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वे पूछते हैं, दलित बुद्धिजीवियों ने क्या किया?

केंद्र में प्रधानमंत्री बदलते रहे हैं, और राज्यों में मुख्यमंत्री बदलते रहे हैं, पर शासन पर ब्राह्मण का आधिपत्य नहीं बदला। वह आज़ादी के बाद से ही ज्यों का त्यों रहा है। वे राष्ट्रपति के पद पर दलित, आदिवासी या मुसलमान को बैठा सकते हैं, क्योंकि वह नीतियां या कानून नहीं बनाता। पर वे किसी भी दलित या मुसलमान को प्रधानमंत्री बनाने का जोखिम नहीं ले सकते। बता रहे हैं कंवल भारती

अक्सर दलित बुद्धिजीवियों से पूछा जाता है कि उन्होंने दलितों के लिए क्या किया? हैरानी यह है कि यह सवाल दलित राजनीतिज्ञों से नहीं पूछा जाता, जबकि ऐसे सवालों का सीधा संबंध राजनीतिज्ञों से ही है। इस तरह ये दो सवाल हैं– एक वह, जो दलित बुद्धिजीवियों से पूछा जाता है, और दूसरा वह, जो दलित राजनीतिज्ञों से (क्यों) नहीं पूछा जाता। हैरानी यह भी है कि ये सवाल उन लोगों द्वारा पूछे जाते हैं, जिनका दूर-दूर तक दलितों के जीवन से कोई वास्ता नहीं रहता, और जो चौबीसों घंटे-आठों प्रहर दलितों के प्रति घृणा से लबालब भरे रहते हैं। इनमें वे साधारण सवर्ण भी शामिल हैं, जो डिलीवरी ब्वॉय की जाति देखकर सामान लेते हैं, और नाम सुनकर जैसे ही पता चलता है कि डिलीवरी ब्वॉय दलित है, तो सामान फेंककर उसके साथ मारपीट करते हैं, और वे असाधारण लोग भी शामिल हैं, जैसे जज, जो अपने फैसले से (न्याय से नहीं) सवर्णों को यह संदेश देते हैं कि दलितों के साथ दुर्व्यवहार या मारपीट बंद कमरे में या एकांत में करो, जहां कोई गवाह न हो, सार्वजनिक स्थान पर नहीं, जहां तमाम लोग देखें और कुछ लोग गवाही देने के लिए तैयार हो जाएं। विडंबना है कि ऐसे ही लोग दलित बुद्धिजीवियों से पूछते हैं कि उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए क्या किया?

इसी तरह की कुछ बचकानी बातें स्वराज आंदोलन के दौरान ब्राह्मण नेता भी कहते थे, पर दूसरे तरीके से। वे कहते थे कि हमें दलितों को सुधारने के लिए कुछ करना चाहिए। इस तरह की बातें जब वे करते थे तो यह मान लेते थे कि दलित बिगड़े हुए लोग हैं, जिन्हें सुधारने की जरूरत है। ऐसे लोगों को डॉ. आंबेडकर ने अपने लेख ‘व्हाट इट इज टू बी एन अनटचेबिल’ में यह कहकर करारा जवाब दिया था कि वे यह क्यों नहीं कहते कि उन्हें सवर्णों को बदलने के लिए कुछ करना चाहिए। बिगड़े हुए दलित नहीं हैं, बल्कि सवर्ण बिगड़े हैं। इसलिए सुधार या परिवर्तन की जरूरत दलितों को नहीं, सवर्णों को है।

लेकिन उन ब्राह्मण वर्ग के नेताओं ने सवर्णों को बदलने के लिए कुछ नहीं किया। छुआछूत दूर करने की उनकी अपीलें भी राजनीतिक थीं, इसलिए अनसुनी कर दी गईं। राजनीतिक इस लिहाज से थीं, क्योंकि उनकी प्राथमिकता यह नहीं थी कि दलितों को मनुष्य का गौरव दिया जाए, बल्कि यह थी कि उन्हें ईसाई और मुसलमान बनने से रोका जाए। इसलिए कांग्रेस और आर्यसमाज ने भी दलितों के लिए शुद्धि-आंदोलन चलाया, सवर्णों की शुद्धि के लिए नहीं। आज वे ही लोग, जिन्होंने अपने अंदर कोई परिवर्तन नहीं किया, दलित बुद्धिजीवियों से सवाल करते हैं कि उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए क्या किया?

मैं इस तरह के सवाल पूछने वालों से पूछना चाहता हूं कि इस देश में पावर किसके हाथ में है? दलितों के हाथों में या ब्राह्मणों के हाथों में? जाहिर है कि पावर यानी सत्ता, न सिर्फ राजनीतिक, बल्कि धार्मिक क्षेत्र में भी, ब्राह्मणों के ही हाथों में है। इस सच्चाई से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। धर्म और राजनीति दोनों क्षेत्रों में ब्राह्मण का ही आदेश चलता है, धर्म के उच्च आसन पर बैठा ब्राह्मण आज भी शूद्र जातियों को समान अधिकार देने को तैयार नहीं है, बल्कि यह कहना कदाचित गलत न होगा कि समानता और स्वतंत्रता के शब्द उनके धर्म में आते ही नहीं हैं। अब जिसके धर्म में समानता और स्वतंत्रता के शब्द ही नहीं हैं, तो उसकी राजनीति कैसे स्वतंत्रतावादी और समतावादी हो सकती है?

दलित चेतना : डॉ. आंबेडकर की तस्वीर के साथ प्रदर्शन करते लोग

मैं आज के भाजपा शासन की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि पिछले तमाम शासनों की बात भी कर रहा हूं। केंद्र में प्रधानमंत्री बदलते रहे हैं, और राज्यों में मुख्यमंत्री बदलते रहे हैं, पर शासन पर ब्राह्मण का आधिपत्य नहीं बदला। वह आज़ादी के बाद से ही ज्यों का त्यों रहा है। वे राष्ट्रपति के पद पर दलित या मुसलमान को बैठा सकते हैं, क्योंकि वह नीतियां या कानून नहीं बनाता। पर वे किसी भी दलित या मुसलमान को प्रधानमंत्री बनाने का जोखिम नहीं ले सकते। हाहाकार मच जाएगा, जिस दिन कोई दलित या मुसलमान प्रधानमंत्री बन जाएगा। फिर कहां है लोकतंत्र? कहां है स्वतंत्रता? आज़ादी के बाद भारत में लोकतंत्र नहीं, वास्तव में ब्राह्मणतंत्र कायम हुआ था। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एक सौ एक ब्राह्मणों के चरण पखार कर हिंदू राष्ट्र का श्रीगणेश किया था, भारत का पहला प्रधानमंत्री और लगभग सभी राज्यों के पहले मुख्यमंत्री ब्राह्मण बनाए गए थे। अपवाद-स्वरूप भी कोई गैर-ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं था। यह राष्ट्रवाद था। इसे जातिवाद कहने का चलन तब तक भारतीय राजनीति में नहीं आया था। जातिवाद शब्द भारतीय राजनीति में नब्बे के दशक में आया, जब दलित-पिछड़ी जातियों के नेताओं का उभार हुआ, और बिहार और उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के नीचे से सत्ता खिसकी। लेकिन जल्दी ही हिंदुत्व की राजनीति ने उसे पुनर्जीवित कर दिया।  

आंबेडकर की भविष्यवाणी सही साबित हुई। उन्होंने 1942 में ‘इंडियन सेक्शन ऑफ दि इंस्टिट्यूट ऑफ पैसिफिक रिलेशंस’ की ओर से कनाडा में आयोजित सम्मेलन में भारत के दलितों की समस्याओं पर एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया था। उसमें उन्होंने दो बातें कही थीं। पहली यह कि साम्राज्यवाद से ज्यादा घातक जातिवाद है, और भारत में जब तक जातिवाद से नहीं निपटा जाएगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती। दूसरी बात उन्होंने यह कही थी कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में यदि स्वतंत्रता किसी का लक्ष्य है, तो वह लक्ष्य सिर्फ दलित वर्ग का है। हिंदुओं (ब्राह्मणों) और मुसलमानों (अशराफ) का लक्ष्य स्वतंत्रता नहीं है। उनका लक्ष्य सत्ता हासिल करना है। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता मांगने वाले किसी भी दल और संगठन ने दलितों की स्वतंत्रता में रूचि नहीं ली है, और इसलिए नहीं ली है, क्योंकि उनका लक्ष्य भारतीयों को स्वतंत्रता देना नहीं है, बल्कि उनका लक्ष्य ब्रिटिश नियंत्रण से स्वाधीन होकर सत्ता के उन स्थानों और साधनों पर कब्जा करना है, जो आज ब्रिटिश के पास है। (आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस, वाल्यूम 9, पृष्ठ 401-402)

जाति कोई दीवार या भवन नहीं है, जो बुलडोजर से गिरा दी जाए। ब्राह्मण वर्ग के नेता बुलडोजर से किसी मुसलमान या दलित का घर तो ध्वस्त कर सकते हैं, पर जाति को ध्वस्त नहीं कर सकते। जाति एक धर्म है, जिसे साधारण ब्राह्मण ही नही, राजनीति और न्यायपालिका का ब्राह्मण भी, यहां तक कि एक मार्क्सवादी ब्राह्मण भी, अपने मस्तिष्क में हमेशा धारण किए रहता है। बद्री नारायण जैसे निदेशकों ने अपने शिक्षा संस्थान में रिक्त पदों पर शत-प्रतिशत ब्राह्मणों को भरते समय यह नहीं सोचा था कि यह साधारण ब्राह्मण है, या जज या राजनीतिक ब्राह्मण या मार्क्सवादी ब्राह्मण का पुत्र है। बस ब्राह्मण है, इतना ही काफी है। इसलिए वर्तमान हिंदू राज्य से किसी ब्राह्मण को क्या शिकायत हो सकती है, भले ही वह मार्क्सवादी हो, क्योंकि ब्राह्मण होने का भरपूर लाभ उसे मिल ही रहा है। लेकिन ऐसे निदेशकों से या ऐसे हिंदू राज से दलित-पिछड़े वर्ग को शिकायत क्यों नहीं होगी, जब उनके द्वारा दलित-पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को ‘अयोग्य’ करार देकर बाहर कर दिया गया हो? अगर उन्होंने एक भी दलित-पिछड़े अभ्यर्थी को नियुक्त कर लिया होता, तो वे दलित-पिछड़े की एक पीढ़ी का विकास करते। मगर उन्होंने दलित-पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को अयोग्य घोषित करके सिर्फ नौकरी के अवसरों से ही वंचित नहीं किया, बल्कि उनकी कई पीढ़ियों के विकास को भी रोक दिया। यही है आचार्यों का द्रोणवाद, जोदलित-पिछड़े को दलित-पिछड़े बनाए रखने का शास्त्र और शस्त्र दोनों है। आंबेडकर गलत नहीं कहते थे कि अस्पृश्यता का उद्देश्य केवल सामाजिक अलगाव को कायम रखना नहीं है, बल्कि दलितों को आर्थिक अवसरों से भी वंचित रखना है। 

सवाल यहां यह उठाया जा सकता है कि फिर इतनी संख्या में दलितों को नौकरियां कैसे मिल गईं? तो इसका जवाब है, लोकतंत्र में वोट की राजनीति। अगर दलितों को मताधिकार प्राप्त नहीं होता, तो किसी भी ब्राह्मण सरकार के लिए दलितों को नौकरियां देने की कोई बाध्यता नहीं होती। इसलिए ब्राह्मण लोकतंत्र को बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं मानते हैं। वे आज भी राजतंत्रों की वकालत करते हैं। आरएसएस के सभी पिछले और वर्तमान मुखिया स्वतंत्रता और समानता और लोकतंत्र को भारतीय संस्कृति (असल में हिंदू संस्कृति) की अवधारणाएं नहीं मानते हैं। उनकी आस्था वर्णव्यवस्था में है, जिसे वे समरसता का नाम भी देते हैं। यही कारण है कि वे समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा करने या उसे खत्म करने के बयान खुद भी देते रहते हैं और अपने संतों से भी दिलवाते रहते हैं। वरना इसका क्या औचित्य है कि आरएसएस के संत-संगठन लोकतंत्र के विरुद्ध हिंदूराष्ट्र की घोषणा करने के लिए सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं? क्यों नहीं उनके खिलाफ राजद्रोह में मुकदमा कायम किया जाता, जबकि वे खुलेआम संविधान के खिलाफ बगावत करते हैं?

कांग्रेस का ब्राह्मण तंत्र इस मायने में थोड़ा उदार था कि उसने वोट की राजनीति के दबाव में आरक्षण का विशेष अभियान चलाकर भारी संख्या में दलितों को नौकरियों में भर्ती किया था। किन्तु भाजपा के ब्राह्मण तंत्र में यह उदारता भी नहीं है। इसे समझने की जरूरत है कि भाजपा का ब्राह्मण तंत्र दलित-पिछड़ी जातियों के लिए उदार क्यों नहीं है? उदार तो छोड़िए, वह हद दर्जे तक खतरनाक भी है। कांग्रेस को यह चिंता थी कि दलित-पिछड़ी जातियों के पास विशाल संख्याबल है, जिसके बिना ब्राह्मण तंत्र जीवित नहीं रह सकता। बहुसंख्यक वर्ग की इस शक्ति को पहचानते भाजपा और आरएसएस भी हैं, पर वे इस शक्ति को छिन्न-भिन्न करने की कला जानते हैं। पहला काम उन्होंने यह किया कि महादलित और महापिछड़ा बनाकर इस विशाल बहुजन वर्ग के चार टुकड़े कर दिए, और महादलित को लघु दलित से और महापिछड़े को लघु पिछड़े से लड़ाकर लघु वर्गों को कमजोर कर दिया। दोनों महावर्गों को उन्होंने हिंदुत्व से जोड़कर उनकी नसों में हिंदू-मुसलमान का उन्माद भर दिया, जिसे अब हर चुनाव में भाजपा के लिए ही वोट करना है। इन महावर्गों को शिक्षा और नौकरियों से अलग-थलग करने की पूरी रणनीति भाजपा के हिंदुत्व में है, जिसे भेद पाना और तोड़ पाना अब बहुसंख्यक वर्गों की बश की बात नहीं है।

एक और हथियार भाजपा के ब्राह्मण तंत्र ने इस्तेमाल किया है, जिसे कांग्रेस के ब्राह्मण तंत्र ने बहुत कम इस्तेमाल किया था। वह हथियार है, दमन का। अब बहुसंख्यक वर्गों को जागरूक करने का काम जोखिम भरा है। सत्ता की दलित-विरोधी नीतियों के खिलाफ बोलने, हिंदुत्व का विरोध करने, प्रशासन के दमन के खिलाफ आवाज उठाने और पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ प्रदर्शन करने का मतलब है अर्बन-नक्सल, देश-द्रोह, या सांप्रदायिक या जातीय संघर्ष कराने के आरोप में पुलिस की हिरासत में यातनाएं झेलना और बिना बेल के सालों जेल में सड़ना। उदाहरण के तौर पर आनंद तेलतुंबड़े जैसे न जाने कितने दलित बुद्धिजीवी और कार्यकर्त्ता फर्जी आरोपों में आज जेलों में बंद हैं।

ऐसे दलित-विरोधी वातावरण में कोई दलित बुद्धिजीवी दलितों के लिए कैसे काम कर सकता है?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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