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द्रौपदी मुर्मू से दलित-बहुजनों की उम्मीदें

हमें यह याद रखना चाहिए कि भारतीय शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख होते हैं और उन्हें प्रथम नागरिक का दर्जा हासिल होता है। और द्रौपदी मुर्मू चूंकि खुद उस समाज से आती हैं जो श्रमशील रहा है तो वह जनसामान्य की तकलीफाें को भी बखूबी समझती होंगी। उनसे बेहतर पहल किये जाने की उम्मीदें पूरे देश को है। बता रही हैं डॉ. संयुक्ता भारती

समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिहाज से इतिहास एक महत्वपूर्ण विषय है। इतिहास हमें घटनाओं के बारे में बताता है और हम अलग-अलग कड़ियों को जोड़कर देखते हैं तो वर्तमान के संदर्भ में आकलन कर पाते हैं। इसके आधार पर हम भविष्य की थाह भी लगाते हैं। इस आधार पर हम यदि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाये जाने की घटना पर मनन करें तो हमें निश्चित रूप से 1848 का वह मंजर याद आएगा जब एक महिला अपने पति के साथ मिलकर लड़कियों के लिए स्कूल खोल रही थी। ब्राह्मणवादी वर्चस्व के घ्वजवाहक तब उसका हर मोड़ पर विरोध कर रहे थे। लेकिन वह महिला जानती थीं कि जो लौ वह जलाने की कोशिशें कर रही हैं, एकदिन उसकी रोशनी सर्वत्र फैलेगी। और यही हुआ है। करीब 174 साल के बाद इस देश के संवैधानिक शीर्ष पद पर वंचित समुदाय की महिला आसीन होंगी। 

दरअसल, दलित-बहुजन महिलाओं का संघर्ष बड़ा है। भले ही यह इतिहास में समुचित तरीके से दर्ज न हो, परंतु प्राचीन इतिहास के बौद्ध धर्म के कारण हुई क्रांति, मध्य काल में भक्ति आंदोलन की क्रांति और आधुनिक काल में फुले, पेरियार और आंबेडकर की क्रांति में महिलाओं ने अपनी मुक्ति के मार्ग को खोजा है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि दलित-बहुजन महिलाओं को घर से लेकर समाज तक हमेशा कई स्तरों पर एक साथ लड़ना पड़ा है। पहले यह संघर्ष सामाजिक स्थिति और आर्थिक स्वतंत्रता से जुड़ा था। कालांतर में इसमें राजनैतिक सवाल भी जुड़ गए।

आधुनिक काल की बात करें तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि डॉ. आंबेडकर के कारण दलित-बहुजन महिलाओं के स्वर रोज-ब-रोज मुखर हो रहे हैं। हालांकि इस मुखरता का श्रेय सावित्रीबाई फुले को भी जाता है, जिन्होंने स्त्रियों के लिए स्कूल खोले और उन्हें नारकीय जीवन से मुक्त होने के लिए प्रेरित किया। तब सावित्रीबाई फुले की यह पहल बहुत महत्वपूर्ण साबित हुई और फातिमा शेख, ताराबाई शिंदे आदि महिलाएं आगे आयीं। फिर रमाबाई को कैसे भूला जा सकता है, जिन्हें उनके संस्कृत के ज्ञान के कारण द्विजों ने पंडिता की उपाधि देकर महिमामंडित किया। लेकिन विद्रोहिणी रमाबाई ने पितृसत्ता की बंदिशों को ना केवल अस्वीकार किया बल्कि उसे अल्प आयु में विवाह का विरोध कर, अंतरजातीय विवाह कर और हिंदू धर्म में महिलाओं की स्थिति पर किताब ‘दी हाई कास्ट हिंदू वुमेन’ लिखकर खुली चुनौती दी। 

इस हिसाब से देखें तो अनेक कड़ियों का मिलान आवश्यक है, जिनके कारण आज परिणाम यह है कि द्रौपदी मुर्मू को केंद्र में सत्तासीन भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया है। उनके मुकाबले में कांग्रेसनीत यूपीए ने पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा को मैदान में उतारा है। हालांकि यह मामला स्त्री बनाम पुरुष का नहीं है। लेकिन इसके बावजूद यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि वंचित समुदाय से आनेवाली महिला के पक्ष में संभावनाएं सबसे अधिक हैं। 

राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू

दरअसल, द्रौपदी मुर्मू का अपना जीवन भी प्रेरणादायक रहा है। क्लर्क की नौकरी करने के बाद राजनीति में शुरुआत करना किसी भी महिला के लिए आसान नहीं होता। खासकर उन महिलाओं के लिए जिनके पास राजनीतिक विरासत नहीं होती। जिनके पिता और पति राजनीति में होते हैं, उनके लिए यह आसान भले हो। द्रौपदी मुर्मू दो बार भाजपा के टिकट पर विधायक बनीं। बाद में भाजपा ने उन्हें झारखंड का राज्यपाल बनाया। यह द्रौपदी मुर्मू के राजनीतिक जीवन की नई ऊंचाई थी, जिसे उन्होंने उच्चतम स्तर की गरिमा के साथ निभाया। कौन भूल सकता है वह पल जब झारखंड में उनके ही दल की सरकार, जिसका नेतृत्व रघुवरदास कर रहे थे, ने छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम में आमूलचुल बदलाव करने का निर्णय लिया था और इसके लिए विधानसभा में विधेयक भी पारित करवा दिया गया, लेकिन द्रौपदी मुर्मू ने विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया और वापस विधानसभा को भेज दिया।

जाहिर तौर पर यह इस वजह से भी संभव हुआ क्योंकि द्रौपदी मुर्मू स्वयं आदिवासी समाज से आती हैं और वह जानती थीं कि यदि आदिवासियों की जमीन पर गैर-आदिवासियों के हस्तक्षेप को रोका नहीं गया तो उसके कैसे दुष्परिणाम सामने आएंगे। संभवत: यही वजह रही कि उन्होंने आदिवासियों के हितों को प्राथमिकता दी।

असल में भारतीय राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी को आज भी समुचित सम्मान हासिल नहीं है। इसे हम चाहें तो संसद में हिस्सेदारी से जोड़कर देख सकते हैं। आज भले ही कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं और उनकी बेटी प्रियंका गांधी पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव, लेकिन इन दोनों के अलावा कांग्रेस में कोई ऐसी महिला राजनेता नहीं हैं, जिनकी अपनी मजबूत पहचान हो। यही हाल भाजपा के अंदर भी है। यह इसके बावजूद कि नरेंद्र मोदी मंत्रिपरिषद में कुछ महिलाएं शामिल हैं, लेकिन सियासती पैमाने के आधार पर देखें तो उनकी अहमियत बहुत अधिक नहीं है। फिर चाहे वह केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ही क्यों ना हों। इसके अलावा भी वामपंथी दलों में भी महिलाएं गिनी-चुनी ही नजर आती हैं।

ऐसे में द्रौपदी मुर्मू एक उदाहरण के रूप में सामने आती हैं और पूरे देश की महिलाएं फिर चाहे वह गैर-दलित और गैर-आदिवासी ही क्यों ना हों, को उम्मीदें हैं। रही बात इस नाम पर सियासत की तो सियासत तो तब भी की गयी थी जब प्रतिभा देवी सिंह पाटिल देश की पहली राष्ट्रपति बनायी गयी थीं। हालांकि द्रौपदी मुर्मू को लेकर कई लोग उनकी यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि वह भी पूर्व के राष्ट्रपतियों के माफिक ही साबित होंगी। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि भारतीय शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख होते हैं और उन्हें प्रथम नागरिक का दर्जा हासिल होता है। और द्रौपदी मुर्मू चूंकि खुद उस समाज से आती हैं जो श्रमशील रहा है तो वह जनसामान्य की तकलीफाें को भी बखूबी समझती होंगी। उनसे बेहतर पहल किये जाने की उम्मीदें पूरे देश को है।

हम उम्मीदों की बात करें तो हमारे सामने अनेकानेक सवाल हैं। एक तो संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण का सवाल ही है। वह चाहेंगी तो सरकार पर दबाव बना सकती हैं कि वह विधेयक संसद में प्रस्तुत करे। ऐसे ही एक मसला दलित और आदिवासी समुदायों के लिए एससीपी यानी स्पेशल कंपानेंट प्लान के तहत आवंटित धनराशि का सवाल है। अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, पेसा एक्ट के अलावा पांचवीं और छठी अनुसूची में शामिल राज्यों के बाशिंदों के सवाल हैं। हम इतनी उम्मीद तो कह रही सकते हैं कि द्रौपदी मुर्मू इन विषयों पर गंभीर रूख अपनाएंगीं।

बहरहाल, यह समय बदलाव का है और देश को इस बदलाव का स्वागत करना ही चाहिए।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

संयुक्ता भारती

तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, बिहार से पीएचडी डॉ. संयुक्ता भारती इतिहास की अध्येता रही हैं। इनकी कविताएं व सम-सामयिक आलेख अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

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