बुनियाद की ईटें अनदेखी रह जाती हैं। ऐसी ही एक अनदेखी ईंट को दुनिया के सामने लाने की कोशिश का नतीजा इसलामपुर की शिक्षा-ज्योति कुंती देवी किताब है। कुंती देवी स्थानीय स्तर पर एक हद तक सावित्रीबाई फुले की प्रतिरूप सी लगती हैं। यह किताब स्त्री मुक्ति के संघर्षों के विभिन्न रूपों को भी सामने लाती है
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लेखक हरेराम सिंह बता रहे हैं ओबीसी रचनाकारों के बारे में, जिन्होंने वही रचा-लिखा जो उन्होंने भोगा। उनकी रचनाओं में काल्पनिक पात्र नहीं होते। उनकी गवाही समाज देता है। साथ ही यह भी कि ओबीसी रचनाकारों ने अपनी रचनाओं से साहित्य जगत को समृद्ध किया है और इस कारण साहित्य पहले से अधिक लोकतांत्रिक हुआ है
हिंदी साहित्य में द्विज प्रतिमानों और दृष्टि को चुनौती देकर नये प्रतिमान गढ़ने वाले बहुजन अध्येताओं में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने हिंदी साहित्य, भोजपुरी भाषा और भारतीय इतिहास के अनदेखे और उपेक्षित कर दिए गए पहलुओं को उजागर किया है। इस पूरे संदर्भ में उनकी भूमिका रेखांकित कर रहे हैं हरेराम सिंह :
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अपने ‘जमीन’ और ‘धारा’ उपन्यासों के जरिए बनाफर चंद्र हिन्दी साहित्य में 1970-80 से लेकर 21वीं सदी के दूसरे दशक का दक्षिणी बिहार के समाज व संघर्ष को छाती ठोंककर सामने रखते हैं। उनके साहित्य में गांव-जवार सजीव होता है और सवाल भी खड़े करता है। हरेराम सिंह का विश्लेषण :
Through his novels “Zamin” and “Dhara”, he daringly opens up about southern Bihar’s society and struggles from the 1970s all the way to the second decade of the 21st century. His literature makes the villages and surroundings come alive while also asking questions
असुर परम्पराओं में कथित तौर पर देवताओं के साथ युद्ध को कई रूपों में दर्शाया गया है। इनका जिक्र साहित्य में भी किया गया है। हाल के वर्षों में मुख्यधारा के साहित्य ने भी अपने रुख में बदलाव किया है। अब असुर परम्पराओं को जगह दिया जाने लगा है। इस बारे में विश्लेषण कर रहे हैं हरेराम सिंह
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आधुनिक संस्कृत के ‘अश्वघोष’ कहे जाने वाले कवि व्रजनंदन वर्मा का 13 जनवरी को काराकाट (बिहार) के करूप इंग्लिश ग्राम स्थित अपने निवास ‘प्रज्ञा कला केन्द्र’ में निधन हो गया
Poet Vrajnandan Verma, widely known as the “Ashwaghosh” of modern Sanskrit, died at his home Pragya Kala Kendra in Karoop English Gram here on 13 January
प्रेमकुमार मणि ने स्वीकारा है कि आज जो ओबीसी साहित्य की बात उठ रही है उसके पीछे दलित साहित्य की संकीर्णतावादी सोच है। इसे मिल-बैठकर, विमर्श कर दूर करना ही श्रेयस्कर है
Mani has admitted that the concept of OBC literature was inspired by the rather narrow notion of Dalit literature and this constricted approach should be done away with through discourse
सर्वहारा के साथ बहुजन शब्द जोडऩा मैं उचित समझता हूं, क्योंकि ‘पूंजी’ ही भारतीय समाज में सब कुछ नहीं है। इसके अलावा भी कुछ है, जिसका विरोध जरूरी है, जिन्हें यह दृष्टि नहीं है, वह न तो मार्क्सवादी आलोचना को समझ सकता है और न ही बहुजन साहित्य को