पिछले अनेक वर्षों से यह देखा जा रहा है कि बहुजन विमर्श का दायरा लगातार सिमट रहा है और वह छोटी राजनीतिक आकांक्षाओं तक सिकुड़ गया है। जिस विचार को माना जाता था कि वह भारतीय समाज को बदल देगा, वह आज लगभग अप्रासंगिकता के उस कगार पर खड़ा है, जहां एक ओर विलोप की गहरी खाई है, जिसमें गिरना उसकी नियति है। ऐसा क्यों है? रामजी यादव का विश्लेषण