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सवर्ण आरक्षण का ‘असर’

इसने बता दिया कि सवर्णों की बौद्धिक क्षमता ओबीसी जातियों के समरूप ही है। उनमें कोई वंशानुगत प्रतिभा नहीं है। अवसर और संसाधन एक होने पर ओबीसी युवा सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, बेहतर परिणाम ला रहे हैं। बता रहे हैं वीरेंद्र यादव

सरकारी नौकरियों में और उच्च शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधानसम्मत है। इसका दायरा धीरे-धीरे बढ़ता गया है। प्रारंभ में केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को ही क्रमश: 15 फीसदी और 7.5 फीसदी आरक्षण प्राप्‍त था। लेकिन मंडल कमीशन की अनुशंसा को लागू किये जाने के बाद वर्ष 1993 से सरकारी नौकरियों में ओबीसी को आरक्षण मिलने लगा। फिर 2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले हेतु ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया गया। इसी क्रम में वर्ष 2019 से गरीब सवर्णों के लिए भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्‍यवस्‍था की गयी। वहीं सरकारी शैक्षणिक संस्‍थाओं में भी अधिकतर जगहों पर यह आरक्षण है, लेकिन कहीं-कहीं स्थिति स्‍पष्‍ट नहीं है। 

पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की बात करें तो बिहार में मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसा के आलोक में मुख्‍यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने 1978 में पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया था। आरक्षित कोटे की जातियों को आरक्षण के कारण कई प्रकार के लाभ हुए। मसलन, उन्हें नौकरियों में अवसर मिले और शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व बढ़ा। इन सभी की सामाजिक बदलाव में बड़ी भूमिका रही। 

इस क्रम में एक अहम परिवर्तन वर्ष 2019 में तब हुआ जब केंद्र सरकार द्वारा गरीब सवर्णों के लिए दस फीसदी आरक्षण लागू किया गया। इसे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण की संज्ञा दी गई। यह पहली दफा था जब बिना किसी आयोग की अनुशंसा के किसी तबके को आरक्षण दिया गया था। संसद और विधान मंडलों में बिना विरोध के सवर्णों के आरक्षण से संबंधित बिल पास भी हो गये। राजद समेत कुछ दलों ने इसका विरोध किया था, लेकिन वह भी निरर्थक रहा। प्रारंभ में लगता था कि सवर्णों को आरक्षण देने से अन्‍य आरक्षित वर्गों को नुकसान होगा। उनकी हकमारी होगी। हालांकि सरकार ने पूर्व निर्धारित आरक्षण की सीमा में छेड़छाड़ किये बगैर गरीब सवर्णों को आरक्षण दिया था।

दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन हेतु आवेदन देने के लिए पंक्ति में खड़े युवा

गरीब सवर्णों को आरक्षण दिये जाने को लेकर अन्‍य जातीय और सामाजिक संगठनों ने विरोध किया था। कई संगठनों के द्वारा इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं सुनवाई के लिए लंबित हैं। लेकिन इसका अब साइड इफेक्‍ट भी दिखने लगा है। खुद को श्रेष्‍ठ बताने वाले और कभी आरक्षण को भीख का कटोरा कहनेवाले सवर्ण अब स्वयं आरक्षण हासिल करने के लिए पात्रता प्रमाण पत्र के लिए दफ्तर-दफ्तर चक्‍कर लगा रहे हैं। दरअसल, केंद्र सरकार ने ईडब्ल्यूएस के मामले में आय को आधार बनाया है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे ओबीसी के लिए क्रीमीलेयर और गैर-क्रीमीलेयर का प्रावधान। लेकिन बात अब इससे आगे बढ़ गयी है। सवर्ण आरक्षण के बाद अनेक प्रतियोगी परीक्षाओं के परिणाम आए और उनके कटऑफ मार्क्‍स सार्वजनिक किये गये हैं। इसमें यह दिखने लगा है कि ओबीसी छात्रों से भी कम मार्क्‍स गरीब सवर्णों को आ रहे हैं। एक उदाहरण संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा वर्ष 2019 में लिये गये अखिल भारतीय परीक्षा में प्रीलिमनरी में ईडब्ल्यूएस के लिए कट ऑफ मार्क्स 90 रखा गया तो ओबीसी के लिए यह 95.34 था। वहीं मेन्स परीक्षा में यह क्रमश: 696 और 718 था। जबकि फाइनल परीक्षा में ईडब्ल्यूएस के लिए 909 और ओबीसी के लिए 925 निर्धारित किया गया। यही पैटर्न यूपीएससी के 2020 में हुई परीक्षा में भी अपनाया गया। प्रीलिमनरी परीक्षा में ईडब्ल्यूएस के लिए कट ऑफ मार्क्स 77.55 और ओबीसी के लिए 89.72 रखा गया। मेन्स में यह कट ऑफ मार्क्स क्रमश: 687 और 698 था। साथ ही फाइनल में यह 894 और 907 था।

बताते चलें कि कट ऑफ मार्क्स का निर्धारण परीक्षार्थियों के प्रदर्शन के आधार पर किया जाता है। परीक्षार्थी जितना अच्छा प्रदर्शन करेंगे, उतना ही कट ऑफ मार्क्स अधिक होगा। इस लिहाज से देखें तो ओबीसी परीक्षार्थियों के बेहतर प्रदर्शन का आकलन किया जा सकता है। आज वे मेरिट के मामले में सवर्णों से पीछे नहीं हैं। इसका सीधा मतलब है कि कल तक प्रतिभा का खोल ओढ़कर पर खुद को सर्वश्रेष्‍ठ बताने वाले समाज का असली चेहरा सामने आ गया है।

अब एक सवाल यह भी है कि जब देश की सभी जातियों अलग-अलग शर्तों के साथ आरक्षण के दायरे में आ गयी हैं, तब सामान्‍य श्रेणी के लिए कौन चयनित हो रहा है। मतलब ओबीसी आरक्षण की पात्रता के लिए वार्षिक आय पर आधारित क्रीमीलेयर की सीमा है तो गरीब सवर्णों के लिए भी इसी तर्ज पर आय सीमा को निर्धारित किया गया है। वर्तमान में दोनों के लिए यह सीमा आठ लाख रुपए है। 

मुमकिन है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी राजनीतिक या सामाजिक विवशताओं के कारण गरीब सवर्णों को आरक्षण देने का निर्णय लिया होगा। इसके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव का भी आकलन किया होगा। लेकिन इसने बता दिया कि सवर्णों की बौद्धिक क्षमता ओबीसी जातियों के समरूप ही है। उनमें कोई वंशानुगत प्रतिभा नहीं है। अवसर और संसाधन एक होने पर ओबीसी युवा सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, बेहतर परिणाम ला रहे हैं। स्‍कूल, कॉलेज या विश्‍वविद्यालयों की परीक्षाओं में भी ओबीसी और अन्‍य आरक्षित श्रेणी के युवा सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, टॉप रैंक में आ रहे हैं। नौकरियों के लिए होनी वाली प‍रीक्षाओं में भी टॉप रैंक ला रहे हैं।

आरक्षण की व्‍यवस्‍था के खिलाफ सवर्णों ने ‘बौद्धिक आतंक’ मचा रखा था। उन्‍हें लगता था कि आरक्षण के कारण कम प्रतिभा वाले उनसे बेहतर अवसर हासिल कर रहे हैं। इस बात को लेकर हंगामा भी खूब करते थे। मंडल आयोग के खिलाफ सवर्णों का हिंसक विरोध बौद्धिक आंतक का विस्‍फोट ही था। इसकी कानूनी लड़ाई भी उन्‍होंने लड़ी। कानूनी प्रक्रिया में वे कई बार भारी भी पड़े, लेकिन अंतत: मंडल आयोग की अनुशंसा के आलोक में आरक्षण की व्‍यवस्‍था लागू की गयी। शैक्षणिक संस्‍थानों में भी आरक्षण की व्‍यवस्‍था की गयी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सवर्णों को एक झटके में आरक्षण देने की घोषणा कर दी और इसके लिए संविधान में संशोधन भी किया गया। इसके बाद सवर्णों ने खूब जश्‍न मनाया। उन्‍हें लगा कि ‘रामराज’ आ गया है। उन्‍हें भी अब बेहतर मौके मिलेंगे। उन्हें ऐसा लगना स्‍वाभाविक था। दरअसल, सवर्ण आरक्षण ने कोचिंग संस्‍थानों से लेकर विश्‍वविद्यालय कैंपस तक का माहौल बदल दिया। सवर्णों के बौद्धिक अहंकार को हर जगह चुनौती मिलने लगी। सवर्ण आरक्षण के कारण सवर्ण जातियां भी आरक्षण की लाइन में खड़ी हो गयीं। परीक्षा परिणामों ने बता दिया कि सवर्णों की प्रतिभा दलितों और पिछड़ों से अलग या अधिक नहीं है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

वीरेंद्र यादव

फारवर्ड प्रेस, हिंदुस्‍तान, प्रभात खबर समेत कई दैनिक पत्रों में जिम्मेवार पदों पर काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र यादव इन दिनों अपना एक साप्ताहिक अखबार 'वीरेंद्र यादव न्यूज़' प्रकाशित करते हैं, जो पटना के राजनीतिक गलियारों में खासा चर्चित है

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