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पसमांदा समाज में भाजपा के लिए पैठ बनाना मुश्किल : प्रो. संजय कुमार

भाजपा ने भी कोई ऐसा संदेश नहीं दिया है, जिससे यह लगे कि वह पसमांदा मतदाताओं को अपनी ओर लाना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात के पीछे अनेक घटनाओं के परिणाम हैं। पढ़ें, प्रो. संजय कुमार का यह साक्षात्कार

एफपी संवाद पर सुनें यह साक्षात्कार


आजमगढ़ और रामपुर का उप चुनाव हुआ। वहां पर पसमांदा समाज की निर्णायक आबादी रही है। इन दोनों सीटों पर भाजपा को जीत मिली, जबकि दोनों को सपा का गढ़ माना जाता है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?

देखिए पहले बड़ी तस्वीर देखने की कोशिश करनी चाहिए। जब भी कहीं कोई उपचुनाव होता है तो सत्तासीन दल को लाभ मिलता ही है। आम चुनाव और उपचुनाव में काफी अंतर है। आपने रामपुर और आजमगढ़ के नतीजों का जिक्र किया। यह जरूर है कि ये दोनों ऐसे लोकसभा क्षेत्र हैं जो समाजवादी पार्टी के गढ़ रहे हैं। समाजवादी पार्टी, लगातार यहां से चुनाव जीतती रही है। लेकिन ये जो उपचुनाव हुए दोनों जगहों पर समाजवादी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा और भाजपा ने दोनों जगहों पर जीत हासिल की। अब यह देखने की जरूरत है कि राज्य में सरकार किसकी है। और इस समय उत्तर प्रदेश में सरकार भाजपा की है और अगर आप नजर दौड़ाएं, इन दो लोकसभा के साथ कई अन्य विधानसभा क्षेत्रों में भी उपचुनाव हुए थे। और आप देखिए, ट्रेंड ऐसा ही रहा है कि जिस पार्टी की सरकार होती है, और जब सरकार बनने के कुछ महीनों बाद कम से कम साल भर के अंदर-अंदर जब भी उपचुनाव होते हैं, तो आमूमन जिस पार्टी की सरकार होती है उस पार्टी के पास अपर हैंड होता है। उस पार्टी के जीतने की गुंजाइश रहती है। मेरी समझ में कोई बहुत अप्रत्याशित जीत नहीं हुई है भाजपा की। वैसे यह इस मामले में अप्रत्याशित भी है कि दोनों लोकसभा क्षेत्र मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र हैं। हालांकि बाहुल्य का मतलब मिजोरटी नहीं है और खासकर पसमांदा वोटर को लेकर, लेकिन उनकी तादात बहुत ज्यादा है। इस लिहाज से समाजवादी पार्टी को झटका लगा है दोनों जगहों पर, लेकिन इसका सीधा-सीधा अर्थ निकाल लेना कि पसमांदा समाज ने सपा का साथ छोड़ दिया है और उन्होंने भाजपा को वोट किया है, ऐसा सोचना, थोड़ी जल्दबाजी होगी। हां यह जरूर है कि कहीं न कहीं यह संकेत मिलता है कि मुस्लिम मतदाताओं ने बढ़-चढ़कर वोट नहीं किया है। जितना उत्साह विधानसभा चुनाव में देखने को मिला, वैसा उपचुनाव में देखने को नहीं मिला। इसकी वजह बहुत साफ है। असेंबली इलेक्शन राज्य में सरकार बनाने का चुनाव होता है और तब लग रहा था कि समाजवादी पार्टी चुनाव जीतने के करीब है। सरकार बना सकती है। ऐसे मतदाता, जो समाजवादी पार्टी का समर्थन करते है, उनमें उत्साह था। उन्होंने बढ़-चढ़कर वोट किया, जिसमें पसमांदा मुस्लिम वोटरों की भागीदारी बड़ी थी, लेकिन ये चुनाव आम चुनाव नहीं था जिससे कोई सरकार बनती या सरकार की सेहत में कोई फर्क पड़ता। इस वजह से मुस्लिमों में थोड़ा उत्साह कम रहा होगा और इसमें पसमांदा मुसलमान का और कम रहा होगा। क्योंकि जैसा कि आपने जिक्र किया कि ये ऐसे लोग हैं जो समाज में हाशिए पर हैं, उनकी रोज की जद्दोजहद की वजह से भी शायद उनका इंट्रेस्ट कम रहा और सपा को दोनों जगहों पर हार का सामना करना पड़ा। लेकिन मैं फिर कहूंगा यह जल्दबाजी होगी यदि हम यह निष्कर्ष मान लें कि पसमांदा मुसलमानों ने सपा का साथ छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया है। ऐसा होता हुआ मुझे इन दो नतीजों से दिखाई नहीं देता है। 

अभी हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा समाज को लेकर एक बड़ी बात कही थी, उन्होंने अपने नेताओं से कहा कि पसमांदा समाज के लोगों को अपने साथ जोड़ें। इस संबंध में आप क्या कहेंगे? 

ये दो चीजें हैं। पहले हम वोटरों का रुझान देखें। कई सालों से, दशकों से हम देखते हैं कि मुस्लिम मतदाताओं का वोट भाजपा की तरफ नहीं जाता है। मुस्लिम समुदाय में जो उच्च वर्ग के मतदाता हैं, उनमें भी भाजपा के प्रति उदासीनता रहती है। अगर पार्टी के नजरिए से देखें तो क्या भाजपा ने कभी ऐसा संदेश देने की कोशिश की कि वो मुस्लिम मतदाताओं को लाना चाहती है या फिर उन्हें जोड़ना चाहती है? टिकट बंटवारे को देखें अलग-अलग चुनावों में भाजपा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट नहीं देती। उसके अलग-अलग नेताओं के मुस्लिम विरोधी बयानों को देखें, जिसकी तादात बढ़ती ही जा रही है। इनके स्वर और तीखे होते जा रहे हैं मुस्लिम मतदाताओं के बारे में। तो पार्टी ने भी कोई ऐसा संदेश नहीं दिया है, जिससे यह लगे कि वह मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर लाना चाहती है। आप जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात कह रहे हैं, इसके पीछे अनेक घटनाओं के परिणाम हैं और हाल ही में नुपूर शर्मा के विवादित बयान के कारण मुस्लिम बहुल देशों ने जिस तरह से अपनी प्रतिक्रियाएं दी, उसके बाद इस बात की काफी आलोचना हुई। दुनिया भर में यह संदेश गया कि इस तरह का वाकया हिंदुस्तान में हो रहा है। तो एक तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार की छवि खराब हो रही थी। मुझे लगता है कि उस छवि को बनाए रखने के लिए या डैमेज कंट्रोल करने के लिए प्रधानमंत्री अब यह संदेश दे रहे हैं कि मुस्लिम समुदाय में जो पसमांदा मुसलमान हैं, उन्हें हमें अपने साथ मिलाना चाहिए। और यह जो उनकी सोच है, जैसा कि वो बार-बार कहते हैं– ‘सबका साथ सबका विकास, सबका विश्वास’, उसके संदर्भ में बताने की कोशिश करते हैं। वे कहना चाहते हैं कि मुस्लिम समुदाय के लोग भी उनके साथ जुड़ें। उनमें से एक खास वर्ग को टारगेट करते हैं। या खास वर्ग की ओर संबोधन करते हैं और यह वर्ग कौन है? यह मुस्लिम समुदाय का वह वर्ग है, जो सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से निचले तबके का है। ये ऐसे लोग हैं जिनको सरकार के योजनाओं का कुछ न कुछ फायदा मिलता है। कई इलाकों में कई राज्यों में अलग-अलग स्कीम से चाहे वो राशन हो चाहे हेल्थ स्कीम हो या गैस चूल्हे की स्कीम हो तमाम तरह की योजनाएं हैं। प्रधानमंत्री को लगता है कि यह संदेश इनके बीच जाना चाहिए कि केंद्र सरकार आपका ख्याल रखना चाहती है। आप तक उन सुविधाओं को उपलब्ध कराने की कोशिश कर रही है। इस वजह से प्रधानमंत्री यह संदेश पसमांदा मुसलमानों के लिए स्पष्ट रूप से है, ताकि इनमें से शायद कुछ लोग पार्टी की तरफ देखने लगें, पार्टी की तरफ एक तरह से उनका झुकाव बने।

जहां तक मुझे स्मरण हो रहा हैं पसमांदा आंदोलन की शुरुआत बिहार में हुई। और सबसे पहले नीतीश कुमार ने इसको रेखांकित किया और वहां से एक पहल की शुरुआत हुई। आपको क्या लगता है जो बात बिहार से शुरू हुई थी वो राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रभाव छोड़ती दिख रही है?

देखिए, पहले यह समझने की कोशिश कीजिए कि नीतीश कुमार ने यह कोशिश क्यों की। मैं यह नहीं कह रहा कि वे पसमांदा मुसलमानों की भलाई नहीं चाहते थे। वे जरूर चाहते हैं कि जैसे राज्य के अलग-अलग समुदाय के लोगों का विकास हो उसी तरह पसमांदा समाज के लोगों का भी विकास हो। यहां एक राजनीतिक मजबूरी थी उनके साथ और यह मजबूरी क्या थी, इसको समझने की आवश्यकता है। जदयू का गठबंधन भाजपा के साथ लगातार रहा है। और अगर वह भाजपा के साथ है तो मुस्लिम समुदाय के वोटरों का झुकाव जदयू की तरफ नहीं हो सकता। और भी सर्वेक्षणों के नजरिए से देखा जाय तो चुनाव दर चुनाव उनका झुकाव राजद की तरफ हमेशा रहा है। और जदयू को अपना जनाधार बढ़ाना था। जैसा कि उनकी कोशिश भी थी। तो उन्हें लग रहा था कि हमें मुस्लिम समुदाय के वोटरों के बीच पैठ बढ़ानी चाहिए। और पैठ बढ़ाने के लिए एक तरह से पॉलिटिकल चाल खेला गया। मैं फिर दोहरा रहा हूं कि मैं यह नहीं कहता कि उनके मन में मुस्लिम समुदाय के प्रति भलाई की भावना नहीं थी। वे चाहते थे कि मुस्लिम समुदाय के लोगों की भी भलाई हो। जैसे कि दूसरे समुदाय के लोगों को अलग-अलग लाभ पहुंचाने की कोशिश सरकार करती है। लेकिन यह जरूर था कि उन्होंने इसे एक नजरिए से देखने की कोशिश की कि इसका लाभ पहुंचाने के साथ-साथ क्या पार्टी को भी इसका कोई लाभ पहुंच सकता है। तो वे एक नई बात और एक नई सोच लेकर आए कि मुस्लिम समुदाय के वोटरों की जब बात होती है, तो यह जरूर देखा जाना चाहिए कि मुस्लिम समुदाय एक समुदाय नहीं है, इसमें भी अलग-अलग लेयर्स हैं। और उन्होंने पसमांदा मुसलमान शब्द का इस्तेमाल किया। और इस शब्द से उन्होंने इस ओर इशारा किया कि मुसलमान समुदाय के लोगों में भी बड़ी तादात में ऐसे लोग हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं और जरूरी यह है कि सरकार इन पर ध्यान दे, जैसे दूसरे लोगों पर ध्यान देती है। ये सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं। इनकी, सामाजिक स्थिति तकरीबन दलितों जैसी है। तो जिस तरह से दलितों के लिए सरकार विशेष प्रबंध करती है, विशेष सुविधाएं प्रदान करती है, चाहे वो स्कालरशिप की बात हो, चाहे वो रिजर्वेशन की बात हो— इस तरह की पहल नीतीश कुमार ने की। कुछ इसकी आहट बिहार में सुनाई पड़ी। लेकिन मुझे लगता है कि जल्दबाजी होगी, अगर हम यह सोचें कि यह प्रयोग पूरे देश में काम करेगा। प्रधानमंत्री मोदी जिस बात की पहल कर रहे हैं, जिस बात का जिक्र कर रहे हैं, तो क्या यह मॉडल है जो देश भर में बनाया जा सकता है? मॉडल के रूप में नीतीश कुमार ने प्रयोग जरूर किया। लेकिन मुझे लगता है कि इतनी आसानी से इस मॉडल को देश भर में लागू नहीं किया जा सकता है। यह आसान नहीं होगा। 

प्रो. संजय कुमार, निदेशक, सीएसडीएस

एक चीज यह भी देखी जाती है कि जो तथाकथित उदारवादी पार्टियां हैं, चाहे वह राजद हो, सपा और यहां तक कि कांग्रेस भी मुसलमानों के हित की बात करती है। लेकिन कहीं न कहीं उनके अंदर पसमांदा समाज के लोगों की नुमाइंदगी कम होती है। इसके कारण उनके अंदर असंतोष बढ़ता है और यह भी एक वजह है कि भाजपा को लग रहा है कि उसके पास एक मौका है।

बिल्कुल, देखिए पिछले कई दशकों से देश की राजनीति में ओबीसी के वोटरों की चर्चा हो रही है, लेकिन आप देखें कि पिछले एक दशक में अब ओबीसी की चर्चा नही होती है। अब ओबीसी के अंदर में लोवर ओबीसी और अपर ओबीसी की बात होती है, क्योंकि भाजपा ने इस बात को बड़े गौर से देखा और इसकी व्याख्या की कि जब ओबीसी की बात होती है, चाहे वो राजनीति में हिस्सेदारी हो, सामाजिक हिस्सेदारी हो, नौकरियों में हिस्सेदारी हो तो ओबीसी के वे कौन से लोग हैं जिनकी हिस्सेदारी ज्यादा है? तो ओबीसी में जो अपर लेयर है, आप अलग-अलग राज्यों में नजर दौड़ायें तो हम पाते हैं कि सरकारी स्कीमों की मलाई कौन खा रहा है। यादव, कुर्मी, कोइरी आदि के अलावा एक लंबी सूची है जिन्हें हम लोवर ओबीसी कहते हैं। अगर हम यूपी की बात करें तो यही तमाम जातियां हैं। ओबीसी की यही तीन जातियां फायदे में रहती हैं। इस तरह का आकलन हम अलग-अलग राज्यों में भी कर सकते हैं। इस हिसाब से भाजपा सरकार ने एक रोहिणी कमीशन का गठन किया था और जिसकी रिपोर्ट का अभी भी हम इंतजार कर रहे हैं। पांच साल हो गए हैं। लेकिन आप देखें कि सरकार ने पहल की और इसका राजनीतिक फायदा भाजपा को मिला। अलग-अलग राज्यों में अगर आप देखें तो भाजपा ने लोअर ओबीसी के बीच अपनी पैठ मजबूत की है। अब लोअर ओबीसी से मतदाताओं का एकमुश्त वोट भाजपा को मिलने लगा है। यह बड़ा झुकाव है। ऐसी ही पहल वह पसमांदा समुदाय के लोगों के लिए करना चाहती है, जोकि आसान नहीं है। लेकिन फिर भी एक कोशिश है।आप देखें कि यह कोशिश क्या है। जो मुस्लिम समुदाय का अपर लेयर है, जो सुखी संपन्न है, आर्थिक दृष्टिकोण से, सामाजिक दृष्टिकोण से और वो राजनीति में भी उसकी भागीदारी है, उनका झुकाव कहीं न कहीं तथाकथत सेकुलर पार्टियों, जैसा कि आपने कहा, की तरफ हमेशा से रहा है। और भाजपा को लगता है कि बीच में उनका झुकाव बदल पाना ज्यादा कठिन है, बजाय इसके कि अगर पसमांदा मुसलमानों को टारगेट किया जाय। इसी के लिए भाजपा की एक रणनीति है। यह दो कारणों से है। उसकी रणनीति तो यह है कि पसमांदा समुदाय में उसे अपनी पैठ बनाने में ज्यादा सहूलियत होगी बजाय कि जो अपर लेयर्स मुस्लिम हैं। और दूसरी बात यह है कि केंद्र सरकार की योजनाओं का कुछ न कुछ फायदा पसमांदा समाज को भी मिल रहा है। तो भाजपा यह मैसेज पहुंचा सकती है कि भले ही आपको यह लगे कि सरकार उनकी अनदेखी करती है, लेकिन आप देखें कि यह सरकार उनकी अनदेखी नहीं करती है। सरकार की योजनाओं का फायदा उन्हें भी मिलता है। और इस संदेश के द्वारा भाजपा यह कोशिश कर रही है कि अगर पैठ बनाने में हम सफल होंगे तो उसमें सफलता हमें पसमांदा मुसलमानों में ही पहले मिलेगी, न कि जो अपर लेयर मुस्लिम मतदाताओं में। इस वजह से भाजपा की यह कोशिश है। लेकिन मैं फिर कहूंगा कि अच्छी पहल है, लेकिन आसान नहीं है। 

आपने रोहिणी कमीशन की बात कही और हमलोगों ने देखा कि तेरहवीं बार इसके कार्यकाल को बढ़ाया गया है। आपको नहीं लगता कि एक तरह से जो ओबीसी वर्ग है, जिसे लोअर ओबीसी कहें, अति पिछड़ा वर्ग कहें, वह कहीं न कहीं ठगा महसूस कर रहा है?

मुझे ऐसा नहीं लगता कि लोअर ओबीसी के लोग ठगे महसूस करते हैं। जब यह बात उभर कर आई कि तेरहवीं बार रोहिणी आयोग का कार्यकाल बढ़ाया गया है तो लोगों को भी इसकी जानकारी है कि इसमें कौन से लोग हैं। लोअर ओबीसी में यह पब्लिक डिबेट का मुद्दा अभी नहीं है। जिस दिन उन्हें इस बात का पता चलेगा, यह पब्लिक डिबेट का मुद्दा हो जाएगा, तब उन्हें लगने लगेगा कि वे शायद ठगे महसूस करते हैं या वो और इंतजार करना चाहेंगे। चूंकि पब्लिक डिबेट का मुद्दा नहीं है तो मुझे नहीं लगता है कि लोअर ओबीसी के लोगों को लगता है कि सरकार उन्हें ठग रही है। लेकिन यह जरूर है कि बार-बार जिस तरह से कार्यकाल बढ़ाया जा रहा है, कहीं न कहीं यह संदेश मिल रहा है। कुछ अड़चने हैं जिसके कारण कमीशन अपनी रिपोर्ट देने में अक्षम महसूस कर रहा है। 

फिर भी एक बड़ा सवाल तो सामने आता है कि जो लोअर ओबीसी है, जिसके अंदर यह उम्मीद पैदा हुई थी कि अब आरक्षण का लाभ उसे भी मिलेगा। लेकिल जब बार-बार उपवर्गीकरण को लेकर कोई पहल नहीं की गई तो कहीं न कहीं निराशा तो उनके अंदर आएगी। इसका नतीजा चुनाव पर भी पड़ सकता है?

देखिए आरक्षण का लाभ सबके लिए है। सवाल यह है कि जब ओबीसी आरक्षण आया तो उसमें कैटेगराइजेशन नहीं हुआ। तो उनके मन में यह भावना आती है कि आरक्षण का लाभ उन्हें नहीं मिलता है। नहीं मिलने की वजह यह है कि उनमें आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है, इस वजह से वह इसका लाभ नहीं ले पाते। नहीं मिलता है यह शिकायत तो वे तकनीकी तौर पर नहीं कर नहीं सकते। तो सरकार की अपनी पहल थी कि यह कमीशन [रोहिणी कमीशन] मात्र गिनती ही नहीं करेगा, बल्कि यह बतायेगा कि आर्थिक सामाजिक दृष्टिकोण से पिछड़ेपन कितना अलग-अलग ओबीसी के जातियों के बीच में है। यह वर्गीकरण करने की पहल है। सरकार इसके बाद कोई निर्णय लेगी कि क्या ओबीसी के लिए जो 27 प्रतिशत आरक्षण है, उसमें उपवर्गीकरण किया जाय। तो जो लोअर ओबीसी के लोग हैं, उन्हें इस बात का मलाल जरूर है या ये कहें कि शिकायत रहती है कि ओबीसी के लिए जो आरक्षण का प्रावधान है, उसके सारे के सारे फायदे अपर ओबीसी के लोग उठा ले जाते हैं। लेकिन यह शिकायत नहीं हो सकती है कि हमें इसका फायदा नहीं मिलता। तकनीकी तौर पर सब लोग इसके लिए योग्य हैं। सभी को फायदा मिलने का बराबर-बराबर का अधिकार है।

एक तो जो अपर ओबीसी है, उसके बीच भाजपा की साख बढ़ी है। अपर ओबीसी में भी जैसे हम रामपुर की बात भी कर लें या आजमगढ़ की बात कर लें या इसके पहले जो चुनाव हुए उसकी बात कर लें— जो यादव हैं, कुशवाहा है, कुर्मी हैं इनके बीच भाजपा की साख बढ़ी है। कहीं रोहिणी कमीशन का कार्यकाल बढ़ाने की यह वजह तो नहीं? 

नहीं, मैं नहीं मानता कि इनके बीच में भाजपा की साख बढ़ी है। अगर हम पहले से तुलना कर लें तो कुछ न कुछ झुकाव दिखाई पड़ेगा। दो चीजें हैं। अगर जिन जातियों का आपने जिक्र किया, यादव, कुर्मी और कुशवाहा अपर ओबीसी समुदाय में आते हैं। अगर विधानसभा का चुनाव होता है तो इनका झुकाव क्षेत्रीय पार्टियों की तरफ जाता है। लोकसभा के चुनाव में इनका झुकाव क्षेत्रीय पार्टियों से हटकर भाजपा की तरफ ज्यादा हो जाता है। वजह बहुत साफ है, क्योंकि जब राष्ट्रीय चुनाव होता है, तो उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं होती है कि जिन क्षेत्रीय पार्टियों के साथ सदियों से रहे हैं, चाहे वो सपा हो, राजद हो, चाहे कोई अन्य पार्टियां हों, इनकी दावेदारी सरकार बनाने में नहीं होती है केंद्र में। इस वजह से इनका झुकाव भाजपा की तरफ, खासकर नरेंद्र मोदी की तरफ होता है। तो थोड़ा डिफरेंस दिखाई पड़ता है, लेकिन फिर भी लोकसभा के चुनाव में भी इन समुदाय के वोटरों का बड़ा वोट, बड़ा हिस्सा क्षेत्रीय पार्टियों को जाता है। दूसरा सवाल है कि क्या पहले की तुलना में झुकाव ज्यादा दिखता है? मुझे इन तीनों जातियों का बहुत थोड़ा झुकाव भाजपा की तरफ लगता है। अभी भी मैं मानता हूं कि इन समुदाय के वोटर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मजबूती से खड़े दिखाई पड़ते हैं। लगातार हमने पिछले 20-30 साल में जो आंकड़े संग्रहित किया, अध्ययन किया, उसके आधार पर अगर हम एक लंबी नजर डालते हैं तो बहुत साफ दिखाई पड़ता है कि इन मतदाताओं का झुकाव क्षेत्रीय पार्टियों की तरफ है, जिसे वे अपनी पार्टी कहते हैं। उसके साथ ही खड़े दिखाई पड़ते हैं। 

क्या आपको नहीं लगता है कि भाजपा उपवर्गीकरण के सवाल पर बैकफुट पर है या फिर उसको लागू ही नहीं करना चाहती है? और इसकी वजह यह कि वह अपर ओबीसी को अभी नाराज नहीं करना चाहती है? 

देखिए, यह कह पाना बड़ा मुश्किल है कि भाजपा इस मुद्दे को नजरअंदाज कर रही है क्योंकि कमीशन में जो लोग हैं, जो इस काम को कर रहे हैं, हमें उनसे बात करके उनकी राय लेने की जरूरत है कि क्यूं यह काम पूरा नहीं हो पा रहा है। मुझे लगता है कि अड़चनें दूसरी हैं। अड़चन इस बात की है कि जो डिमांड पहले हो रहा था कि ओबीसी की गिनती हो, वह संख्या नहीं है इनके पास। मतलब कमीशन में जो लोग हैं, उनके पास कुछ नहीं है, जिसके आधार पर ओबीसी का वर्गीकरण करें। उसे इसकी जानकारी ही नहीं है कि ओबीसी के किस समुदाय के लोगों की संख्या कितनी है। अलग-अलग राज्य या केंद्र सरकार की नौकरियों में उनका क्या अनुपात होना चाहिए। आयोग के पास काम करने के लिए कोई आधार नहीं है। आप यह भी कह सकते हैं कि राॅ मटेरियल नहीं है। किसी फैक्ट्री में आप कितने भी बड़े इंजीनियर लगा दें, लेकिन अगर रॉ मटेरियल नहीं है तो वह कोई उत्पाद नहीं दे पाएगा। अब सवाल यह है कि उसका अर्थ हम यह निकालने लगें कि प्रोडक्ट इसीलिए नहीं आ रहा है, क्योंकि उपभोक्ता या खरीददार नहीं हैं, तो मुझे लगता है हम जम्प कर रहे हैं। जब राॅ मटेरियल यानी कच्चा उत्पाद ही नहीं है, आंकड़े ही नहीं है, कोई सामग्री नहीं है, जिसके आधार पर वह काम कर सकें जो काम उनको दिया गया है। उन्हें पहले जातियों की संख्या का पता होना चाहिए। इसके बाद इन जातियों की शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन करना है। इनमें से कौन ऊपर है कौन नीचे। यह पता करने के लिए आंकड़ों की जरूरत होती है। नौकरी में कितने हैं, पढ़े-लिखे कितने हैं? अगर संसाधनों की हम बात करें तो जमीन कितनी है, खेती की जमीन कितनी है? घर में और कौन सुख-सुविधा उपलब्ध है? जब ये आंकड़े होंगे तभी तो क्लासीफाई कर पाएंगे। तो मैं नहीं मानता कि भाजपा इससे कन्नी काटना चाहती है। मुझे लगता है कि दिक्कत कहीं और है। दिक्कत है कि कमीशन में जो लोग हैं, वो इसीलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि रॉ मटेरियल नहीं है।

फिर भी सरकार की मंशा पर सवाल तो उठता ही है क्योंकि सरकार ने तो जातिगत जनगणना से साफ इंकार कर दिया है?

अगर दो चीजों को हम लिंक करने की कोशिश करें कि जब आयोग काम इसीलिए नहीं कर पा रही है क्योंकि उनके पास रॉ मटेरियल नहीं है तो रॉ मटेरियल उपलब्ध कराने के लिए सरकार की कोई पहल होनी चाहिए। सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं दिखाई पड़ती। जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, उस समय उन्होंने इस बात का जिक्र किया था कि जब जनगणना होगी तो इस बार ओबीसी की गिनती की जाएगी। सरकार वहां से पीछे चली गई। इन चीजों को या इन घटनाओं को या वक्तव्य को अगर हम जोड़कर देखने की कोशिश करें तो आप जो कह रहे हैं, सचमुच उस बात के संकेत मिलते हैं कि कहीं न कहीं सरकार थोड़ा पीछे हटना चाहती है, बचना चाहती है। और चाहती है कि अब कोई नया बखेड़ा न खड़ा हो। तो इस बात के संकेत जरूर साफ दिखाई देते हैं, इन चीजों को हम जोड़कर देखने की कोशिश करें कि सरकार, कम से कम यह तो साफ है कि इसके बारे में बहुत उत्साहित नहीं है। सरकार की तरफ से कोई नई पहल नहीं है।

अंतिम सवाल यह है कि पसमांदा मुसलमानों के संदर्भ में जो भाजपा के रुख में जो बदलाव हम देख पा रहे हैं, क्या आपको लगता है कि इसमें आरएसएस की कोई भूमिका है? 

मैं इस विषय पर ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहूंगा क्योंकि मेरी कोई जानकारी नहीं है इसके बारे में। लेकिन हम आए दिन इस बात की चर्चा सुनते रहते हैं कि जब भाजपा की सरकार होती है तो सरकार के नियम बनाने में, कानून बनाने में, खासकर ऐसी चीजों पर जिसका समाज पर गहरा असर है, इसमें संघ की विचारधारा, संघ के लोगों की राय भी ली जाती है। जब तमाम ऐसे निर्णयों पर संघ की राय ली जाती है तो हो सकता है कि इसमें भी हो। लेकिन मेरे पास कोई तथ्य नहीं है, जिसके आधार पर मैं कहूं कि संघ का इसमें दखल है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि एक आम धारणा है भाजपा की जब सरकार होती है तो संघ की विचारधारा सरकार के कामकाज में कहीं न कहीं रिफलेक्ट होती है। इसमें भी कहीं न कहीं दखल होगी, उनकी सोच कहीं न कहीं दिखाई पड़ती है। 

(संपादन : समीक्षा साहनी/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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