मोहन भागवत से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि यदि हिंदू कभी देशविरोधी नहीं हो सकता, तो असीम त्रिवेदी और कन्हैया कुमार को देशद्रोह की धारा में क्यों गिरफ्तार किया गया था? क्या वे हिंदू नहीं हैं? कंवल भारती का विश्लेषण
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भारतीय द्विज इतिहासकार लक्ष्मीबाई को स्वतंत्रता संग्राम की महानायिका बताते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि स्त्रियों की स्वतंत्रता की जो लड़ाई सावित्रीबाई फुले ने लड़ी, वह उन्हें लक्ष्मीबाई से अधिक प्रभावकारी महानायिका बनाती है। ऐसी महानायिका जिसने भारत की तमाम महिलाओं को गुलामी से आजाद होने का मार्ग प्रशस्त किया। स्मरण कर रहे हैं ओमप्रकाश कश्यप
जो महिलाएं वर्जनाओं को भेद लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहती हैं, सामाजिक ढांचे को तोड़ नए आयाम करना चाहती हैं, रूढ़ियों को पीछे छोड़ आगे बढ़़ना चाहती हैं, उनके लिए सावित्रीबाई फुले सबसे अधिक प्रेरणादायक आईकॉन हैं। स्मरण कर रही हैं निर्देश सिंह
रूपाली बताती हैं कि वह स्वयं दलित समुदाय से आती हैं और उनके सामने बड़ी चुनौती यही थी कि कोई संसाधन नहीं था। एक टीशर्ट से जो पैसे मिलते उससे दूसरा टीशर्ट और फिर इस तरीके से इस उद्यम को आगे बढ़ाया है
इसके पहले किसानों के जितने भी आंदोलन हुए, उन्हें ऊंची व दबंग जातियाें के किसानों का आंदोलन कहा गया। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। इस आंदोलन में सभी तबके के किसान शामिल हैं। फिर चाहे वे दलित हों, अति पिछड़े वर्ग के हों। यह एकजुटता महत्वपूर्ण है
बिहार और यूपी से आने वाली एक्सप्रेस रेलगाड़ियों में जनरल क्लास की बोगियां सबसे पहले और सबसे आखिर में क्यों जोड़ी जाती हैं? इसकी एक वजह यह भी है कि यदि किसी ट्रेन की टक्कर हो तो वे लोग बचे रहें जो बीच में हैं और मजदूर नहीं हैं। क्या भारत के मजदूर इस बात को समझते हैं? रामजी यादव का विश्लेषण
जब भारत का संविधान अनुच्छेद 25 यह आजादी देता है कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कोई भी धर्म चुन सकता है, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के दिमाग में धर्म-परिवर्तन के खिलाफ उल्लू कैसे बैठ गया? संविधान की शपथ खाकर पदासीन कैबिनेट ने संविधान-विरोधी इस अध्यादेश को पास कैसे कर दिया? इसके पीछे सरकार की मंशा दलितों को दलित बनाए रखने की है। बता रहे हैं कंवल भारती
संकलन में शामिल कविताएं समाज के अलग-अलग मुद्दों को सामने लाती हैं। मसलन, डॉ. महेंद्र बेनीवाल अपनी कविता ‘कब तक मारे जाओगे’ के जरिए समाज से डॉ. आंबेडकर के बताए मार्ग पर चलने का आह्वान करते हैं। पूनम तुषामड़ की समीक्षा
बिहार विधानसभा चुनाव में नए-नए मुद्दे उभर रहे हैं। सरकारी नौकरी का नया नैरेटिव सामने आया है। क्या यह नैरेटिव दलितों को प्रभावित करेगा? जनता दल यूनाईटेड की दलित प्रकोष्ठ की प्रदेश उपाध्यक्ष सागरिका चौधरी से विशेष बातचीत के संपादित अंश
बिहार में महादलित और उत्तर प्रदेश में दलित जातियों में शामिल मुसहर जाति की अपनी पीड़ा गाथा है। वे भूमिहीन हैं और सामाजिक रूप से बहिष्कृत भी। आए दिन वे राज्य सत्ता के निशाने पर रहते हैं। लेकिन उनकी पीड़ा का दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है। यहां तक कि दलित साहित्य में भी वे हाशिए पर हैं। रामजी यादव का विश्लेषण