तुर्क-ए-फ़िरोज़शाही से लेकर आइने-अकबरी तक जैसे ग्रंथ हमें बताते है कि मुस्लिम समुदायों में जाति और कबीलाई पहचान के दो प्रमुख पैमाने हैं। ऐसे में समुदाय का पेशा और वर्चस्व के आधार पर उनका सामाजिक मूल्य तय हो सकते थे। यही वजह है कि अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में कुछ समुदायों के लिए ‘अशराफ़’ (जो शरीफ़ हों) कुछ के लिए ‘अजलाफ़’ (ज़लील से संबद्ध) और कुछ के लिए ‘अरज़ाल’ शब्द प्रयुक्त होता है। बता रहे हैं हिलाल अहमद