दलित साहित्य का नाम नहीं बदलेगा, और आदिवासी साहित्य भी अपनी यथास्थिति को बनाए रखेगा, इस बीच ओबीसी के नाम से ओबीसी साहित्य ही सर्वस्वीकृत होकर सामने आएगा। इन तीनों विमर्श में जो दार्शनिक एकता दिखाई देती है वह भविष्य के बहुजन साहित्य का ही रूप ले लेगी, ऐसी कामना की जा सकती है। शीलबोधि का विश्लेषण :