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श्रमणी प्रतीकों के ब्राह्मणीकरण का दौर

सम्राट अशोक के स्तंभ के सिंह यह बताते हैं कि बुद्ध के संपर्क में आकर शेर भी सौम्यता, दिव्यता और भव्यता अर्जित करते हैं, जिसे सम्राट अशोक जैसे बुद्धानुयायी इस रूप में निर्मित करवाते हैं। लेकिन मोदी जी की सत्ता का शेर भारत के वर्तमान की क्रूर, हिंसक और निर्मम अभिव्यक्ति का प्रकटीकरण है। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

इस वक़्त का सोशल मीडिया विमर्श इस बात पर ज़ेरे बहस है कि राष्ट्रीय प्रतीकों से केंद्र की दक्षिणपंथी सत्ता बेवजह छेड़छाड़ करके आख़िर क्या हासिल करना चाहती है? उसे शहरों और शहर में स्थित मार्गों का नाम बदलने में क्या आनंद आता है? वह पुरातन धर्म स्थलों की स्थितियों को क्यों बदल देना चाहती है? मस्जिद, दरगाहों और ऐसे अन्य धर्मस्थलों पर मंदिरों को तामीर करने से आख़िर हो क्या जाना है? और अब भारत के राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ के सिंहों को परिवर्तित करते हुए हिंसक, निर्मम और ग़ुस्सैल क्यों दिखाया जा रहा है? 

क्या यह भारतीय समाज में हिंसा और हिंसक प्रवृतियों को वैधता प्रदान करने का कोई दीर्घक़ालीन योजना का हिस्सा है अथवा देश के श्रमणी प्रतीकों का ब्राह्मणीकरण करने की साज़िश है? सवाल गहराते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर टिप्पणियों और चिंताओं की बाढ़ आई हुई है। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान अपने सुपरिचित मौन में मस्त है और उसके समर्थक हर बार की तरह हिक़ारत, नफ़रत और उपेक्षा युक्त तरीक़े से इस बहस का मज़ाक़ बनाकर इसकी तीव्रता को क्षीण करने में लगे हैं। इस प्रक्रिया को भी सत्ता का पूरा समर्थन प्राप्त है।

क्या यह अचानक हुआ है कि अशोक स्तंभ के शेर उग्र और हिंसक निरूपित कर दिए गए हैं अथवा किसी दीर्घ परियोजना का ही यह सहज प्रतिफलन है? क्या हमें इसके मूल कारणों को नहीं देखना चाहिए? वर्तमान सत्ता के मार्गदर्शक संस्थान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपनी शाखाओं में विगत 97 साल से आख़िर यही तो सिखाया है, जिस विचार का प्रतिनिधित्व वे कर रहे हैं। वहां “वैदिकी हिंसा न हिंसा भवति” जैसे वाक्य बोले जाते रहे हैं।। शाखा साहित्य में उग्र शेर के चित्र तले “स्वयमेव मृगेंद्रता” लिखा जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि बलि बकरे की दी जाती है, शेर की नहीं, इसलिए शेर बनो, बब्बर शेर!

हिंसक और लड़ाकू बनने के लिए लाठी, भाला, तलवार और पिस्टल की ट्रेनिंग तो संघ देता ही है। साथ ही, बार बार विचारों में उग्रता और हिंसात्मकता का भाव भी निर्मित किया जाता है। विजयदशमी पर शस्त्र पूजन की परंपरा भी निर्बाध जारी ही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दया, करुणा और अहिंसा की पैरवी करने वाले तमाम इतिहास प्रसिद्ध लोग उनके निशाने पर हैं। वे महावीर, बुद्ध, सम्राट अशोक और गांधी को कायर बताने में भी पीछे नहीं रहते हैं। भारत की सुदीर्घ ग़ुलामी के लिए भी वे सम्राट अशोक को ज़िम्मेदार ठहराने से बाज नहीं आते हैं। उनके लिए अहिंसा गुण नहीं, बल्कि अवगुण है और डरपोकपन तथा कायरता की निशानी है। वे हिंसा को वीरता मानते हैं तथा रक्तपात मचाने को बहादुरी।

नये संसद भवन के परिसर में स्थापित राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह के अनावरण के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

आज जो हो रहा है अथवा होता दिख रहा है, वह उन्हीं विष बीजों का पल्लवन, पुष्पन और फलन है, जिनको एक सदी पूर्व संगठित रूप से पुन: अधिरोपित किया गया था। हालांकि हिंसा का क़बिलाई विचार प्राचीन है। भारत में श्रमण व ब्राह्मण धाराओं में संघर्ष इसी का प्रतिबिंब अंकित करता है, जो हिंदुत्व की ताकतें अपने स्वयंसेवकों व समर्थकों को लगभग एक सदी से सिखाती रही हैं। वह सत्ता का आश्रय पा कर अब उद्दंड हो कर अभिव्यक्त हो रही है।

आप अगर पौराणिक कथानकों और उसके नायकों व अन्य पात्रों पर ही नज़र दौड़ाएं तो आप इस बदलाव को महसूस कर पाएंगे कि कैसे अचानक उन्होंने अपने विनीत, सौम्य और प्रेमपूर्ण पात्रों को आक्रामक, ग़ुस्सैल और हिंसक स्वरूप में तब्दील कर दिया है। आप वाहनों के पीछे और झंडों पर लाल पीले हुए भयोत्पादन करते शस्त्रधारियों को देख सकते हैं। यह बेहद सुनियोजित है। यह ऐसे ही सहजता से नहीं हो रहा है। यह सुनियोजित और संगठित तरीक़े से किया जा रहा है। यहां तक कि संबोधनों और जयकारों की ध्वनियों में जो आतंक का राग मिश्रित हुआ है, वह भी नियोजित ही है।

बहरहाल, अब जब उन्होंने अपने देवी-देवताओं को ही हिंसक अैर क्रूर बना दिया है तो वह इंसान की मानवीकरण की किसी भी परियोजना को क्यों स्वीकार करेंगे? जब अपने आदर्शों को क्रोध और ख़ून ख़राबे का प्रतीक बना रहे हैं तो वे सम्राट अशोक के स्तंभ के सौम्य मुखमुद्रा वाले शेर क्यों बर्दाश्त करेंगे? क्यों उन्हें क्रूर व नरभक्षी नहीं बनाएंगे? यह अभी और भी आगे जाएगा। हज़ारों साल की पराजयों और अपने वैचारिक खोखलेपन तथा डर की हीनता की ग्रंथि से बाहर आने के लिए उनको अतिहिंसक प्रतीक चाहिए। यह सरकार इतिहास से बदला लेने के लिए बेवजह के बदलाव करने में लगी हुई है।

सत्ता समर्थक लोग इस बात का मज़ाक़ बना रहे हैं कि सम्राट अशोक का शेर शायद शेर नहीं, बल्कि बकरी था। मोदी जी का शेर वाक़ई शेर है। जैसे शेर की आज देश को ज़रूरत है, वैसे शेर संसद के नवनिर्मित भवन पर स्थापित हो चुके है। डर और नफ़रत के ज्वार से पीड़ित सरकार का हिंसक चेहरा अब स्वतः अभिव्यक्त हो रहा है। इसे इसी रूप में देखना पड़ेगा, जो अशोक स्तंभ के शेरों की सौम्य मुख मुद्रा का संदेश नहीं समझ पा रहे हैं। वे दया और सहानुभूति के पात्र हैं। बुद्ध से जब क्रोधित अंगुलिमाल का सामना होता है तो बुद्ध उस पर तीर नहीं चलाते। उसे अपमानित नहीं करते और न ही कटु वचन कहते हैं। बुद्ध उसके रोकने के बावजूद आगे बढ़ते जाते हैं और उसके एकदम नज़दीक पहुंचकर संवाद करते हैं। यह बुद्ध की करुणा और वीरता है कि अंगुलिमाल जैसा नरहंता डकैत भी एक भिक्खु बन जाता है तथा बुद्ध, धम्म और संघ का शरणागत होता है।

दरअसल इसी कहानी में हैं अशोक स्तंभ के सिंहों की सौम्यता का राज कि शेर भी बुद्ध जैसे महाकारुणिकों के संसर्ग से सौम्य मुख मुद्रा वाले निर्भय शेर बन जाते हैं। लेकिन डरे हुए शासक और डर पर निर्मित सत्तायें इस बदलाव को नहीं समझ सकतीं। सम्राट अशोक के स्तंभ के सिंह यह बताते हैं कि बुद्ध के संपर्क में आकर शेर भी सौम्यता, दिव्यता और भव्यता अर्जित करते हैं, जिसे सम्राट अशोक जैसे बुद्धानुयायी इस रूप में निर्मित करवाते हैं। लेकिन मोदी जी की सत्ता का शेर भारत के वर्तमान की क्रूर, हिंसक और निर्मम अभिव्यक्ति का प्रकटीकरण है।

महत्वपूर्ण यह कि यह बदलाव सिर्फ़ प्रतिमा में बदलाव मात्र नहीं है, यह सत्ता, समाज और देश में हो रहे बदलाव की अभिव्यक्ति भी है। यह इतिहास की असंख्य हारों की सामूहिक ग्रंथि से छूटने की छटपटाहट भी है और यह उस बुनियाद को बदलने का प्रयास भी है, जो भारत का मूल विचार है। यह बुद्ध, महावीर, अशोक, कबीर, रविदास, फुले, पेरियार और आंबेडकर से पिंड छुड़ाने की कोशिश का नतीजा है। वे समावेशी, सहिष्णु, शांत, अहिंसक विचारसरणी को नकार कर उग्र, असहिष्णु, क्रूर, हिंसक और नरभक्षी वैचारिकी को स्थायित्व देने में लगे हैं और निरंतर सफल हो रहे हैं। लेकिन इतिहास से बदला लेने वाले इस तरह के बदलावों का पुरज़ोर प्रतिरोध ज़रूरी है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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