जनवादी ग़ज़लों, नज्मों एवं कविताओं को उसकी अंतरतम की आवाज़ के रूप में स्पष्टत: सुना और पहचाना जा सकता है। इसमें शोषितों-वंचितों, दलित-बहुजनों, मज़लूमों एवं स्त्रियों के ऊपर होने वाले जुल्म-ओ-सितम के प्रतिरोध में बड़ी हिम्मत, शिद्दत और मज़बूती के साथ खड़ा होने का जज़्बा एवं जन-सामान्य को साथ लेकर चलने का साहसिक आह्वान एवं दृढ़ इच्छा-शक्ति सामने आती है। क्रांति, इंकलाब और सामाजिक परिवर्तन न तो रातों-रात होते हैं, और न ही यह अपनी जगह ठहरा हुआ रह सकता है। इसके लिए सुविचारित लक्ष्य, ईमानदार कोशिश एवं समेकित प्रयास द्वारा सतत संघर्ष एवं स्थिति- परिस्थिति पर नज़र-निगरानी एवं नियंत्रण रखना भी ज़रूरी होता है। इन्हीं विचारों के आलोक में अखिल भारतीय मुशायरा एवं कवि सम्मेलन का सफल आयोजन, लखनऊ स्थित सेनानी बिहार में गत 13 जून को हुआ।
भारत और पाकिस्तान दोनों को ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी की रस्म अदायगी के बाद जनता-जनार्दन एवं भाग्य विधाता के नाम से बहलाई गई जनता को जिन वादों के पूरा होने की उम्मीद थी, उनसे वंचित और महरूम होकर जनता में जो अविश्वास जनित निराशा घर करने लगी थी उसकी साहित्यिक-सामाजिक व्यंजना एवं पैरोकारी आज़ादी के तत्काल बाद ही कवियों एवं शायरों द्वारा ज़ोरदार शब्दों में होने लगी थी। जैसे कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म है– “बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे/ बोल जबां अब तक तेरी है/ तेरा सुतवां जिस्म है तेरा/ बोल कि जां अब तक तेरी है।” वहीं भारत में इस तरह के क्रांतिकारी गीत एवं कविताएं रामधारी सिंह दिनकर लिख-पढ़ रहे थे– “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”
ये तब के सवाल थे। आज के सवाल वही नहीं तो वैसे ही जरूर हैं क्योंकि तब भी आम जनता आजादी के फल से दूर थी और आज भी उसकी आजादी उसके सुख-चैन में उस गति से सहायक नहीं है। लखनऊ में हुआ उपरोक्त आयोजन वर्तमान के प्रश्नों से टकराने एवं बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए लिखने-पढ़ने वालों की पुरजोर आवाज़ का एक संगम, छितराई हुईं उंगलियों के मुट्ठी में तब्दील होने का एहसास करा गया।
‘सम्यक सृजन समिति’ लखनऊ एवं सहयोगी संस्था ‘विप्लवी चेतना-मंच’ ने संयुक्त रूप से कार्यक्रम का आयोजन किया। इस आयोजन में देश के जानेमाने कवियों, शायरों और ग़ज़लकारों ने अपनी सोद्देश्य रचनाओं के माध्यम से अपनी सार्थक उपस्थित दर्ज कराई।
इनमें रीवा, मध्य प्रदेश से प्रो. दिनेश कुशवाह, गाजियाबाद से डॉ. लाल रत्नाकर, रुड़की (उत्तराखंड) से ओम प्रकाश ‘नूर’, लखनऊ से ओम प्रकाश ‘नदीम’, याद करण याद, बी.आर. विप्लवी, डॉ. रचना एवं रामशंकर वर्मा, रायबरेली से शम्ससुद्दीन अज़हर,जय चक्रवर्ती एवं रमाकांत, जौनपुर से आर.पी. सोनकर ‘तल्ख़़ मेहनाज़पुरी’,वाराणसी से अमित कामरा तथा हरदोई से प्रशांत अरहत ने शिरकत की।

तीन सत्रों में यह आयोजन हुआ। पहले सत्र में पुस्तक विमोचन का था, जिसमें तीन पुस्तकों का विमोचन हुआ। पहली पुस्तक “ओम प्रकाश ‘नदीम’ की ग़ज़लें”, का लोकार्पण, देश के चर्चित कवि, लेखक एवं प्रोफेसर डॉ. दिनेश कुशवाह के हाथों संपन्न हुआ। ग़ज़लकार ओम प्रकाश ‘नदीम’ की ग़ज़लों में उनकी वैचारिकी एवं काव्य दृष्टि के माध्यम से पुस्तक का परिचय हिंदी ग़ज़ल पर शोधरत छात्र अमित कामरा ने करवाया। दूसरी विमोचित पुस्तक बच्चों के लिए लिखे काव्य-संग्रह ‘नन्हें बादशाह’ रही, जिसकी रचनाकार डॉ. रचना, बिजली पासी राजकीय पीजी कॉलेज लखनऊ में हिंदी की एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। इस पुस्तक का विमोचन कवि व ग़ज़लकार याद करण याद ने किया एवं पुस्तक का परिचय युवा कवि एवं ग़ज़लकार प्रशांत अरहत ने किया। तीसरी विमोचित पुस्तक रही– ‘नया ज़माना-नई ग़ज़लें’। इसके लेखक/संपादक ओम प्रकाश ‘नूर’ और जीतेंद्र जितांशु हैं। इसका विमोचन भी डॉ. लाल रत्नाकर ने किया।
दूसरे सत्र में ‘विप्लवी चेतना मंच’ के तत्वावधान में ‘सम्यक सृजन समिति’ लखनऊ की अध्यक्षा दुर्गावती विप्लवी द्वारा अंतर्राष्ट्रीय चित्रकार एवं कवि तथा सामाजिक-राजनीतिक विमर्शकार डॉ. लाल रत्नाकर को ‘रमा-नारायण स्मृति डॉ. आंबेडकर सम्मान’ दिया गया। इस सम्मान के रूप में उन्हें दस हजार रुपए का चेक, प्रशस्ति पत्र व स्मृति चिह्न दिया गया। इस सम्मान समारोह में उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री के.के. गौतम भी मौजूद रहे।
तीसरे एवं अंतिम सत्र में अखिल भारतीय मुशायरा एवं कवि सम्मेलन में देश के जाने-माने कवियों, शायरों एवं ग़ज़लकारों ने अपनी एक से बढ़कर एक सामाजिक उन्मेष की रचनाओं से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि व कवि प्रोफेसर दिनेश कुशवाह ने इस मौके पर अपनी कविता प्रस्तुत की– “नेता अफसर सेठ, हो गए भारत भाग्य विधाता, तेरी जय हो भारत माता, काशी आया नया जुलाहा, कबिरा को गरिआता; सूट बूट में घूम रहा है, एक सूत नहीं काता, तेरी जय हो भारत माता।”
वहीं जौनपुर से पधारे शायर आर.पी. सोनकर ‘तल्ख़ मेहनाजपुरी‘ ने अपने तल्ख़ लहजे में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कुछ इस तरह बयान किया– “इनको तो जीने का हक़ है और उनको जीने का हक़ है; दिल पर हाथ रखो फिर बोलो, क्या सबको जीने का हक है?” शायर ने सवालिया लहजे में पूछा—“बोलो जीना मुहाल है कि नहीं? तुमको इसका मलाल है कि नहीं? आदमीयत बड़ी है या मज़हब? एक जायज़ सवाल है कि नहीं?” बी.आर. विप्लवी ने कहा– “परिंदे चुग गए सब खेत कुछ बाकी नहीं है; खड़ा है मुल्क ख़ाली पेट कुछ बाकी नहीं है; चुरा कर ले गया यह कौन सीपी-शंख सारे; बची है हाथ गीली रेत, कुछ बाकी नहीं है।”
कुल मिलाकर यह कार्यक्रम एक सफल जनवादी विमर्श का कार्यक्रम था, जिसमें कविताओं और शायरी के माध्यम से वे सारी बातें की गईं जो बड़े-बड़े विमर्शों में घंटों के व्याख्यान के बाद ध्वनित होती हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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