेता यदि चाहते तो कांग्रेस का एक बड़ा विकल्प तैयार कर सकते थे, दलितों में आत्मसम्मान पैदा कर सकते थे, उन्हें अधिकारों का पाठ पढ़ा सकते थे और उन्हें अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करना सिखा सकते थे। पर गांवों का तो पता नहीं, मैंने अपने शहर में भी किसी कम्युनिस्ट नेता को दलित बस्ती में कभी नहीं देखा। इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि वे भी सवर्ण ही थे, और दलितों के अछूत बने रहने से उनके भी सामाजिक हित पूरे होते थे।

ये ही वे सामाजिक परिस्थितियां थीं, जो पृथक दलित राजनीति का कारण बनीं। हिंदी पट्टी में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने दस्तक दी, और उसके दो शेरों बुद्धप्रिय मौर्य और संघप्रिय गौतम ने दलित वर्गों को डॉ. आंबेडकर के नाम और उनके आंदोलन से जोड़ दिया। परिणामतः, विचारों की एक नई दुनिया उनके सामने खुल गई, जो इससे पहले किसी दलित कांग्रेस नेता ने उनके सामने नहीं खोली थी। पढ़े-लिखे लोगों ने डॉ. आंबेडकर की जीवनियां मंगाकर पढ़नी शुरु कीं। और देखते-देखते पूरा उत्तर प्रदेश नीले झंडों और हाथी के निशान वाले बैनरों से पट गया था। परिणामतः, 1967 में पहली बार 11 विधायक भारतीय रिपब्लिकन पार्टी से जीतकर उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पहुंचे, जो आंबेडकर आंदोलन के क्रांतिकारी नेता थे। इसी दौर में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने पूरे देश में भूमिहीनों को भूमि देने का जबरदस्त आंदोलन चलाया, जिसने सरकारों को भूमि देने के लिए बाध्य कर दिया था। पर, इस आंदोलन ने कांग्रेस की नींद हराम कर दी थी। और, फिर जो प्रतिक्रांति का खेल कांग्रेस ने शुरु किया, तो वह भारतीय रिपब्लिकन पार्टी को खंड-खंड करके ही खत्म हुआ और स्थिति यह हो गई कि अब वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए फिर कभी कांग्रेस की गोद में चली गई। दोनों रिपब्लिकन शेर भी कांग्रेस और भाजपा में जाकर मिट्टी के शेरों में तब्दील हो गए।

इसी बीच कांशीराम का उदय हुआ और उन्हें उत्तर प्रदेश में रिपब्लिकन पार्टी की बनी-बनाई जमीन तैयार मिल गई। उन्होंने बहुजन समाज पार्टी बनाकर दलित-पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को पार्टी से जोड़ा, और उन्हें कांग्रेस के शिकंजे से मुक्त करने का देशव्यापी अभियान चलाया, पर उन्हें सफलता उत्तर प्रदेश में ही मिली। निश्चित रूप से उन्होंने बहुजन राजनीति का सूत्रपात करके भारतीय रिपब्लिकन पार्टी के अभाव को भर दिया। उन्होंने दलितों को स्वाभिमान दिया, संघर्ष की चेतना दी और उनकी मुक्ति का वह मार्ग दिया, जो सत्ता तक जाता था। उन्होंने पहला चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके लड़ा, और उसमें आशातीत सफलता पाई। उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की पहली गैर-ब्राह्मण सरकार बनी। कांग्रेस का सफाया हो गया। ब्राह्मणवाद के खिलाफ उत्तर प्रदेश में यह पहली सफल राजनीतिक लड़ाई थी, जिसने ब्राह्मण शासक वर्ग के लिए खतरे की घंटी बजा दी थी। तब पूरे देश में यह संदेश चला गया था कि संगठित और जागरूक बहुजन समाज ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दे सकता है। ब्राह्मणवादी संगठन आरएसएस के कान खड़े हो गए। उसने इस चुनौती को गंभीरता से लिया। लेकिन इससे आरएसएस की राजनीतिक पार्टी भाजपा के हित में एक अच्छा काम यह हुआ था कि बहुजन समाज कांग्रेस के जाल से निकल आया था, जो वह चाहता था। क्योंकि, भाजपा की मजबूती के लिए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कमजोर होना जरूरी था। पर उसे बहुमत से सत्ता में आने के लिए संगठित और जागरूक बहुजन समाज को विखंडित करके उसे हिंदुत्व की राजनीति से जोड़ना भी जरूरी था। अत: शीघ्र ही आरएसएस की प्रतिक्रांति शुरू हो गई। इस प्रतिक्रांति ने कांशीराम और मायावती को बड़ी आसानी से अपनी गिरफ्त में ले लिया, जिसमें मायावती की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और उनके वर्चस्ववादी राजनीतिक व्यवहार ने मुख्य भूमिका निभाई। बाद में बहुजन बुद्धिजीवियों के समक्ष भी यह रहस्य उजागर हो ही गया कि कांशीराम का एजेंडा वास्तव में आरएसएस का ही एजेंडा था। कांग्रेस के खिलाफ उनकी धिक्कार रैली और कम्युनिस्टों तथा वर्ग-संघर्ष के विरुद्ध उनकी जातीय राजनीति के पीछे आरएसएस का ही एजेंडा था। परिणामत: शीघ्र ही बहुजन राजनीति खत्म हो गई, उसके अनेक जुझारू नेता भाजपा और अन्य दलों में चले गए। बहुजन समाज पार्टी का हाथी गणेश बन गया और मायावती की सारी राजनीति भाजपा को लाभ पहुंचाने तक सिमटकर रह गई।

अब सवाल दलित या बहुजन राजनीति की चिंता का उतना नहीं है, जितना चिंतनीय प्रश्न यह है कि आज़ादी का अमृत महोत्सव कौन मना रहा है– दलित समाज या द्विज समाज? क्या आज़ादी के इन 75 वर्षों में अपनी अस्मिता, अपने अधिकार और अपनी भागीदारी के लिए दलितों का संघर्ष खत्म हो गया? क्या सचमुच उन्हें आज़ादी मिल गई? क्या वे उतनी ही स्वतंत्रता से अपनी स्वाधीनता का उपभोग कर रहे हैं, जितनी स्वतंत्रता से द्विज समाज कर रहा है? क्या यह सच नहीं है कि उनके कष्ट आज भी उतने ही हैं, जितने देश को आज़ादी मिलने से पहले थे? क्या आज भी वे सुरक्षित हैं? क्या उनका शोषण, उनका दमन, उनका बहिष्कार, उनकी औरतों के साथ बदसलूकी, उन पर दबंगों और पुलिस का अत्याचार सब बीते जमाने की बात हो गई है? नहीं, दलितों के लिए इन 75 वर्षों में भी कुछ खास नहीं बदला है। वह आज भी एक लाभार्थी वर्ग की तरह इस देश में रहा रहा है, एक स्वतंत्र राष्ट्र के स्वतंत्र नागरिक के रूप में नहीं। वह बस लाभार्थी भर है, सरकार की कुछ योजनाओं, कुछ सुविधाओं, कुछ टुकड़ों का मोहताज! दे दिया तो खुश! नहीं दिया, तब भी खुश!! डॉ. आंबेडकर ने कितना सही कहा था कि स्वतंत्रता अगर किसी का लक्ष्य है, तो सिर्फ दलित वर्ग का है, हिंदुओं का लक्ष्य जनता को आज़ादी देना नहीं, बल्कि देश के संसाधनों पर कब्जा करना और अंग्रेजों का स्थान लेना है। कटु सत्य यह है कि दलितों को स्वतंत्र नागरिक माना ही नहीं गया।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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