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कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता…

जितना सुंदर कविता कोश का प्रयास है, उतने ही सुंदर ललित के विचार भी हैं। देश-समाज से जुड़े हर मुद्दे पर बेहद गहरी सोच रखने वाले ललित निश्चित ही देश के लिए मिसाल हैं। ऐसे शख्स से मुलाकात करना, उसके बारे में जानना सचमुच हमें हिम्मत प्रदान करता है

मैंने अपनी मर्जी से कभी विकलांगता सर्टिफिकेट नहीं बनवाया और जब बन गया तो मैंने कभी उसका प्रयोग नहीं किया…मैंने जीवन में एक बात जानी है, अगर बराबरी पानी है तो वो मांग कर कभी नहीं मिलती, आपको स्वयं को बराबर सिद्ध करना पड़ता है। आंदोलन और हड़ताल के बल पर मुख्यधारा में शामिल हो भी गए तो भी रहेंगे एक अलग रूप में ही…आगे बढऩा है तो सबसे पहले दलित नाम की दीवार को तोडऩा होगा…कविता कोश व गद्य कोश के संस्थापक और लालित्य इंटरनेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स एंड कल्चर के प्रमुख ललित कुमार इन्हीं बातों से चर्चा शुरू करते हैं। जाति का पिछड़ापन और शारीरिक अक्षमता कई लोगों के लिए पीड़ा और पिछड़ेपन का कारण हो सकती है तो अनेक लोगों के लिए आगे बढऩे का मार्ग; लेकिन ललित ने इन दोनों से अलग राह बनाई। ललित सिर्फ पिछड़े वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि समाज के कथित ऊपरी तबके के लिए भी प्रेरणास्रोत हैं। ललित ने न तो शारीरिक अक्षमता को और ना ही सामाजिक व आर्थिक पिछड़ेपन को कभी अपने रास्ते में आड़े आने दिया।

पारिवारिक पृष्ठभूमि और शिक्षा से सामना

ललित बढ़ई परिवार से आते हैं और पिछली पीढ़ी तक इनका परिवार इसी पेशे में लगा हुआ था। उनके परिवार में रोजी-रोटी कमाने में शिक्षा का कोई महत्व नहीं था, क्योंकि पिता बढ़ईगिरी का काम अपने बेटों को सिखा दिया करते थे और बेटे इसी में अपना भविष्य खोजते थे। ललित चार साल की उम्र में पोलियो के जबर्दस्त प्रहार के शिकार हुए। एक तरफ पोलियो की बीमारी और दूसरी तरफ गैर-जरूरी समझी जाने वाली स्कूली शिक्षा। इस सबके बावजूद ललित का स्कूल में दाखिला हुआ और उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा नियमित स्कूलों से पढ़ाई से पूरी की। ललित इसका श्रेय अपने माता-पिता और दादा-दादी को देते हैं। ललित की शिक्षा ऐसे स्कूलों में हुई जहां समावेशी शिक्षा दूर की बात है, अति-साधारण सुविधाएं भी नहीं होती थीं। कक्षा में हमेशा उन्हें दूसरे बच्चों से अलग समझा गया। अधिकांश सहपाठियों का रवैया भी उनके साथ अच्छा नहीं होता था, क्योंकि शिक्षातंत्र द्वारा बच्चों को अच्छा व्यवहार करना सिखाया ही नहीं जाता था। ललित की शिक्षा दिल्ली नगर निगम के स्कूलों में पूरी हुई जो समावेशी तो बिल्कुल भी नहीं थे। इन दिनों अपने संस्मरण पर काम कर रहे ललित आजकल पुरानी चीजों को याद कर रहे हैं।

रोजगार की कठिन राह

ललित की दसवीं तक की पढ़ाई हिंदी माध्यम में हुई लेकिन ग्यारहवीं कक्षा में उनका सामना अंग्रेजी माध्यम से हुआ। उन्होंने ग्यारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय चुना। विज्ञान हालांकि उनका प्रिय विषय था लेकिन अब उसके लिए अचानक अंग्रेजी माध्यम में पढऩा एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया। इस रास्ते में मुश्किलें बहुत आईं लेकिन ललित ने अग्रणी रहते हुए अपनी स्कूली शिक्षा का सफर पूरा किया। इसके बाद लाइफ साइंस विषय में ग्रेजुएशन और साथ में एनआईआईटी से कम्प्यूटर विज्ञान की पढ़ाई करते हुए भी ललित सभी बाधाओं को साहसपूर्वक पार करते रहे। प्रथम श्रेणी में स्नातक डिग्री पूरी करने और एनआईआईटी का फर्स्ट सेमेस्टर पूरा हो जाने के बाद ललित ने रोजगार का जरिया तलाशना शुरू किया। परिवार चूंकि शिक्षा के खर्च को नहीं उठा पा रहा था इसलिए ललित का ध्यान इस ओर गया। लेकिन एक शिक्षित विज्ञान स्नातक बन जाने के बावज़ूद, उनके लिए यहां भी राह बहुत कठिन थी। ललित ने पाया कि प्रेजेंटेबल अपियरेंस नहीं होने के कारण ललित के लिए छोटी-मोटी नौकरी के अधिकांश दरवाजे बंद हो जाते थे। इस कारण ललित ने अपनी रणनीति पर पुनर्विचार शुरू किया। नौकरी की तलाश से किनारा कर अब ललित ने घर में ही कोई छोटा-मोटा काम करना शुरू करने की सोची। लेकिन वहां भी बात नहीं बनी। विकलांगता उनके हर रास्ते में सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ी मिलती थी।

1997 से 2000 के बीच पोलियो के प्रभाव को कुछ हद तक ठीक करने के लिए ललित के छह बार ऑपरेशन हुए। जब उनके सहपाठी अपने कॅरियर में आगे बढ़ रहे थे, ललित एक के बाद एक ऑपरेशनों का दर्द झेलते हुए बिस्तर पर पड़े थे। इन ऑपरेशनों के दर्द को सहते हुए भी ललित ने एनआईआईटी का कोर्स गोल्ड मेडल सहित पूरा कर लिया। ललित कहते हैं, हमारे समाज में रहने के लिए आपको अन्य सभी लोगों की तरह होना पड़ता है। यदि आप थोड़े भी अलग हैं तो परेशानी उत्पन्न हो जाती है। हमारा समाज विविधता को सहजता से नहीं लेता। छह ऑपरेशनों की पीड़ा से निकल, आखिरकार सन 2000 में ललित ने एक साफ्टवेयर प्रोग्रामर के रूप में अपना कॅरियर शुरू किया और 2001 में यूनाइटेड नेशंस के साथ काम करना शुरू किया। 2006 में एक यूएन ऑफिसर की शानदार नौकरी से इस्तीफा देकर वे बायोइन्फॉर्मेटिक्स विषय में आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉटलैंड चले गए। इसके लिए ललित ने स्कॉटलैंड की सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली पूर्ण स्कॉलरशिप के अवार्ड को भी जीता। स्कॉटलैंड में डिस्टिंक्शन सहित परास्नातक उपाधि हासिल करने के बाद ललित ने मेडिकल रिसर्च काउंसिल के साथ जुड़कर जेनेटिक्स और बायोइन्फॉर्मेटिक्स के क्षेत्र में यूरोपियन यूनियन के एक प्रतिष्ठित प्रोजेक्ट पर काम किया। मेडिकल रिसर्च काउंसिल चिकित्सा के क्षेत्र में शोध करने वाली विश्व की शीर्ष संस्था है और करीब 30 नोबेल पुरस्कार विजेता इसके साथ कार्य कर चुके हैं। इसके बाद कनाडा की सरकार द्वारा पीएचडी के लिए ललित को पूर्ण स्कॉलरशिप ऑफर की गई। वे इसके लिए कनाडा गए लेकिन वहां से जल्द ही भारत वापस लौट आए, क्योंकि उन्हें कविता कोश नामक अपना स्वयं का एक प्रोजेक्ट बुला रहा था।

कविताकोश की कहानी

ललित 2009 में लौटे। साल 2006 में यूएन में रहते हुए इस्तीफा देने से दो-तीन महीने पहले ही ललित ने कविता कोश की शुरुआत शौकिया तौर पर की थी। 2006 का यह ऐसा दौर था जब इंटरनेट युग भारत में पैर पसार रहा था। लोग इंटरनेट पर अपने ब्लॉग, कविता, कहानियां लिख रहे थे लेकिन एक सीमा तक ही। इंटरनेट पर बड़े रचनाकारों की सामग्रियां मौजूद तो थीं लेकिन एक मंच ऐसा नहीं था जो उन्हें जोड़ सके। पाठकों को उपलब्ध सामग्री तलाशने में खासी मशक्कत करनी पड़ती थी। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर शौक के तौर पर कविता कोश परियोजना की शुरुआत हुई जो आज ललित और उनके साथियों के लिए एक गौरव के साथ-साथ जिम्मेदारी भी बन गई है। कविता कोश को समाज को समर्पित कर ललित ने व्यक्तिगत वेबसाइट के रूप में गद्य कोश की स्थापना भी की है।

आज कविता कोश और गद्य कोश भारतीय साहित्य की सबसे विशाल ऑनलाइन लाइब्रेरी बन चुकी है। कविता कोश में 60,000 से अधिक कविताओं, गज़़लों, नज़्मों, गीतों इत्यादि का संकलन है और गद्य कोश में फिलहाल उपलब्ध 9500 पन्नों में हज़ारों कहानियां, उपन्यास, निबंध, लेख इत्यादि संकलित हैं। इन दोनों वेबसाइटों को प्रति माह करीब तीन लाख लोग पढ़ते हैं। कविता कोश की यह विशाल परियोजना कैसे साकार हो सकी इसके बारे में ललित बताते हैं कि कविता कोश स्वयंसेवा पर आधारित परियोजना है। अभी तक करीब 5 स्वयंसेवकों ने कविता कोश के विकास हेतु कम या ज्यादा योगदान दिया है। गद्य कोश ललित की अपनी निजी वेबसाइट है और इसका विकास वे स्वयं ही करते हैं।

कविता कोश प्रोजेक्ट जब काफी बड़ा हो गया और इसके लिए बेहतर सर्वर व अधिक धन की आवश्यकता हुई। इतने महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट के लिए ललित को न तो सरकार से ही मदद मिली और ना ही अन्य संस्थाओं से। शुरुआत के कुछ वर्षों में कविता कोश के सर्वर का खर्च ललित और उनके मित्रों ने ही दिया। जब अधिक धन की आवश्यकता हुई तो बड़ी हिंदी सेवी संस्थाओं ने तो कोई सहायता नहीं दी लेकिन कोश के प्रशंसकों और पाठकों ने धन की कमी को दूर करने का प्रयास अवश्य किया। इसीलिए ललित ने लालित्य इंटरनेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स एंड कल्चर नामक एनजीओ की स्थापना भी की। कविता कोश के लिए मिलने वाली आर्थिक मदद ललित इसी एनजीओ के जरिए लेते हैं ताकि मिलने वाली सारी सहायता और होने वाले खर्चों की ऑडिटिंग हो सके और और इसका ब्यौरा दानकर्ताओं को दिया जा सके।

जितना सुंदर कविता कोश का प्रयास है, उतने ही सुंदर ललित के विचार भी हैं। देश-समाज से जुड़े हर मुद्दे पर बेहद गहरी सोच रखने वाले ललित निश्चित ही देश के लिए मिसाल हैं। ऐसे शख्स से मुलाकात करना, उसके बारे में जानना सचमुच हमें हिम्मत प्रदान करता है। इंटरनेट पर kavitakosh.org वेबसाइट पर आपको हजारों रचनाकारों की काव्य रचनाएं मिलती हैं। इस वेबसाइट पर हर महीने करीब तीन लाख लोग विजिट करते हैं।

(फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

मुकेश

मुकेश फारवर्ड प्रेस के हिमाचल प्रदेश संवाददाता हैं

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