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मैला ढोने की प्रथा : सरकार की नीयत में खोट

सिर पर मैला ढोने के प्रथा खत्म करने के लिए जातिवाद का खात्मा भी जरूरी है। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों मे स्वच्छकार समाज सामाजिक तौर पर अलग-थलग है और उसके लिए जरूरी है कि इन समुदायों के लोगों का अलग-अलग क्षेत्रों मे प्रतिनिधत्व हो। बहस-तलब में पढ़ें विद्या भूषण रावत का यह आलेख

बहस-तलब

अभी पिछले हफ्ते राज्यसभा में केंद्र सरकार ने देश में सिर पर मैला ढोने की प्रथा के संबंध में आंकड़े दिये। इसके अनुसार देश भर में इस प्रथा में संलग्न लोगों की कुल संख्या 58 हजार 98 है। इनमें 32 हजार 473 उत्तर प्रदेश में है। इसके बाद इस सूची में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तराखंड आदि प्रदेशों का स्थान है। सरकार ने संसद को यह भी बताया के मैला ढोने से किसी की कोई मौत नहीं हुई है, लेकिन सीवर की सफाई करते हुए पिछले 5 वर्षों मे देश में 347 लोग मारे गए हैं। केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र कुमार ने यह भी बताया कि वर्ष 1993 से अब तक सीवर की सफाई करते समय कुल 941 सफाईकर्मी मारे गए हैं, जिनमें तमिलनाडु में 213, गुजरात में 153, उत्तर प्रदेश में 104, दिल्ली में 98, कर्नाटक में 84 कर्नाटक और हरियाणा में 77 सफाईकर्मियों की मौत शामिल है। 

हालांकि केंद्र सरकार द्वारा दिये गये उपरोक्त आंकड़े विश्वसनीय नहीं हैं, क्योंकि देश में कुल सफाईकर्मियों की संख्या कितनी है, इसका ही आंकड़ा अभी अस्पष्ट है। हकीकत तो यह है कि यह आंकड़ा हजारों में नहीं बल्कि आंकड़ा लाखों मे जाएगा। वर्ष 2013 में मैनुअल स्कवेनजिंग एकट में मैला ढोने की परिभाषा को बृहत्तर कर दिया गया था जो कि 1993 में मूल विधेयक में वर्णित परिभाषा से भिन्न था। तब यह केवल मानव मल की सफाई मे लगे लोगों तक ही सीमित था। लेकिन 2013 मे इसका दायरा बढ़ाकर सीवर में काम करनेवाले सफाईकर्मियों को भी इसमे शामिल कर लिया गया। लेकिन परिभाषा को व्यापक कर देन के कारण अधिकारियों की परेशानिया बढ़ी, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि दुनिया भर में यह संदेश जाए कि भारत मे अभी भी मानव मल ढोने का काम होता है।

दरअसल, इस घिनौनी प्रथा को समाप्त करने के लिए हमारी सरकारों के पास कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है। जैसे हर सरकारी काम मे एक डेड लाइन होती है, वैसे ही सिर पर मैला ढोने की इस प्रथा को खत्म करने के लिए भी एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित हो। लेकिन जब सरकार के आंकड़े ही अविश्वसनीय हों तो कहने को और क्या शेष रह जाता है है। 

इसे ऐसे भी देखें कि आंकड़ों में इसे कम दिखाने के पीछे एक चाल तो यह होती है कि उसको खत्म करने के नाम पर लक्ष्य छोटा हो जाता है और फिर उपलब्धि का बखान करना आसान होता है। वर्ष 2013 से ही सरकार के आंकड़ों में भारी समस्या दिखाई दी थी और सामाजिक कार्यकर्ताओं और जन-संगठनों ने इसकी सही संख्या के लिए स्वच्छकार समुदाय की विशेष जनगणना की बात कही। वर्ष 2011 मे केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा कराये गये सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश मे 1 लाख 82 हजार 505 लोग सिर पर मैला ढोने के काम मे लगे हैं। वर्ष 2013 मे सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने ऐसे सफाईकर्मियों की संख्या 6 लाख 76 हजार 9 कहा था, जो कि वर्ष 2002-03 का आंकड़ा था। इसके पहले राष्ट्रीय सफाईकर्मचारी आयोग ने 1993 में ऐसे सफाईकर्मियों की कुल संख्या 5 लाख 77 हजार 228 घोषित किया, लेकिन स्वच्छकार समाज के हितों को लेकर काम करनेवाले सामाजिक संगठनों ने 12 लाख के आसपास का अनुमान किया था। लेकिन किसी के पास कोई पक्का आंकड़ा नहीं था। क्या 2014 के बाद यह आंकड़ा कम हुआ होगा? यदि हां तो सरकार को यह बताना चाहिए कि किन कारणें से सिर पर मैला ढोनेवालों की संख्या में कमी आई है, क्योंकि कोविड महामारी के दो सालों में भी सफाईकर्मियों के साथ सबसे ज्यादा अन्याय हुआ। फ्रंट लाइन वॉरियर कहलाये जाने के बावजूद भी काम पर मरनेवाले सफाईकर्मियों को कभी भी उतना मुआवजा नहीं मिला, जितना दूसरों को मिला। दिल्ली में शायद एक मामला आया, जहां मुख्यमंत्री अरविंद केजरिवाल ने काम के दौरान कोविड का शिकार हुए एक सफाईकर्मी की मौत के बाद उसके परिवार को एक करोड़ रुपए बतौर मुआवजा दिया। इसके अलावा देश भर में सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है, जिसमें मृतक सफाईकर्मियों के परिजनों को इस तरह का मुआवजा दिया गया हो। 

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद जारी है सिर पर मैला ढोने की प्रथा

इसके विपरीत, कोविड के दौरान भी सफाईकर्मियों को समय पर वेतन न मिलने के बहुत से समाचार प्रकाश में आये और बहुत लोगों को नौकरी से बाहर का रास्ता भी दिखा दिया गया। सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने यह भी बताया था कि 1989 तक देश मे 72.05 लाख पारंपरिक शौचालय थे, जबकि राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग इसकी संख्या करीब 96 लाख तक बता रहा था। सरकार यह भी कहती है कि 95 फीसदी से अधिक सफाईकर्मी दलित समुदाय से हैं। 

वैसे हम सभी जानते हैं कि सिर पर मैला ढोने की प्रथा जातिगत प्रथा है। जो लोग यह करते हैं, उन्हें पंजाब मे मजहबी, चूड़ा, लाल बेगी आदि कहा जाता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा में वे वाल्मीकि समुदाय के नाम से जाने जाते हैं। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में रावत, हेला और हलालखोर आदि जातियां इस पेशे को करती हैं। कई जगहों पर बांसफोर और डोम समुदाय के लोग भी यह काम करते हैं। बंगाल में इस पेशे में अधिकांश जातियां उत्तर भारत से आई हुई हैं। तमिलनाडु मे अरुंधतियार जाति के लोग यह काम करते हैं। ये सभी जातियां दलितों मे सबसे निचले पायदान पर हैं और वृहत्तर दलित-बहुजन आंदोलन में इस प्रश्न को लेकर महज औपचारिकता निभायी गयी है। हालांकि केंद्र सरकार कह रही है कि सफाई पेशे में लगे 97 फीसदी से अधिक दलित समुदाय के लोग हैं, लेकिन यह भी पूरी तरह से सही नहीं है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस पेशे में स्वच्छकार समुदाय ही संकल्पित है और यह समुदाय भी सीढ़ीनुमा असमानता का शिकार है, जिसका जिक्र डॉ. आंबेडकर ने भारतीय वर्णव्यवस्था को बताने के तौर पर किया है। दरअसल जो अन्य जातियां इस पेशे मे आयीं बताई जा रही हैं, वे नगर निकायों, रेलवे, आदि में सफाईकर्मी के तौर पर आए अन्य लोग हो सकते हैं, जो एक ‘पक्की नौकरी’ के लिए अब आवेदन कर रहे है। नगर निकायों मे अन्य जातियों के सफाईकर्मी अक्सर सफाई का काम नहीं करते और धीरे-धीरे वे ऑफिस असिस्टेंट या सुपरवाइज़र बन जाते हैं। 

कुछ वर्षों पूर्व जब उत्तर प्रदेश मे पंचायतों मे सफाई कर्मचारियों की भर्ती की गई थी तो उसमें अनेक गैर-स्वच्छकार समुदाय के लोगों की नियुक्ति हो गई, क्योंकि यहां नगर निकायों की तुलना में ज्यादा पैसा था और काम कम था। गांव मे सफाईकर्मी ग्राम प्रधान के अलावा किसी का घर भी नहीं जानता होगा और यदि वह गांव की ही बड़ी बिरादरी का व्यक्ति है तो वह काम ही नहीं करता और उसकी जगह पर कोई दूसरा रख दिया जाता है। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार सफाई समुदायों की ईमानदार जनगणना करवाए और फिर उनके सम्मानजनक पुनर्वास के लिए निश्चित समय सीमा में एक कार्यक्रम तैयार करे, जिसमें सभी पार्टियों और समुदायों के लोग भी शामिल हों। 

अब इस संदर्भ में कुछ और पहलुओं पर गौर करते हैं। सफाई कर्मचारी आंदोलन की एक याचिका पर 27 मार्च, 2014 को सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने एक बेहद महत्वपूर्ण फैसला दिया था। इस खंडपीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एन. वी. रमन ने सरकार को निम्नलिखित आदेश दिए– 

  1. इस पेशे मे लगे लोगों को मुक्त करने के लिए एक मुश्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाय। 
  2. स्वच्छकार समुदाय के बच्चों को केंद्र सरकार, राज्य सरकार या स्थानीय निकायों के स्कूलों मे छात्रवृति प्रदान की जाय। 
  3. इस प्रथा में संगल्न परिवारों को आवासीय प्लॉट दिया जाए और उन्हें आवास बनाने हेतु मदद दी जाय या बने बनाए आवास उपलब्ध करवाए जाएं। 
  4. मैला ढोने वाले परिवार के एक सदस्य को आजीविका का प्रशिक्षण दिया जाए और उसके लिए स्टाइपेंड की भी व्यवस्था हो। 
  5. मैला ढोने वाले परिवार के एक सदस्य को उसकी योग्यता और इच्छा के मुताबिक प्रावधानों के अनुसार रियायती दरों पर ऋण प्रदान किया जाय। 
  6. सीवर लाइन में हुई मौतों को अपराध घोषित किया जाए और प्रत्येक मृतक के परिवार को 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाय। 
  7. रैलवे और अन्य सरकारी संस्थान मैला प्रथा करने हेतु अपने स्तर पर कदम उठाएं। 
  8. मैला ढोने की प्रथा मे लगी महिलाओं का सम्मानपूर्वक पुनर्वास किया जाय। 

अब इतना बड़ा फैसला आने के बाद भी इनके ऊपर सही प्रकार से अमल ही नहीं किया गया। अभी सरकार के पास आंकड़ा आया है, जो राज्यसभा में रखा गया, जिसमें बताया गया कि 1993 से अब तक 941 सफाईकर्मी सीवर की सफाई करते समय मारे गए। पिछले पांच वर्षों में यह आंकड़ा सरकार के ही मुताबिक 347 है। अब सवाल यह उठता है कि क्या पिछले पांच वर्षों मे जो लोग मारे गए हैं, उनके आश्रितों को दस-दस लाख रुपए का मुआवजा दिया गया है या नहीं? सवाल यह भी है के अभी तक कितने परिवारों को सरकार ने आर्थिक मदद दी है? हम जानते हैं कि मात्र चालीस हजार रुपए की मदद दी जा रही है, लेकिन यह भी कितने पीड़ित परिवारों को मिली है? क्या इस मदद से लोगों का सम्मानपूर्वक पुनर्वासन हो पा रहा है? तीसरा प्रश्न यह कि अभी तक स्वच्छकार समुदाय के कितने बच्चों को छात्रवृति प्रदान की गई है? क्या यह आंकड़ा हमें मिल सकता है कि इन समुदायों के कितने बच्चे विभिन्न राज्य सरकारों के स्कूलों मे पढ़ रहे हैं? यही आंकड़ा केंद्रीय विद्यालयों और नगरनिगमों द्वारा संचालित विद्यालयों का चाहिए और यह भी बताया जाय कि उन्हे कुल कितनी छात्रवृति मिल रही है? क्या सरकार ने मैला ढोने का काम छोड़ने वाले लोगों का ईमानदारी से पुनर्वास किया है? यदि हां, तो कितने लोगों को घर मिले हैं? 

समस्या है कि इन सभी बातों को एक साथ लागू करने से कुछ-कुछ समाधान होता, लेकिन वह नहीं हो रहा। क्या वाकई मे चालीस हजार की राशि लोगों को इस पेशे से मुक्त कर सकती है? हकीकत यह है आर्थिक रूप से विपन्न समाज के लिए यह भी एक अवसर होता है कि वह इसे स्वीकार कर ले, क्योंकि बाकी सभी प्रश्नों के मामले में सरकार असफल रही है, इसलिए लोग भी कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन इससे लोग मानव मल ढोने की प्रथा से मुक्त हो सकेंगे, यह संदिग्ध ही है। 

दरअसल, मैला ढोने के प्रथा खत्म करने के लिए जातिवाद का खात्मा भी जरूरी है। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों मे स्वच्छकार समाज सामाजिक तौर पर अलग-थलग है और उसके लिए जरूरी है कि इन समुदायों के लोगों का अलग अलग क्षेत्रों मे प्रतिनिधत्व हो। राजनीतिक क्षेत्र में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। सरकारी सेवाओं में भी यही हाल है। क्या सरकार यह आंकड़ा दे सकती है कि इन समुदायों से आनेवाले कितने लोग ग्रुप ए, ग्रुप बी, ग्रुप सी और ग्रुप डी स्तर के कर्मचारी हैं? क्या हमारे पास यह आंकड़ा आ सकता है जो यह बताया सके कि किसी राज्य के प्राइमरी स्कूलों में स्वच्छकार समुदाय के कितने शिक्षक पढ़ा रहे हैं। कोई आंकड़ा जो यह बता सके कि विश्वविद्यालयों में इन सुमदायों के कितने अध्यापक हैं। कितने डॉक्टर और कितने इंजीनियर हैं। 

इन आंकड़ों के दो लाभ होंगे। एक तो सरकार को अपनी नीति बनाने मे मदद मिलेगी और दूसरी बात यह कि लोगों को समाज के अंदर परिवर्तन की लड़ाई मे रोल मॉडल के तौर पर इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन यह काम मुश्किल है, क्योंकि हम सब जानते हैं कि जो संख्याएं सामने आएंगीं, वे बिल्कुल उंगलियों पर गिनी जाने वाली होंगी। इनमें अधिकांश वही दो-चार लोग होंगे जो सशक्त परिवारों के होंगे। या फिर राजनीतिक तौर पर स्थापित लोगों के नजदीक रिश्ते नाते वाले लोग होंगे। जो मेहनत करके सफल हुए है, उनकी भी हालत सरकारी संस्थानों में अपनी जाति छुपाकर जातिगत अवहेलना से बचने की कोशिश मे ज्यादा लगती है। लेकिन इस हकीकत से हम मुंह नहीं मोड़ सकते कि शिक्षा और सत्ता में स्वच्छकार समुदाय की विभिन्न स्तरों पर भागीदारी हो। 

मूल बात यह है कि मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। नगर पालिकाओं में कार्यरत सफाईकर्मचारियों की हालात बहुत खराब है। नई भर्तियां नहीं हो रही हैं और अधिकांश लोग दिहाड़ी मजदूर हैं, जिन्हें न कोई छुट्टी की सुविधा है, न मेडिकल और ना ही न्यूनतम वेतन प्राप्त होता है। गांवों में इस काम का दाम नहीं है और वो केवल पारंपरिक है। होता यह है कि लोग साल भर में तीज-त्यौहार आदि के मौके पर इन समुदायों के लोगों को कुछ अनाज दे दिया करते हैं या फिर बचा-खुचा खाना दे देते हैं। यह बेहद ही अपमानजनक होता है लेकिन स्वच्छकार समुदाय के लोगों को यह करना पड़ता है। नहीं करने की स्थिति में उन्हें गांव निकाला भी दिया जा सकता है। फिर ऐसी ही परिस्थितियों में हाथरस जैसी जघन्य घटनाएं होती हैं और कुछ समय के बाद लोग भूल जाते हैं कि पीड़ित परिवार के साथ अब क्या हो रहा है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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